मंगलवार, 30 मई 2023

ग़ज़ल 328[04 फ़] : मुझे क्या ख़बर किसने--

 ग़ज़ल 328 [04] 


ग़ज़ल 328[04फ़]

122--122--122--122


मुझे क्या ख़बर किसने क्या क्या कहा है

अभी मुझ पे तारी तुम्हारा  नशा  है ।


तुम्हें शौक़ है आज़माने का मुझको

हमेशा हूँ हाज़िर ,मना कब किया है


अभी शाम में ख़त मिला जब तुम्हारा

वही मैं पढ़ा जो न तुमने लिखा है


हज़ारों मनाज़िर मेरे सामने थे

तुम्हारा अलावा न कुछ भी दिखा है


बदन ख़ाक की ख़ाक में मिल गई तो

ये हंगामा इतना क्यों बरपा हुआ  है


नई रोशनी घर में आए तो कैसे 

न खिड़की खुली है, न दर ही खुला है


समझ जाएगी एक दिन वह भी ’आनन’

अभी वह मुहब्बत से नाआशना है 


-आनन्द.पाठक- 

सोमवार, 22 मई 2023

ग़ज़ल 327 [ 03F] : ज़िंदगी में रही एक कमी उम्र भर

 ग़ज़ल 327[03F]


212---212---212---212


जिंदगी में रही इक कमी उम्र भर

इन लबों पर रही तिशनगी उम्र भर


तुम जो आते तो दिल होता रोशन मेरा

तुम न आए रही तीरगी  उम्र भर 


जानता हूँ मगर कह मैं सकता नहीं

ज़िंदगी क्यों मुझे तुम छ्ली उम्र भर


ये नज़ाकत, लताफ़त ये लुत्फ़-ओ-अदा

किसकी क़ायम यहाँ कब रही उम्र भर


आप की बात पर था भरोसा मुझे

राह देखा किए आप की उम्र भर


हो न लुत्फ़-ओ-इनायत भले आप की

दिल करेगा मगर बंदगी उम्र भर


सबको अपना समझते हो ’आनन’ यहाँ

कौन होता किसी का कभी उम्र भर


-आनन्द.पाठक-


 

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 326 (02F): जब दिल में कभी उनका

Ghazal 326 [02F]

221---1222// 221--1222

जब दिल मे कभी उनका,इक अक्स उतर आया
दुनिया न मुझे भायी दिल और निखर आया

ऐसा भी हुआ अकसर सजदे में झुकाया सर
ख्वाबों मे कभी उनका चेहरा जो नजर आया

कैसी वो कहानी थी सीने मे छुपा रख्खी
तुमने जो सुनाई तो इक दर्द उभर आया

दो बूँद छलक आए नम आँख हुई उनकी
चर्चा में कहीं मेरा जब जख्म ए जिगर आया

अंजाम से क्या डरना क्यों लौट के हम आते
खतरों से भरे रस्ते दौरान ए सफर आया

क्या क्या न सहे हमने दम तोड़ दिए सपने
टूटे हुए सपनों से जीने का हुनर आया

 मालूम नही तुझको, क्या रस्म-ए-वफा उलफत
क्या सोच के तू 'आनन', कूचे मे इधर आया 

--आनन्द पाठक-

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 325 [01F] : आजकल आप जाने न रहते किधर

 325[01F]


212---212---212---212


आजकल आप जाने न रहते किधर

आप की अब तो मिलती नही कुछ ख़बर


इश्क नायाब है सब को हासिल नहीं

कौन कहता मुहब्बत है इक दर्द-ए-सर


ख़्वाब देखे थे या जो कि सोचे थे हम

अब तो दिखती नहीं वैसी कोई  सहर


काम ऐसा न कर ज़िंदगी  में कभी

ख़ुद चुरानी पड़े हर किसी से नज़र


छोड़ कर जो गया हम सभी को कभी

कौन आया है प्यारे यहाँ लौट कर


वक़्त रुकता नहीं है किसी के लिए

तय अकेले ही करना पड़ेगा सफ़र


दिल जो कहता है तुझसे उसी राह चल

क्यों भटकता है ;आनन’ इधर से उधर


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 324[89ई] : इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

 ग़ज़ल 324[89]


122---122---122---122


इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

निगाहों में क्यों दिख रही बेरुखी है


तेरी शख़्सियत का मैं इक आइना हूँ

तो फिर क्यों अजब सी लगे ज़िंदगी है


नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक

अजल से लबों पर वही तिश्नगी है


यक़ीनन नया इक सवेरा भी होगा

नज़र में तुम्हारी अभी तीरगी  है


बहुत दूर तक देख पाओगे कैसे

नहीं दिल में जब इल्म की रोशनी है


तुम आओगे इक दिन भरोसा है मुझको

उमीदो पे ही आज दुनिया टिकी है 


ये मुमकिन नहीं लौट जाऊँ मै ’आनन’

ये मालूम है इश्क़ ला-हासिली है ।


-आनन्द.पाठक-

अजल = अनादि काल से

ला-हासिली =निष्फल



सोमवार, 10 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 322(87E): जब आए ही नहीं तुम तो

ग़ज़ल 322(87E)

