शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

अनुभूतियाँ 131/18 : राम लला जी के प्राण प्रतिष्ठा पर

 अनुभूतियाँ 131/18 :


:1:

राम लला जी के मंदिर का

संघर्षों की एक कहानी

नई फ़सल अब क्या समझेगी

प्राण दिए कितने बलिदानी 


;2:

पावन क्षण में पावन मन से

पूजन अर्चन शत शत वंदन

स्वागत में हम  खड़े राम के

लेकर अक्षत रोली चंदन 

:3:

जन मन में अब राम बसे हैं

हर्षित हैं सब अवध निवासी

सब पर कृपा राम की होती

जन मानस,साधु सन्यासी 

:4:

रामराज की बातें तब तक

जब तक राम हृदय में बसते

वरना तो कुरसी की खातिर

सबके अपने अपने  रस्ते


:5:
मंदिर का हर पत्थर पावन
प्रांगण का हर रज कण चंदन
हाथ जोड़ कर शीश झुका कर
राम लला का है अभिनंदन


:6:

हो जाए जब सोच तुम्हारी

राग द्वेष मद मोह से मैली

राम कथा में सब पाओगे

जीवन के जीने की शैली ।


:7: 

एक बार प्रभु ऐसा कर दो

अन्तर्मन में ज्योति जगा दो

काम क्रोध मद मोह  तमिस्रा

मन की माया दूर भगा दो ।

-आनन्द.पाठक-



चन्द माहिए : क़िस्त 99/09 : 22 जनवरी 2024 प्राण प्रतिष्ठा पर

 चन्द माहिए 98/09] : प्राण प्रतिष्ठा पर


:1:

जन जन के दुलारे हैं

आज अवध में फिर 

प्रभु राम पधारे  हैं


:2:

झूमेंगे नाचेंगे

प्राण प्रतिष्ठा में

श्री राम विराजेंगे


:3:

सपना साकार हुआ

राम लला जी का

मंदिर तैयार हुआ


:4:

प्रभु राम की सब माया

उनकी किरपा से

अब यह शुभ दिन आया


:5:

गिन गिन कर काटे दिन

स्वर्ग से उतरेंगे

भगवान सभी इस दिन


:6:

मंदिर की इच्छा में

पाँच सदी तक थे

दो नैन प्रतीक्षा में ।


:7:

प्रभु प्रेम में हो विह्वल

शर्त मगर यह भी

मन भाव भी हो निश्छल


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

ग़ज़ल 351[26] : न मिलते आप से जो हम ---

 ग़ज़ल 351[26]


1222---1222----1222---1222


न मिलते आप से जो हम तो दिल बहका नही होता

अगर हम होश में आते, तो ये अच्छा नहीं होता


तुम्हारे हुस्न के दीदार की होती तलब किसको,

तजल्ली ख़ास पर इक राज़ का परदा नहीं होता ।


असर मे आ ही जाते हम, जो वाइज के दलाइल थे

अगर इस दरमियाँ इक मैकदा आया नहीं होता ।


कभी जब फ़ैसला करना, समझ कर, सोच कर करना

कि जज़्बे से किया हो फ़ैसला , अच्छा नहीं होता ।


अगर दिल साफ़ होता, सोच होता आरिफ़ाना तो 

तुम्हे फिर ढूँढने में मन मेरा भटका नहीं होता ।


नवाज़िश आप की हो तो समन्दर क्या. कि तूफ़ाँ क्या

करम हो आप का तो ख़ौफ़ का साया नहीं होता ।


दिखावे  में ही तूने काट दी यह ज़िंदगी ’आनन’

तू अपने आप की जानिब से क्यों सच्चा नहीं होता ।



-आनन्द.पाठक-



 


मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

ग़ज़ल 350[25} चुनावों का ये मौसम

ग़ज़ल 350

1222---1222---1222---1222


चुनावों काये मौसम,है  तुझे सपने दिखाएगा

घिसे नारे पिटे वादे, वही फिर से सुनाएगा ।


थमा कर झुनझुना हमको, हमें बहला रहा कब से

सभी घर में है ख़ुशहाली, वो टी0वी0 पर दिखाएगा


सजा कर आँकड़े संकल्प पत्रों में हमे देगा

वो अपनी पीठ अपने आप ख़ुद ही थपथाएगा ।


किनारे पर खड़े होकर नसीहत करना आसाँ है

उतर कर आ समन्दर में , नसीहत भूल जाएगा


इधर टूटे हुए चप्पू , उधर दर्या है तूफानी

हुई अब  नाव भी जर्जर, तू कैसे पार पाएगा ?


