शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

गीत 31 : गाँवों में आ गए....

जिनको रहबर समझ रहे थे वही बने हैं आज लुटेरे

गाँवों को भी हवा लग गई शहरों वाली राजनीति की
पनघट की वो हँसी- ठिठोली बीती बातें ज्यों अतीत की
परधानी’ ’सरपंचीकरने गाँवों में आ गए बघेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे....


जहाँ कभी कीर्तन होते थे चौपाले अब सूनी सूनी
राजनीति ने ज़हर भर दिए होने लगी चुनावें ख़ूनी
बूढ़ा बरगद देख रहा है घोटाले हर साँझ सवेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे.......


रामराज का महानरेगासाहिबान के बंगलों पर है
ताल-मछलियों की संरक्षा खादी वाले बगुलों पर है
हर चुनाव में फेंक रहे हैं कैसे कैसे जाल मछेरे

जिनको रहबर समझ रहे थे.....

 
अख़बारों में अँटे पड़े हैं गाँव सभा की कथा-कहानी
टी0 वी0 वाले दिखा रहे हैं हरे-भरे खेतों में पानी
लेकिनघीसू’ ’बुधनाघूमे लिए हाथ में वही कटोरे
कैसे कैसे भेष बदल कर गाँवों में आ गए लुटेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे
..............

आनन्द.पाठक

रविवार, 15 जनवरी 2012

ग़ज़ल 027 [17] : दयार-ए-ग़रीबां में क्या ....


ग़ज़ल 027[17]
122------122------122------122
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन
बह्र-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
-----------------------------------------------
ग़ज़ल 027 : ओके

दयार-ए-ग़रीबां में क्या ढूँढता हूँ ?
ग़रीबुलवतन की नवा ढूँढता हूँ !

सियासत में फ़िरक़ापरस्ती हो जाइज़
वहाँ किस मरज़ की दवा ढूँढता हूँ ?

जो शोलों को भड़का के तहरीक कर दे
वही इन्क़िलाबी हवा ढूँढता हूँ

इक आवाज़ आती पलट कर ख़ला से
उसी में तुम्हारी सदा ढूँढता हूँ

कभी ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात होगी
मैं बाहर भला क्यों ख़ुदा ढूँढता हूँ

वो मेरी नज़र में वफ़ा ढूँढते हैं
मैं उनकी नज़र में हया ढूँढता हूँ

गिरिफ़्तार-ए-ग़म हूँ मै इतना कि "आनन"
मैं अपने ही घर का पता ढूँढता हूँ


दयार-ए-ग़रीबां = ग़रीबों की बस्ती में
ग़रीबुलवतन = अपना देश छोड़ कर परदेश में बसे लोग
नवा =आवाज़
तहरीक =आन्दोलन
ख़ला = शून्य आकाश से

[सं -03-06-18]

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

एक गज़ल 026 : आप इतना खौफ़ क्यों...

2122----2122----2122
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र--ए-रमल मुसद्दस सालिम
-------------------------------
 ग़ज़ल 026 : ओके

आप इतना ख़ौफ़ क्यों खाए हुए हैं ?
शह्र में जी ! क्या नए आए  हुए हैं ?

’आदमीयत’ खोजना तो व्यर्थ होगा
आदमी जब  मौत के साए हुए हैं

कुछ सियासी लोग ने क्या रंग बदले
गिरगिटों के रंग शरमाए हुए हैं

लोग श्रद्धा से नहीं हैं जनसभा में
चन्द सिक्कों के लिए आए हुए हैं

हक़ ब जानिब वो खड़ा है सर झुकाए
झूट वाले आजकल छाए हुए हैं

कब उन्हे फ़ुरसत कि मेरी बात सुनते
अपनी डफ़ली राग ख़ुद गाए हुए हैं

सुब्ह जीना शाम मरना रोज़ ’आनन’
आप क्यों मुझ पर तरस खाए हुए हैं

आनन्द पाठक

[सं 03-05-18]