1222--------1222------1222

जब आए ही नहीं तुम तो बहाना क्या
गिला शिकवा शिकायत क्या सुनाना क्या

कभी तोड़ा नही वादा लब ए दम तक
ये दिल की बात है अपनी बताना क्या

नफा नुकसान की बातें मुहब्बत में
इबादत मे तिजारत को मिलाना क्या

हसीं तुम हो, खुदा की कारसाजी है
तो फिर पर्दे मे क्यों रहना, छुपाना क्या

भरोसा क्यों नहीं होता तुम्हे खुद पर
मुहब्बत को हमेशा आजमाना क्या 

अगर तुमने नहीं समझा तो फिर छोड़ो
हमारा दर्द समझेगा जमाना क्या  

अगर दिल से नहीं कोई मिले 'आनन'
दिखावे का ये फिर मिलना मिलाना क्या 

-आनन्द पाठक-

रविवार, 9 अप्रैल 2023

गजल 323(88E) निगाहों ने निगाहों से कहा

1222  1222   1222   1222
गजल 323(88E)

निगाहों ने निगाहों से कहा क्या था, खुदा जाने
कभी जब सामना होता लगे हैं अब वो शरमाने

 मिले दो पल को राहो में झलक क्या थी क़यामत थी
ये दिल मक्रूज है उनका  वो ख्वाबों मे लगे आने

नही मालूम है जिनको, मुहब्बत चीज क्या होती
वही तफसील से हमको लगे हैं आज  समझाने

इनायत आप की गर हो भले कागज की कश्ती हो
वो दर्या पार कर लेगी कोई माने नही माने
  
ये जादू है पहेली है कि उलफत है भरम कोई
कभी लगते हैं वो अपने कभी लगते है बेगाने

बड़ी मुशकिल हुआ करती, मैं जाऊँ तो किधर जाऊँ
तुम्हारे घर की राहों मे हैं मसजिद और मयखाने

अगर दिल साफ हो अपना तो पोथी और पतरा क्या
कि सीधी बात भी 'आनन' लगे हो और उलझाने

-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 321 [86इ] तुम्हारे चाहने से क्या हुआ है

ग़ज़ल  321[86इ] 

 1222---1222----122


तुम्हारे चाहने से क्या हुआ है
जो होना था वही होकर रहा है

बहुत रोका कि ये छलके न आँसू
हमारे रोकने से कब रुका है

भँवर में हो कि तूफाँ में सफीना
हमेशा मौज़ से लड़ता रहा है

हवाएँ साजिशें करने लगीं अब
चमन शादाब मुरझाने लगा है

हमारे हाथ में ताक़त क़लम की
तुम्हारे हाथ में खंज़र नया है

दरीचे खोल कर देखा न तुमने
तुम्हे दिखती उधर कैसी फ़ज़ा है

उजाले क्यों उन्हें चुभते हैं ’आनन’
अँधेरों से कोई क्या वास्ता  है ?

-आनन्द.पाठक-



सोमवार, 3 अप्रैल 2023

गज़ल 320(85E) : गर्म आने लगी है हवाएँ इधर

गजल 320(85)
212---212---212---212

गर्म आने  लगीं है हवाएँ इधर
'कुछ जली बस्तियाँ' कल की होगी खबर

चल पड़े लीडराँ रोटियाँ सेंकने
सब को आने लगी अब है कुर्सी नजर

आग की यह लपट कब हैं पहचानतीं
यह है 'जुम्मन' का घर या 'सुदामा' का घर

लोग गुमराह करते रहेंगे तुम्हे
उनकी चालों से रहता है क्यों बेखबर

अपने मन का अँधेरा मिटाया नहीं
चाहते हो मगर तुम नई इक सहर

प्यार की बात क्यों लोग करते नहीं
 चार दिन का है जब जिंदगी का सफर

 उनके हाथों के पत्थर पिघल जाएँगे
अपनी ग़ज़लों में 'आनन' मुहब्बत तो भर

- आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 319(84) : वो माया जाल फैला कर

ग़ज़ल 319(84)
1222---1222---1222---1222

वो माया जाल फैला कर जमाने को है भरमाता
हक़ीक़त सामने जब हो, मै कैसे खुद को झुठलाता

जिसे तुम सोचते हो अब कि सूरज डूबने को है
जो आँखें खोल कर रखते नया मंजर नजर आता

मै मह्व ए यार मे डूबी हुई खुद से जुदा होकर
लिखूँ तो क्या लिखूँ दिल की उसे पढ़ना नही आता

अजब दीवानगी उसकी नया राही मुहब्बत का
फ़ना है आखिरी मंजिल उसे यह कौन समझाता

मसाइल और भी तो हैं मुहब्बत ही नहीं केवल
कभी इक गाँठ खुलती है तभी दूजा उलझ जाता

दबा कर हसरतें अपनी तेरे दर से गुजरता हूँ
सुलाता ख़्वाब हूँ कोई, नया कोई है जग जाता

वही खुशबख्त है 'आनन' जिसे हासिल मुहब्बत है
नहीं हासिल जिसे वह दिल खिलौनों से है बहलाता

-आनन्द पाठक-

मंगलवार, 28 मार्च 2023

गजल 318(83E) :फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

 गजल 318(E)