सभी अपने घरों में बन्द हो अपना ही सोचेंगे

लगेगी आग बस्ती में ,बुझाने कौन आएगा ।


किसी की अन्धभक्ति में चलेगा बन्द कर आँखें

गिरेगा तू अगर ;आनन; ग़लत किसको बताएगा 


-आनन्द.पाठक-



रविवार, 24 दिसंबर 2023

ग़ज़ल 349[24] : चिराग़ों की हवाओं से---

ग़ज़ल 349 [24]


1222---1222---122


चिराग़ों की हवाओं से ठनी है

मगर कब रोशनी इनसे डरी है


अगर दिखती नहीं तुमको बहारें

तुम्हारी ही नज़र में कुछ कमी है


किसी के प्यार में ख़ुद को मिटा दे

भले ही चार दिन की ज़िंदगी है


जगाने को यहाँ रिश्ते हज़ारों

निभाने को मगर किसको पड़ी है


जगाएगा तो जग जाएगा इक दिन

तेरे अन्दर जो सोया आदमी है


नहीं कुछ और मुझको देखना है

मेरे दिल में तेरी सूरत बसी है


सभी में बस उसी का अक्स देखा

अजब ’आनन’ तेरी दीवानगी है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 348 { 23] : समन्दर की व्यथा क्या है

 ग़ज़ल 348[23]


1222  1222


समन्दर की व्यथा क्या है

ये नदिया को पता क्या है


उड़ानों में परिंदो से

न पूछो मर्तबा क्या है


जो पगड़ी बेंच दी तुमने

तो बाक़ी अब बचा क्या है


किसी के वास्ते हमदम !

समय रुकता भला क्या है ?


गले सबको लगा .प्यारे!

कि दुनिया में रखा क्या है ।


मुहब्बत में फ़ना होना

तो इसमें कुछ नया क्या है ।


हिमायत सच की करते हो

अरे! तुमको हुआ क्या है


कभी मिलना जो ’आनन’ से

समझ लोगे वफ़ा क्या है ।



-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 23 दिसंबर 2023

ग़ज़ल 347 [22]: हमारी बात क्या करना---

 


ग़ज़ल 347 [22]


1222---1222---1222---1222


हमारी बात क्या करना, हमारी छोड़िए साहिब !

मिला जो प्यार से हमसे. उसी के हो लिए साहिब !


पड़ी पाँवों में ज़जीरें, रवायत की जहालत की,

हमें बढने से जो रोकें उन्हें तो तोड़िए साहिब


हमेशा आप बातिल की तरफ़दारी में क्यों रहते

कभी तो सच की जानिब से ज़रा कुछ बोलिए साहिब


मुक़ाबिल आइना होते, पसीने क्यों छलक आते

हक़ीक़त तो हक़ीक़त है , न मुँह यूँ मोड़िए साहिब


शजर ज़िंदा रहेगा तो परिंदे चहचहाएँगे

हवाओं में ,फ़ज़ाओं में , न नफ़रत घोलिए साहिब


बसे हैं साँप बन कर जो, छुपे हैं आस्तीनों में

मुलव्विस हैं जो साजिश में उन्हें मत छोड़िए साहिब


हमें मालूम है क्या आप की मजबूरियाँ ’आनन’

सितम पर आप क्यॊं चुप हैं ,ज़ुबाँ तो खोलिए साहिब !