212---212---212---212

फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

बच के जाएँ तो जाएँ मछलियाँ कहाँ


एक रिश्ता तो है ग़ायबाना सही

जब तलक है यह क़ायम जमी-आस्माँ


मैं जुबाँ से भले कह न पाऊँ कभी

मेरे चेहरे से होता रहेगा बयाँ


प्यास दर्या की ही तो नहीं सिर्फ है

क्यों समन्दर की होती नही है अयाँ


वस्ल की हो खुशी या जुदाई का गम

जिंदगी का न रुकता कभी कारवाँ


सैकडो रास्ते यूँ तो मक़सूद थे

इश्क का रास्ता ही लगा जाविदाँ


जानता है तू 'आनन' नियति है यही

आज अँधेरा जहाँ कल उजाला वहाँ


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

ग़ायबाना  =अप्रत्यक्ष

मक़सूद =अभिप्रेत

जाविदाँ  = नित्य, शाश्वत


रविवार, 26 मार्च 2023

ग़ज़ल 317 [82इ] : ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ

 ग़ज़ल 317/82


212---212---212---212


ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ

आँसुओं से कभी जब वो गीला हुआ


पढ़्ने वाले ने पढ़ कर समझ भी लिया

दर्द वह भी जो  खत में न लिख्खा हुआ


आप झूठी शहादत ही बेचा किए

यह तमाशा कई बार देखा हुआ


शोर ही शोर है बेसबब हर तरफ
कौन सुनता है किसको सुनाना हुआ


हर कली बाग़ की आज सहमी हुई

ख़ौफ़ का एक साया है फैला हुआ


अब परिन्दे भी जाएँ तो जाएँ कहाँ

साँप हर पेड़ पर एक बैठा हुआ


तुम भी ’आनन’ हक़ीक़त से नाआशना

सब की अपनी गरज़ कौन किसका हुआ



-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 23 मार्च 2023

ग़ज़ल 316[81 इ] : सच से उसका कोई वास्ता भी नहीं

 ग़ज़ल 316[81]


212---212---212---212


सच से उस का कोई वास्ता भी नहीं

क्या हक़ीक़त उसे जानना  भी नहीं


उँगलियाँ वो उठाता है सब की तरफ़

और अपनी तरफ़ देखता भी नहीं


रंग चेहरे क्यों उड़ गया आप का

इस तरफ़ तो कोई आइना भी नहीं


पीठ अपनी सदा थपथपाते हो तुम

क्या कहें तुमको कोई हया भी नहीं


टाँग यूँ ही अड़ाते हो तुम हर जगह

तुम को देगा कोई रास्ता भी नहीं


आप दाढ़ी मे क्या लग गए खोजने

मैने 'तिनका' अभी तो कहा भी नहीं


रेवड़ी बाँटने  ख़ुद  चले आप थे

किसको किसको दिया कुछ पता ही नहीं


राज-सत्ता भी ’आनन’ अजब चीज़ है

मिल गई , तो कोई छोड़ता भी नहीं


-आनन्द पाठक-

बुधवार, 22 मार्च 2023

ग़ज़ल 315[80इ] : ये अलग बात है वो मिला तो नहीं--

 ग़ज़ल 315  [ 80इ]


212---212---212---212


ये अलग बात है वो मिला तो नहीं

दूर उससे मगर मैं रहा तो नहीं


एक रिश्ता तो है एक एहसास है

फूल से गंध होती जुदा तो नहीं


उनकी यादों मे दिल मुब्तिला हो गया

इश्क की यह कहीं इबतिदा तो नहीं


कौन आवाज़ देता है छुप कर मुझे

आजतक कोई मुझको दिखा तो नहीं 


ध्यान में और लाऊँ मैं किसको भला

आप जैसा कोई दूसरा तो नहीं


लाख ’तीरथ’ किए आ गए हम वहीं

द्वार मन का था खुलना, खुला तो नहीं


आप जैसा भी चाहें समझ लीजिए

वैसे ’आनन’ है दिल का बुरा तो नहीं


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 314 [79 इ] : आप ने जो भी कुछ किया होगा

 ग़ज़ल 314[79]


2122---1212---22


आप ने जो भी कुछ किया होगा

हश्र में उसका फ़ैसला  होगा


चाह कर भी न कह सका उस से

उसने आँखों से पढ़ लिया होगा


ख़ौफ़ खाया न जो दरिंदो से

आदमी देख कर डरा  होगा


दिल पे दीवार उठ गई होगी

घर का आँगन भी जब बँटा होगा


अब भरोसा भी क्या करे  कोई

राहजन ही जो रहनुमा होगा


जाहिलों की जमात में अब वो

ख़ुद को आरिफ़ बता रहा होगा


रोशनी की उमीद में ’आनन’

आख़िरी छोर पर खड़ा होगा


-आनन्द पाठक-



शुक्रवार, 10 मार्च 2023

ग़ज़ल 313[78] जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

 ग़ज़ल 313/78


221---2121---1221---212


जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे


दिन रात मैकदा ही तुम्हारे खयाल में

तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरते रहे


इन्सानियत की बात किताबों में रह गई

अपना बना के लोग गला काटते रहे


चेहरे के दाग़ साफ नजर आ रहे जिन्हे

इलजाम आइने पे वही थोपते रहे


क्या दर्द उनके दिल में है तुमको न हो पता

अपनी ज़मीन और जो घर से कटे रहे


कट्टर ईमानदार हैं जी आप ने कहा

घपले तमाम आप के अब सामने रहे


बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब

मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे


'आनन' को कुछ खबर न थी, मंजिल पे थी नजर

काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ = नाम जपने की माला

मजलूम =पीड़ित


इसी ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुने---

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

क़िस्त 97/07 [होली 2023]

 क़िस्त 97/07 [होली 2023]

1

होली के दिन आए

आए न बालमवा

मौसम भी तड़पाए


2

रंगों का है मौसम

खेल रहे कान्हा

राधा भी कहाँ है कम


3

है प्रेम का रंग ऐसा

रंग अलग कोई

चढ़ता ही नहीं वैसा


4

होली का मज़ा क्या है

रंग लगा मन पे

इस तन में रखा क्या है


5

गोरी हँस कर बोली

" मन ही नहीं भींगा

फिर कैसी यह होली


-आनन्द.पाठक-

इन्ही माहियों को डा0 अर्चना पाण्डेय  की आवाज़ में सुनें--


चन्द माहिए : क़िस्त 96/06

 क़िस्त 96/06

1

तुम पास जो आओ तो

प्यास मेरी देखो

खुल कर जो पिलाओ तो


2

कब प्यास बुझी सब की

नदियाँ प्यासी हैं

प्यासा है समन्दर भी


3-

इक बार ही नाम लिया

नाम तेरा लेकर

जग ने बदनाम किया


4

मैं कैसे कह पाता

छू देती  गर तुम

मन और महक जाता


5

मन है महका महका

रंग लगा देना

मौसम भी है बहका


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 312[77इ] : चिराग़-ए-इल्म जिसका हो --

 ग़ज़ल 312


1222---1222---1222---1222


चिराग़-ए-इल्म जिसका हो, सही रस्ता दिखाता है

जहाँ होता वहीं से ख़ुद पता अपना बताता  है


शजर आँगन में, जंगल में कि मन्दिर हो कि मसज़िद मे

जो तपता ख़ुद मगर औरों पे वो छाया लुटाता है


समन्दर है तो क़तरा है, न हो क़तरा समन्दर क्या

ये रिश्ता दिल हमेशा ही निभाया है निभाता है


नज़र आता नहीं फिर भी तसव्वुर में है वह रहता

बहस मैं क्या करूँ इस पर नज़र आता, न आता है


हवेली माल-ओ-ज़र, इशरत जो जीवन भर जुटाते हैं

यही सब छोड़ कर जाते, कभी जब वह बुलाता है


इनायत हो अगर उनकी  तो दर्या रास्ता दे दे

करम उनका भला इन्साँ कहाँ कब जान पाता है


 जो संग-ए-आस्ताँ उनका हवा छूकर इधर आती 

मुकद्दस मान कर ’आनन’ ये अपना सर झुकाता है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शजर = पेड़

माल-ओ-ज़र इशरत = धन संपत्ति, ऐश्वर्य वैभव

संग-ए-आस्ताँ  = चौखट

मुक़द्दस =पवित्र


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 311[76इ] :दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

 1222---1222---1222--122


एक ग़ज़ल 311 [76इ]


दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

जो जुमले घिस चुके क्यों बारहा रटवा रहे हो


अकेले तो नहीं तुम ही जो लाए थे उजाले

यही इक बात हर मौके पे क्यों दुहरा रहे हो


दिखा कर ख़ौफ़ का  मंज़र जो लूटे हैं चमन को

उन्हीं को आज पलकों पर बिठाए जा रहे हो


अगर शामिल नहीं थे तुम गुजस्ता साजिशों में

नही है सच अगर तो किस लिए  घबरा रहे हो ?


सबूतों के लिए तुम बेसबब हो क्यों परेशाँ

खड़ा सच सामने जब है तो क्या झुठला रहे हो


ये मिट्टी का बदन है ख़ाक में मिलना है इक दिन

ये इशरत चार दिन की है तो क्यों इतरा रहे हो


तुम्हारी कैफ़ियत ’आनन’ यही है तो कहेँ क्या  

जहाँ पत्थर दिखा बस सर झुकाते जा रहे हो


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 310[75इ] : हमें कब से वह शिद्दत से


ग़ज़ल 310 [75इ]

1222---1222---1222--122


हमे कब से वो शिद्दत से यही बतला रहा है

लहू के रंग कितने हैं  हमें समझा  रहा है


उसे भाता नहीं सुख चैन मेरी बस्तियों का

हवा दे कर बुझे शोलों को वो भड़का रहा है


फ़रिश्ता बन के उतरेगा न कोई आसमाँ से

बचे हैं जो उन्हें सूली चढ़ाया  जा रहा है


जो बाँटी 'रेवड़ी' उसने, दिखे बस लोग अपने

ज़माने को वह असली रंग अब दिखला रहा है


वो कर के दरजनो वादे हुआ सत्ता पे काबिज़

निभाने की जो पूछी बात तो हकला रहा है ।


इधर पानी भरा बादल तो आता है यक़ीनन

पता चलता नहीं पानी किधर बरसा रहा है


वो मीठी बात करता सामने हँस हँस कर ’आनन’

पस-ए-पर्दा वो टेढ़ी चाल चलता जा रहा है


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 309 [74इ] : अवाम जो भी सुनाए उसे सुना करिए

 ग़ज़ल 309


1212---1122--1212--22


अवाम जो भी सुनाए उसे सुना करिए

हवा का रुख भी ज़रा देखते रहा करिए


हुजूम आ गया सड़कों पे तख़्तियाँ लेकर

कभी तो हर्फ़-ए-इबारत जरा पढ़ा करिए


हर एक बात मेरी फूँक कर उड़ा देना

हुजूर दर्द सलीक़े से तो सुना करिए


ज़ुबान आप की है आप को मुबारक हो

जलील-ओ-ख्वार तो कम से न कम किया करिए


तमाशबीन ही बन कर न देखिए मंज़र

जनाब वक़्त ज़रूरत पे तो उठा करिए


चला किए है अभी तक किसी के पैरों से

उतर के पाँव पे अपने, कभी चला करिए


सही है बात बुरा मानना नहीं ’आनन’

बँधी हो आँख पे पट्टी, किसी का क्या करिए


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 308[73 इ] : इश्क़ क्या है, दो दिलों की बस्तगी है