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 19 दिसंबर 2023

अनुभूतियाँ 130/17

 130/17


:1:

इतना भी आसान नहीं है

इल्म-ए-सदाक़त, इल्म-ए-दियानत

वरना तो ता उम्र ज़िंदगी

भेजा करती रह्ती लानत


:2:

दिल से जब मिट जाए जिस दिन

इस्याँ और गुनह तारीक़ी

जाग उठेंगे तब उस दिन से

इश्क़ रुहानी , इश्क़-ए- हक़ीक़ी


:3:

सतरंगी अनुभूति मेरी

श्वेत-श्याम सा अनुभव भी है

भोगी हुई व्यथाएँ शामिल

कुछ खुशियों के कलरव भी है


:4:

एक बार प्रभु ! ऐसा कर दो

अन्तर्मन में ज्योति जगा दो

काम क्रोध मद मोह तमिस्रा

मन की माया दूर भगा दो ।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 129/16

 129/16


:1:

अगम व्यथाओं का होता है

एक समन्दर सब के अन्दर

कश्ती पार लगेगी कैसे

जुझा करते हैं जीवन भर


:2:

ग़लत बयानी करते रहना

ख़ुद ही उलटे शोर मचाना

नया चलन हो गया आजकल

सच की बातों को झुठलाना


:3:

पंडित जी ने बतलाया था

शर्त तुम्हारी पता तुम्हारा

पाप-पुण्य की ही गणना में

बीत गया यह जीवन सारा


:4:

सबकी अपनी व्यथा-कथा है

अपने अपने विरह मिलन की

सब के आँसू एक रंग के

मौन कथाएँ पीर नयन की


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 128/15

 128/15


:1:

वक़्त सुनाएगा जब इक दिन

मेरी अधूरी प्रेम कहानी

दुनिया समझेगी तब उस दिन

क्या होता है इश्क़ रुहानी


:2:

तनहाई में तेरी यादों 

का एक सहारा ही होता

पास बचा अब क्या मेरे जो

दिल क्या खोता या दिल रोता


:3:

जब जब उमड़ी होगी बदली

विरहन की सूनी आंखों  में

तब तब भींगी होगी सेजरिया

साजन बिन सूनी रातों में ।


:4:

बेमौसम बरसात हुई है

मीत हमारा रोया होगा

टूटा होगा कोई भरोसा

कोई सपना खोया होगा

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 127/14

 अनुभूतियां 127/14


:1:

स्मॄतियों के पंख लगा कर

उड़ते बादल नील गगन में

अनुभूति की बूँदे छन छन

बरसें मन के उजड़े वन में


:2:

बात बात पर ज़िद करती हो

व्यर्थ तुम्हें अब समझाना  है

लोग नहीं वैसे कि जैसे-

तुमने समझा या जाना है


:3:

रंज़ गिला शिकवा सब मुझसे

और तुम्हारी तंज बेरुखी

मेरी आँखों में सपनो-सा

बसी रही तुम लेकिन फिर भी


:4:

कोई तो  है जो छुप छुप कर

संकेतों से मुझे बुलाता

छुवन हवा की जैसे लगती

लेकिन कोई नज़र न आता ।

-आनन्द.पाठक


शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

ग़ज़ल 346[21]: काश ! ख़ुद से गर मिला होता--

 



ग़ज़ल 346 [21]


2122--1212--22


काश! खुद से अगर मिला होता

भीड़ में यूँ न लापता होता  ।


रंग चेहरे का क्यों उडा करते

जब हक़ीक़त से सामना होता


तुम न होते तो ज़िंदगी फिर क्या

कौन साँसों में फिर बसा होता ?


वक़्त अपने हिसाब से चलता 

चाहने से हमारे क्या होता ।


बात सुननी ही जब नहीं मेरी

आप से और क्या गिला होता ।


पा ही जाता मैं मंज़िल-ए-मक़्सूद

एक ही राह जो चला  होता ।


वह भी आता तुझे नज़र ’आनन’

"ढाइ-आखर"- जो तू पढ़ा होता ।


-आनन्द.पाठक-

रविवार, 3 दिसंबर 2023

अनुभूतियाँ 126/13

 अनुभूतियाँ 126/13

      :1:

क़समें खाना, वादे करना
वचन निभाना आता है क्या ?
रात घनेरी जब जब होगी
दीप जलाना आता है क्या ?