ग़ज़ल 308

2122---2122---2122


इश्क़ क्या है? दो दिलों की बस्तगी है 

एक ने’मत है , खुदा की बंदगी  है


राह-ए-उलफ़त का सफ़र क्या तय करेगा

सोच में ही जब तेरी आलूदगी है


इश्क़ कब अंजाम तक पहुँचा हमारा

इक अधूरी सी कहानी ज़िंदगी है


लोग हैं खुशबख़्त जिनको प्यार हासिल

चन्द लोगों के लिए यह दिल्लगी है


आप का मैं मुन्तज़िर जब से हुआ हूँ

एक मैं हूँ इक मेरी शाइस्तगी है


दूसरा चेहरा नज़र आता नहीं अब

जब से मेरे दिल से उनकॊ लौ लगी है


आप आनन को भले समझे न समझें

दिल में मेरे आज भी पाकीजगी है ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

बस्तगी = लगाव खिंचाव

ने’मत = ईश्वरी कूपा

आलूदगी = खोट, मिलावट,अपवित्रता

मुन्तज़िर = प्रतीक्षक इन्तज़ार करने वाला

शाइस्तगी = शिष्टता शराफ़त

पाकीजगी =पवित्रता


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 307[72इ] : बात मे उसके रही कब पुख्तगी है

 ग़ज़ल 307

2122--2122--2122

 

बात में उसकी  रही कब पुख्तगी  है

सोच में साजिश भरी है, तीरगी है


एक चेहरे पर कई चेहरे लगाता

पर चुनावों में भुनाता सादगी है


लग रही है कुछ निज़ामत में कमी क्यों

लोग प्यासे हैं लबों पर तिश्नगी है


घर के आँगन में उठीं दीवार इतनी

मर चुकी आँखों की अब वाबस्तगी है


रोशनी देखी नहीं जिसने अभी तक

जुगनुओं की रोशनी अच्छी लगी है


चन्द लोगों के यहाँ जश्न-ए-चिरागाँ

बस्तियों में दूर तक बेचारगी है


भीड़ में क्या ढूँढते रहते हो ’आनन’

अब न रिश्तों में रही वो ताजगी है ।


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 

पुख्तगी = दृढ़ता, स्थायित्व

निज़ामत = शासन व्यवस्था

वाबस्तगी = लगाव खिंचाव

जश्न-ए-चिरागाँ = रोशनी का त्यौहार

तीरगी = अँधेरा



बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 306[71इ] : मंज़िल पे है नज़र मुझे काँटों का डर नहीं

 ग़ज़ल 306 

221---2121--1221---212


मंज़िल पे  है नज़र, मुझे काँटों का डर नहीं

छाले पड़े हैं पाँव में कहता मगर नही


पत्थर के देवता से ही अब कुछ उमीद है

गो, आँसुओं का उस पे भी होता असर नहीं


यह तो मकान और किसी का मकीन तू

दो दिन का है क़याम यहाँ, तेरा घर नहीं


ठोकर लगा के आप ने दिल तोड़ क्यों दिया

 क्या दिल गरीब का अभी है मोतबर नहीं ?

 

गो, हादिसे तमाम तेरे सामने हुए

उस पर दलील यह कि तुझे कुछ ख़बर नहीं 


दो-चार लाइनों में सुनाऊँ तो किस तरह

ये दास्तान ज़िंदगी का मुख़्तसर नहीं


जब इन्तखाब तुमको निगाहों ने कर लिया”

आनन’ को दूसरा कोई आता नज़र नहीं


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 305[70इ] : निज़ाम आया नया है

 ग़ज़ल 305 [ 70इ]


1222---122


निज़ाम आया नया है

बयाँ सच का मना है


उधर आँसू गिरे हैं

इधर पत्थर गला है


अगर तुम चुप रहोगे

तो फिर मालिक ख़ुदा है


अमीर-ए-कारवाँ बन

हमे फिर छल रहा है


मेरी ख़ामोशियों का

किसी को क्या पता है


दिया नन्हा सही, पर

अँधेरों से लड़ा  है


सवालों के मुक़ाबिल

इधर ’आनन’ खड़ा है 


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 304 [69इ] : सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता

 ग़ज़ल 304 [69इ]

1212---1122---1212---22


सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता 

हबीब आप सा कोई अगर मिला होता


निगाह आप ने मुझसे न फ़ेर लॊ होती

हक़ीर आप के कुछ काम आ गया होता


इधर उधर न भटकते तेरी तलाश में हम

तवाफ़ दिल का कभी हम ने कर लिया होता


अना की क़ैद से बाहर कभी नहीं निकला

अगर वो शख़्स निकलता तो कुछ भला होता


सज़ा गुनाह की मेरे न कुछ मिली होती

बयान आप ने ख़ारिज़ न कर दिया होता


जो दिल में आप की तसवीर हम नहीं रखते

ख़ुमार प्यार का अबतक उतर गया होता


हर एक दर पे झुकाता नहीं है सर ’आनन’

दयार आप का होता तो सर झुका होता ।


-आनन्द.पाठक-


तवाफ़ = परिक्र्मा करना




बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 303 [68इ] :वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता

 ग़ज़ल 303 [68इ]

1212---1122---1212---22

वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता

हसीन ख्वाब में गर वो न मुब्तिला होता


चिराग़ दूर से जलता हुआ नज़र आता-

जो उसकी आँख पे परदा नहीं पड़ा होता


तुम्हारे हाथ में तस्बीह और ख़ंज़र भी

समझ में काश! यह पहले ही आ गया होता


क़लम, ज़ुबान नहीं आप की बिकी होती

ज़मीर आप का ज़िंदा अगर रहा होता ।


किसी के पाँव से चलता रहा है वो अकसर

मज़ा तो तब कि वह ख़ुद पाँव से चला होता


तमाम दर्द ज़माने का तुम समेटे हो

कभी ज़माने से अपना भी ग़म कहा होता


सितम शिआर भी सौ बार सोचता ’आनन’

सितम के वक़्त ही पहले जो उठ खड़ा होता


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 302 [ 67इ] : [वैलन्टाइन 2023] पर एक हास्य गज़ल

 "वैलेन्टाइन डे पर-[2023]


हास्य ग़ज़ल 302 [ 67इ]


1222---1222---1222---1222


इधर दिखती नहीं अब तुम, किधर रहती हो तुम जानम !

चलो मिल कर मनाते हैं ’ वेलनटाइन’ दिवस हमदम !


दिया जो हार पिछली बार पीतल का बना निकला

दिला दो हार  हीरे का नहीं दस लाख से हो कम


खड़े हैं प्यार के दुश्मन लगा लेना ज़रा ’हेलमेट’

मरम्मत कर न दें सर का "पुलिसवाले" मेरे रुस्तम ! 


ज़माने का नहीं है डर करेगा क्या पुलिसवाला

अगर तुम पास मेरे हो नहीं दुनिया का है फिर ग़म


बता देती हूँ मैं पहले , नहीं जाना तुम्हारे संग

कि बस ’फ़ुचका’ खिला कर तुम मना लेते हो ये मौसम


इधर क्या सोच कर आया कि है यह खेल बच्चों का !

अरे ! चल हट निकल टकले, नहीं ’पाकिट’ में तेरे दम


घुमाऊँगा , खिलाऊँगा,  सलीमा भी दिखाऊँगा, 

अब ’आनन’ का ये वादा है, चली आ ,ओ मेरी हमदम !


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 301 [ 66इ] तुम्हारे हुस्न का जल्वा

 ग़ज़ल 301[66इ]


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे हुस्न का जल्वा किसी को जब दिखा होगा

ख़ुमारी आजतक होगी नहीं उतरा नशा  होगा


ख़यालों में किसी के तुम कभी जो आ गए होगे

भला वह शख़्स अपने आप में फिर कब रहा होगा


तुम्हे हूँ चाहता दिल से. फ़ना होने की हद तक मैं

न दुनिया को ख़बर होगी, तुम्हे भी क्या पता होगा


यकीं करना तुम्हारा राज़ मेरे साथ जाएगा 

जमाने से दबा है यह जमाने तक दबा होगा


कभी तुम लौट कर आना समझ लेना करिश्मा क्या

तुम्हारा नाम रट रट कर , कोई ज़िंदा रहा होगा


अगर ढूढोंगे शिद्दत से तो मिल ही जाएगा वो भी

तो मकसद ज़िंदगी का और अपना ख़ुशनुमा होगा


निगाह-ए-शौक़ से ढूँढा इसी उम्मीद से ’आनन’

कभी दैर-ओ-हरम में एक दिन तो सामना होगा


-आनन्द.पाठक--


शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 300 [65इ] : आँधियों से तुम अगर यूँ ही डरोगे

 ग़ज़ल 300 [65इ]

2122--2122--2122


आँधियों से तुम अगर यूँ ही डरोगे

किस तरह लेकर दिया आगे बढ़ोगे


मंज़िले तो ख़ुद नहीं आतीं है चल कर

नीद से तुम कब उठोगे कब चलोगे ?


वक़्त का होता अलग ही फ़ैसला है

कर्म जैसा तुम करोगे, तुम भरोगे


 कब तलक उड़ते रहोगे आसमाँ में

तुम ज़मीं की बात आकर कब करोगे?


झूठ ही जब बोलना दिन रात तुमको

सच की बातें सुन के भी तुम क्या करोगे


कब तलक पानी पे खींचोगे लकीरे

और खुद विरदावली गाते रहोगे


हक़ बयानी पर यहाँ पहरे लगे हैं

अब नहीं ’आनन’ तो फिर तुम कब उठोगे ?


-आनन्द.पाठक-



बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 299 [64इ] : ये अपना दिल है दिवाना (होली)

 ग़ज़ल 299 [64इ]


1222--1222--1222--1222

एक ग़ज़ल : होली पर

ये दिल अपना है दीवाना, हुआ दिलदार होली मे

चढ़ी है भाँग की मस्ती, लुटाए प्यार होली में


अभी तक आप से होती रही हैं 'फोन' पर बातें

यही चाहत हमारी है कि हो दीदार होली में


तुम्हे भी तो पता होगा, जवाँ दिल की है हसरत क्या.

खुला रखना सनम इस बार घर का द्वार होली में ।


उधर हैं राधिका रूठी, न खेलेंगी वो कान्हा से

इधर कान्हा मनाते हैं,  करें मनुहार होली में


जब आता मौसिम-ए-गुल तो कली लेती है अँगड़ाई.

बिना छेड़े ही बज उठते हॄदय के तार होली में ।


न रंगों का कोई मजहब, तो रंगों पर सियासत क्यों ,

सदा रंग-ए-मुहब्बत ही लगाना यार होली में।


न रखने हाथ देती हो झटक देती हो क्यो हँसकर ,

जवानों से जवाँ लगते हैं बूढ़े यार होली में ।


 नहीं छोटा-बड़ा कोई हुआ करता कभी ’आनन’

यही पैगाम देना है समन्दर पार,  होली में ।


-आनन्द पाठक-

सोमवार, 30 जनवरी 2023

चन्द माहिए : क़िस्त 95/05

 क़िस्त 95/05 

1

सपनों के शीश महल

टूट ही जाना है

सच, आज नहीं तो कल


2

चलने की तैय्यारी

आ मेरी माहिया

कुछ और निभा यारी


3

मेरी भी गली में आ

ओ मेरी माहिया !