   :2:
रंज किसी का, गुस्सा मुझ पर
ये तो कोई बात न होती ।
अगर नहीं तुम अपने होते
किसके काँधे सर रख रोती ।

  :3:
बीत गई जो बातें छोड़ॊ
गुस्सा थूको, अब तो हँस दो
मैं  हारी अब गले लगा लो
भुजपाशों का बंधन कस दो 

:4:
हाथ बढ़ा फिर हाथ खीचना
नई तुम्हारी आदत देखी
फिर भी मैने किया भरोसा
मेरी नहीं शराफत देखी

-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 345[20] : देखने में हों लगते भले--

 



ग़ज़ल 345[20]


212---212---212


देखने में लगते हों लगते भले

सोज़-ए-दिल से सभी हैं जले


एक धुन हो , लगन हो जिसे

 पाँव के क्या उसे आबले


रोशनी उसको भाती नहीं

जो अंधेरों में अब तक पले


देख कर आइना सामने

आप मुड़ कर किधर को चले


रंज किस बात का है तुझे

यार आ कर तो लग जा गले 


आदमी जो नहीं कर सका

वक़्त ने कर दिए फ़ैसले


जिस मकाँ में रहा उम्र भर

छोड़ कर आकबत को चले


तुमने देखा ही ’आनन’ कहाँ

इन चिराग़ों के पुरहौसले ।


-आनन्द.पाठक-


आख़िरत = परलोक

शनिवार, 18 नवंबर 2023

मुक्तक

 मुक्तक 


लोग बैसाखियों के सहारे चले

जो चले भी किनारे किनारे चले

सरपरस्ती न हासिल हुई थी जिन्हे

वो समन्दर में कश्ती उतारे चले 



मंगलवार, 14 नवंबर 2023

दीपावली पर मुक्तक

सभी मित्रों को दिवाली की हार्दिक शुभकामना इन पंक्तियों के साथ :   

आप सबको दिवाली की शुभकामना
आप जैसे सखा हों तो क्या मांगना
आप का ’स्नेह’ आशीष’ मिलता रहे
रिद्धि सिद्धि करे पूर्ण मनोकामना

सबको दीपावली की सुखद रात हो
सुख की यश की भी सबको सौगात हो
आसमां से सितारे उतर आयेंगे
प्यार की जो अगर दिल में बरसात हो

सादर
-आनन्द.पाठक-
8800927181

बुधवार, 8 नवंबर 2023

ग़ज़ल 344 [19] : मैं दूर जा के भी उसको---

 

ग़ज़ल 344 [19]


1212---1122---1212---112


मैं दूर जा के भी उसको कभी भुला न सका

करीब था तो कभी हाल-ए-दिल सुना न सका


तमाम उम्र इसी  इन्तिज़ार में गुज़री,

गया था कह के, मगर लौट कर वो आ न सका ।


हर एक दौर में थीं साज़िशें मिटाने की

करम ख़ुदा का था कोई हमें मिटा न सका ।


ख़याल-ए-ख़ाम थे अकसर जगे रहे मुझमें

मैं चाह कर भी नज़र आप से मिला न सका ।


बना के ख़ाक से फिर ख़ाक में मिलाए क्यों

ये खेल आप का मुझको समझ में आ न सका


जिधर है दैर-ओ-हरम, है उधर ही मयख़ाना

किधर की राह सही है कोई बता न सका ।


तेरी तलाश में ’आनन’ कहाँ कहाँ न गया 

मुक़ाम क्या था? कहाँ था ? कभी मैं पा न सका ।


-आनन्द.पाठक--


 

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

गीत 80: ज्योति का पर्व है आज दीपावली

 गीत 80: दीपावली पर एक गीत


ज्योति का पर्व है आज दीपावली

हर्ष-उल्लास से मिल मनाएँ सभी


’स्वागतम’  में खड़ी अल्पनाएँ मेरी

आप आएँ सभी मेरी मनुहार पर

एक दीपक की बस रोशनी है बहुत

लौट जाए अँधेरा स्वयं  हार कर

जिस गली से अँधेरा गया ही नहीं

उस गली में दिया मिल जलाएँ सभी


राह भटके न कोई बटोही कहीं

एक दीपक जला कर रखो राह में

ज़िंदगी के सफ़र में सभी हैं यहाँ 

                एक मंज़िल हो हासिल इसी चाह में

खिल उठे रोशनी घर के आँगन में जब

फिर मुँडेरों पे दीए सजाएँ  सभी ।


आग नफ़रत की नफ़रत से बुझती नहीं,

आज बारूद की ढेर पर हम खड़े ।

युद्ध कोई समस्या का हल तो नहीं,

व्यर्थ ही सब हैं अपने ’अहम’ पर अड़े ।

आदमी में बची आदमियत रहे ,

प्रेम की ज्योति दिल में जगाएँ सभी।


स्वर्ग से कम नहीं है हमारा वतन,

आँख कोई दिखा दे अभी दम नहीं ।

साथ देते हैं हम आख़िरी साँस तक,

बीच में छोड़ दें हम वो हमदम नहीं ।

देश अपना हमेशा चमकता रहे ,

दीपमाला से इसको सजाएँ सभी ।


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

ग़ज़ल 343 [18]: आकर जो पूछ लेते--

 



ग़ज़ल 343[18]


221---2122  // 221---2122


आकर जो पूछ लेते, क्या हाल है हमारा ?

ताउम्र दिल ये करता ,सद शुक्रिया तुम्हारा ।


किस शोख़ से अदा से, नाज़ुक़ सी उँगलियों से

तुमने छुआ था मुझको, दहका बदन था सारा ।


होती अगर न तेरी रहम-ओ-करम, इनायत

तूफ़ाँ में कश्तियों को मिलता कहाँ किनारा !


दैर-ओ-हरम की राहें , मैं बीच में खड़ा हूँ

साक़ी ने मैकदे से हँस कर मुझे पुकारा ।


दिलकश भरा नज़ारा, मंज़र भी ख़ुशनुमा हो

जिसमें न अक्स तेरा ,किस काम का नज़ारा ।


जब साँस डूबती थी, देखी झलक तुम्हारी

गोया की डूबते को तिनके का हो सहारा ।


मैं ख़ुद में गुम हुआ हूँ , ख़ुद को ही ढूंढता हूँ

मुद्दत हुई अब आनन’, ख़ुद को नहीं निहारा !


-आनन्द.पाठक---


सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

क़लम का सफ़र -- [ग़ज़ल संग्रह] --एक प्रतिक्रिया=---------डी0के0 निवातिया

 



 -क़लम का सफ़र - [ ग़ज़ल संग्रह ] --- एक प्रतिक्रिया 


                                            --डी0 के0 निवातिया -


आo आनंद पाठक जी लेखन कला के ऐसे हस्ताक्षर है जिन्होंने विभिन्न शैलियों में अपनी कलम का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया है |  इसी श्रंखला में उनकी अब तक ग्यारह काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके है इनमे कई पुस्तकों को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसमें नवीनतम पुस्तक शीर्षक -क़लम का सफ़र- जिसे हाल में पढ़ रहा हूँ!


मैंने  व्यक्तिगत रूप में  जीवन के अनुभवों में पाया है की प्रत्येक व्यक्ति के अंदर दो व्यक्ति होते है एक वो जो सामाजिक और व्यवहारिक रूप में अपने घर-परिवार, समाज व देश के लिए  अपना जीवन यापन करता है दूसरा वह जो  अपने स्वंय के जीवन के लिए अपनी आत्मीयता से कुछ पल व्यतित करता है उसका प्रारुप कुछ भी हो सकता है किसी भी कला का कोई माध्यम, खेल-कूद या अन्य कोई अपनी रुचि, इसी क्रम में आदरणीय पाठक जी ने भारत सरकार के प्रतिष्ठित संस्थान भारत संचार निगम लिमिटेड में मुख्य अभियंता के रूप में अपनी सेवा देकर अपनी ज़िम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया इसके इतर इनकी विशेष रुचि ने लेखन में इन्हें वो मुकाम दिया जिसका पर्याय जीवन मे कुछ और हो ही नहीं सकता !


प्रत्येक लेखक/कवि/शायर/रचनाकार अपने अनूठे अंदाज़ के लिए जाना जाता है पाठक जी की ऊर्दू ज़बान पर अच्छी-खासी पकड़ और हिंदी/अंग्रेज़ी के साथ साथ अरबी फारसी भाषा  का शब्दकोश अत्यंत वृहद है! काव्य विधाओ में कविता, गीत, माहिया, नज़्म, आदि विशेष है लेकिन ग़ज़ल विधा पर गहन अध्ययन इनके लेखन को अति विशिष्ट श्रेणी प्रदान करता है साथ ही व्यंग लेखन में हास्य के संग तीक्ष्ण कटाक्ष का कोई तोड़ नहीं है!