 बस एक झलक दिखला


4

कांटों से भरी राहें

तेरे दर की हों 

फिर भी तुमको चाहें


5

आसान नहीं होतीं

प्रेम नगर वाली

गलियाँ सँकरी होतीं


चन्द माहिए : क़िस्त 94/04

 क़िस्त 94/04


1

कुछ यादें रह जाती

सूनी आँखों में

आँसू बन कर आतीं


2

कोई मिल जाता है

राह-ए-मुहब्बत में 

फिर क्यों खो जाता है?


3

कलियाँ सहमी सहमी

माली की नज़रें

दिखतीं बहकी बहकी


4

कुछ अपनी सीमाएँ

मर्यादा की हैं

हम भूल नहीं जाएँ


5

मैं इक प्यासा राही

मिलना है मुझको

उस पार मेरा माही 


चन्द माहिए : क़िस्त 93/03

 


क़िस्त 93/ 03


1

दुनिया की छोड़ो तुम

क्या करना इसका

दिल से दिल जोड़ो तुम


2

ख़्वाबों में मिला करना

लौट के आऊँगा

इक दीप जला रखना


3

अब क्या मजबूरी है

और सुना माहिया

तेरी बात अधूरी है


4

जानी पहचानी सी

लगती है तेरी

कुछ मेरी कहानी सी


5

बाग़ों के बहारों का

रंग चढ़ा मुझ पर

कलियों के नज़ारों का


चन्द माहिए : क़िस्त 92/02

 क़िस्त 92/ 02


1

अब और न कर बातें

झेल चुकी हूँ मैं

हर बार तेरी घातें ।


2

टुकड़ा टुकड़ा जीवन

जोड़ के जीते हैं

जीने का है बन्धन


3

गो, सुनने में तीखे

पैसों के आगे

सब रिश्ते हैं फीके


4

आदाब मुहब्बत के

कुछ तो निभाते तुम

अन्दाज़ नज़ाक़त के


5

कैसी थी मुलाकातें

कुछ तो बता, गुइयाँ !

क्या क्या थी हुई बातें


चन्द माहिए: क़िस्त 91/01

 क़िस्त 91 /01

1

सावन के महीने में

आग लगी कैसी

गोरी के सीने में 


2

भूले से आ जाते

सावन में साजन

झूले पे झुला जाते


3

सावन की फुहारों से

जलता है तन-मन

जैसे अंगारों से


4

रुक ! सुन तो ज़रा बादल !

कैसे है प्रियतम?

यह पूछ रही पायल 


5

सावन की हरियाली

मस्त हुआ मौसम

कलियाँ भी मतवाली


रविवार, 29 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ 125/12

 अनुभूतियाँ 125/क़िस्त 12


497

जीवन है सौग़ात किसी की

जब तक जीना, हँस कर जीना

बात बात पर रोना क्या है

हर पल आँसू क्यों है पीना


498

देख सुबह की नव किरणों को

आशाएँ लेकर आती हैं

शीतल मन्द सुगन्ध हवाएँ

नई चेतना भर जाती हैं


499

कण कण में है झलक उसी की

अगर देखना चाहो जो तुम

वरना सब बेकार की बातें

नहीं समझना चाहो जो तुम


500

रोज़ शाम ढलते ही छत पर

एक दिया रख आ जाती हूं~

लौटोगे तुम इसी राह से

सोच सोच कर हुलसाती हूं~


अनुभूतियाँ 124/11

 क़िस्त 124/क़िस्त 11

 

 493

आग लगाने वाली बातें

बार बार दुहराती क्यों हो

ला हासिल था तब भी,अब भी 

माजी में फिर जाती क्यों  हो 

 

494

मिलना जुड़ना और बिछ्ड़ना

यह जीवन का क्रम है सुमुखी !

सदा बहारों का मौसम हो-

एक कल्पना है भ्रम है सुमुखी !

 

495

मंज़िल मिलना या ना मिलना

यह तुम पर निर्भर करता है

राह कहाँ इसमे दोषी है-

जो जैसा करता, भरता है

 

496

बार बार यह कहते रहना

नहीं ज़रूरत तुम्हे किसी की

जिसको तुम ने ठुकराया हो

कहीं ज़रूरत पड़े उसी की


अनुभूतियाँ 123/10

 

क़िस्त 123/क़िस्त 10

 

489

बातों में जब गहराई हो

सब सुनते हैं, सब गुनते हैं

हवा हवाई बातों से भी

कुछ हैं जो सपने बुनते हैं

 

490

मीठी मीठी बातें उनकी

ज़हर भरें हैं दिल के भीतर

नए ज़माने की रस्में हैं

क्यों लेती हो अपने दिल पर

 

491

नफ़रत के बादल है अन्दर

कुछ दिन में जब छँट जाएँगे

प्रेम दया करुणा के सागर

खुद बह कर बाहर आएँगे

 

492

राह अभी माना दुष्कर है

उसके आगे राह सरल है

लक्ष्य साधना क्या मुश्किल है

इच्छा शक्ति अगर अटल है


 

अनुभूतियां 122/09

 

क़िस्त 122/क़िस्त 9

 

485

जनता को क्या अनपढ़ समझा

लम्बी लम्बी फेंक रहे हो

जलता है घर और किसी का

अपनी रोटी सेंक रहे हो

 

486

सुख दुख जीवन के दो पहलू

बारी बारी आना जाना

आजीवन कब दोनों रहते

क्या हँसना क्या नीर बहाना

 

487

सबके अपने अपने मसले

सब की अपनी है मजबूरी

साथ निभानेवाला कोई-

हमराही है एक ज़रूरी

 

488

मीठी मीठी चिकनी चुपड़ी

समझ रहा हूँ बातें सारी

देख रहा हूँ पट के पीछे

शहद घुली है घात कटारी


 

अनुभूतियाँ 121/08

 

क़िस्त 121/क़िस्त 8

 

481

बातों में जब गहराई हो

सब सुनते हैं सब गुनते हैं

हवा-हवाई बातॊ से भी-

कुछ हैं जो सपने बुनते हैं

 

482

साथ किसी का ठुकरा देना

अभी तुम्हारी आदत होगी

जीवन के एकाकी पथ पर

मेरी तुम्हें ज़रूरत होगी

 

483

साथ तुम्हारे होने भर से

हर मौसम बासंती मौसम

कट जाता यह सफ़र हमारा

साथ अगर तुम होते हमदम

 

484

किया  भरोसा मैने तुम पर

और तुम्हारी राहबरी का

कमरे में जयकार किसी का

बाहर नारा और किसी का

 

अनुभूतियाँ 120/07

 

क़िस्त 120/क़िस्त 7

 

477

लौट चले अब ऎ मेरे दिल !

यादों की अपनी बस्ती में

जहाँ उसे छेड़ा करते थे

शाम-सुबह अपनी मस्ती में

 

478

बीत गए वो दिन खुशियों के

शेष रह गई याद पुरानी

जीवन के पन्नों पर बिखरी

एक अधूरी लिखी कहानी

 

479

पर्दे के पीछे से छुप कर

कौन नचाता है हम सबको

कौन है वो जो खुशियाँ देता

कौन है जो देता ग़म सबको

 

480

सब दरवाजे बंद हो गए

होता नही कभी जीवन में

एक रोशनी अंधियारों में

सदा छुपी रहती है मन में

अनुभूतियाँ 119/06

 

क़िस्त 119/क़िस्त 6

 

473

देख रही हूँ दूर खड़े तुम

प्यास हमारी, तुम हँसते हो

बात नई तो नहीं है ,प्रियतम !

श्वास-श्वास  में  तुम बसते हो

 

474

आज नहीं तो कल लौटेंगी

गईं बहारें  फिर उपवन में

लौटोगी तुम फूल खिलेंगे

मेरे इस वीरान चमन में

 

 

475

निश-दिन याद करूंगा तुमको

मेरा हक़ है इन यादों पर

अनजाने जो किया था तुमने

मुझे भरोसा उन वादों पर

 

476

भाव समर्प्ण नहीं हॄदय में

व्यर्थ तुम्हारी सतत साधना

पूजन-अर्चन से क्या होगा

मन में हो जब कुटिल भावना

अनुभूतियाँ 118/05

 

क़िस्त 118/क़िस्त 5

 

 

469

आ अब लौट चले मेरे दिल !

यादों की भूली बस्ती में

जहाँ उन्हे छेड़ा करते थे

अपनी धुन में , मस्ती मे

 

470

 

निश-दिन याद करूँगा तुम को

हक़ है मेरा उन यादों पर

जाने अनजाने जो किया था

मुझे भरोसा उन वादों पर

 

471

छोड़ गई तुम, ख़ुशी तुहारी

लेकिन याद तुम्हारी बाक़ी

तुम्हे मुबारक नई ज़िंदगी

मुझको रहने दो एकाकी

 

472

शाम ढलेगी , गोधूली में

सब चरवाहें घर जाएंगे

हमको भी तो जाना होगा

कितने दिन तक रह पाएँगे


 

अनुभूतियाँ 117/04

 

क़िस्त 117/क़िस्त 4

 

465

अगर तुम्हे लगता हो ऐसा

साथ छोड़ना ही अच्छा है

जिसमे खुशी तुम्हारी होगी

मुझे तुम्हारा दिल रखना है

 

466

जा ही रहे हो लेते जाना

टूटा दिल यह, सपने सारे

क्या करना अब उन वादों का

तड़पाएँगे साँझ-सकारे ।

 

467

जहाँ रहो तुम ख़ुश रहना तुम

खुल कर जीना हाँसते गाते

अगर कभी

कुछ वक़्त मिले तो

मिलते रहना आते-जाते

 

468

छोड़ गई तुम ख़ुशी तुम्हारी

लेकिन याद तुम्हारी बाक़ी
तुम्हें मुबारक नई ज़िंदगी

मुझको रहने दो एकाकी

अनुभूतियाँ 116/03

 

क़िस्त 116/क़िस्त 3

461

झगड़ा करना रूठ भी जाना

और मुझी पर दोष लगाना

कितना सब आसान तुम्हे है

बेमतलब का रार बढ़ाना

 

462

छोड़ गया जब कोई अचानक

दिल में सूनापन रहता है

एक ख़लिश सी रहती दिल में

दिल चुप हो कर सब सहता है

463

तू तू मैं मैं  से क्या होना

जो होना था हो ही गया अब

उन बातों का क्या करना है

ख़्वाब जगा था ,सो भी गया अब

 

464

हम दोनों के दर्द एक से

लेकिन दबा रहें हम दोनों

कहने को तो बात बहुत है

लेकिन छुपा रहे हम दोनों