नवीनतम ग़ज़ल संग्रह -कलम का सफ़र- नाम सुनते ही उनकी अनवरत लेखन यात्रा का परिदृश्य आँखों के सामने उतरने लगता है!  अपनी  लेखन यात्रा के  बारे में जिक्र करते हुए  "आनन" जी (आनंद जी का कलम नाम) ने इस पुस्तक में बताया की इन्हें  य़ह लेखन कला इनके पिता जी से विरासत में मिली जो स्वयं एक कवि। थे इसके बारे मे अधिक जानकारी पुस्तक पढ़कर प्राप्त की जा सकती है, यहां उतना उल्लेख कर पाना पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में यथोचित नहीं लगता! हाँ इतना अवश्य कह सकता हूं की पुस्तक इतनी रोचक है की यदि आप वास्तव में साहित्य में रुचि रखते है तो आप पढ़ने से खुद को रोक नहीं सकते!


इस पुस्तक के बारे मे ग़ज़ल के अच्छे ख़ासे जानकर वरिष्ठ ग़ज़लकार आदरणीय  द्विजेन्द्र 'द्विज' जी अपनी संप्रति दी है जो "आनन" जी  के लेखन और उनकी यात्रा का बहुत प्रभावशाली ढंग से परिभाषित करती है!


य़ह पुस्तक 90 ग़ज़लों  का  एक समृद्ध संग्रह है जिनमें समकालीन देश काल की यथास्थिति और उसके परिदृश्य पर लेखन के माध्यम से जीवन के प्रत्येक पहलुओं को इंगित कर मानवीय जीवन के इर्द-गिर्द बुनी गई ग़ज़लों में आत्मीयता के मनोभावों के साथ जीवन के सुख-दुःख, प्रेम प्रसंग, झूठ, पाखंड, आडम्बर, कटु सत्य, जीवन की कठिनाइयों एवं विविध पहलुओं पर अपनी कलम का बड़ी खूबसूरती से प्रयोग किया है!


पहली ही ग़ज़ल में एक मतला में इतनी साफ़गोई से अपनी बात कह गए जो वर्तमान समय में सटीक बैठती है 


हर जगह झूठ ही झूठ की है खबर

पूछता कौन है अब कि सच है किधर?

!

इस क़लम को ख़ुदा इतनी तौफीक दे 

हक पे लड़ती रहे बेधड़क  उम्र भर !


आजकल के इश्क़ के नाम पर हो रही बाज़ारी पर चोट करते हुए कहते है कि 


मुहब्बत में अब वो इबादत कहाँ है,

तिजारत हुई अब सदाकत कहाँ है!


वो लैला, वो मजनूं, वो शीरी, वो फरहाद,

है पारीन किस्से, हक़ीक़त कहाँ है!!


आनन जी की खासियत यह की वह अपनी बात बड़ी सरलता से कहते है ! सच्चाई को कैसे  बयान कर जाते है ये बात इनकी लिखी इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि 


अपने नग्मों में आनन मुहब्बत तो भर 

तेरे नग्मों का होगा कभी तो असर!


साहित्य औऱ राजनीति का एक दूसरे के साथ गहरा संबंध रहा है यह संबंध तब खरा  उतरते है  एक दूसरे की  शान  में  कसीदे न पढ़कर जहां आवश्यकता पड़े वास्तविकता से रूबरू कराए इस पर कटाक्ष करते हुए बेख़ौफ़ बा-कमाल लिखा है 


वो मांगते सबूत है देते नहीं है खुद 

आरोप बिन सबूत के सब पर लगा रहे!


कहाँ तुम साफ़ चेहरा ढूंढते हो 

यहां सबका रंगा चेहरा मिलेगा!


राजनीति और वर्तमान साहित्य के आकाओं पर चोट करती एक ग़ज़ल में लिखते है....


वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता 

हसीन ख्वाब में गर वो न  मुब्त्तिला होता!


कलम जुबान नहीं आप की बिकी होती 

ज़मीर आप का जिन्दा अगर रहा होता 


आजकल सामाजिक माहौल जिस दौर से गुजर रहा है जो विषमताएं समाज को दूषित कलंकित कर रही है उस दर्द को करीब से महसूस करते हुए इनकी कलम ने जो शब्द पिरोए है हृदय उद्वेलित औऱ आंखे नम कर देती है इस विषय में पेज 67 पर ग़ज़ल संख्या 50 इसका उदहारण है ग़ज़ल का मतला ही दिल को हिला देता है....


छुपे थे जो दरिन्दे दिल में उसके जब जगे होंगे 

कटा जब जिस्म होगा तो नहीं आंसू बहे होंगे!


न माथे पर शिकन उसके नदामत भी न आँखों में,

कहानी झूठ की होगी बहाने सौ नए होंगे 


अगर पूरी ग़ज़ल पढ़ते है तो सोचने को मजबूर कर देती है आज मानवता का स्तर कितना गिर रहा है  प्रगति और विकास से समृद्ध शिक्षित यह समाज किस और जा रहा है!!


कलम के सफ़र में अपनी ग़ज़लों के माध्यम से शायद ही कोई ऐसा पहलु हो जिस पर इन्होंने अपनी क़लम का प्रयोग न किया हो! 


बातें करने के लिए बहुत है मगर संपूर्ण पुस्तक का विवरण कर पाना मुश्किल है पुस्तक का पूर्ण रसास्वादन करने के लिए आपको यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए विशेषकर ग़ज़ल में रुचि रखने वाले पाठकों और नवांकुरो के लिए अत्यंत उपयोगी है बहुत कुछ सीखने का मसौदे प्रदान करती है!


पुस्तक की विशेषता यह है की आवरण  पृष्ठ से लेकर, मुद्रण, संपादन प्रकाशन सब उम्दा है एवं प्रत्येक ग़ज़ल में क्लिष्ट शब्दों को अर्थ दिए गए है!


साहित्य कला के क्षेत्र में विशिष्ट योग्यता रखने वाले भावनाओं, वेदनाओं, अनुभूतियों और सृजन की अभिव्यक्ति में पारंगत प्रतिभा के धनी एक जागरूक नागरिक के रूप में लेखन को नए आयाम देते रहे और आपकी कलम देश और समाज को सचेतन बनाए रखने के लिए कलम का सफ़र निरंतर चलता रहे!


हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 


आपके स्नेहिल आशीर्वाद का आकांक्षी 


डी के निवातिया 🙏




[ नोट - डी0के0 निवातिया जी स्वयं एक साहित्यप्रेमी और अदब आशना है और  एक ह्वाट्स अप साहित्यिक  मंच --गुलिस्तां -  के संचालक और प्रबंधक भी हैं---आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2023

ग़ज़ल 342 [17 ] : यार के कूचे में जाना कब मना है !

 


ग़ज़ल 342


2122---2122---2122


यार के कूचे में जाना कब मना है !

दर पे उसके सर झुकाना कब मना है !


मंज़िलें तो ख़ुद नहीं आएँगी  चल कर

रास्ता अपना बनाना कब मना है !


प्यास चातक की भला कब बुझ सकी है

तिशनगी लब पर सजाना कब मना है !


रोकती हों जो हवाओं रोशनी को-

उन दीवारों को गिराना कम मना है !


ज़िंदगी बोझिल, सफ़र भारी लगे तो

प्यार के नग्में सुनाना कब मना है !


ज़िंदगी है तो सदा ग़म साथ होंगे

पर ख़ुशी के गीत गाना कब मना है !


जो अभी हैं इश्क़ में नौ-मश्क ’आनन’

हौसला उनका बढ़ाना कब मना है !


-आनन्द.पाठक-


गुरुवार, 21 सितंबर 2023

ग़ज़ल 341/16 : तेरी गलियों में जब से हैं जाने लगे

 ग़ज़ल 341


212---212---212---212


तेरी गलियों में जब से हैं जाने लगे

जिस्म से रूह तक मुस्कराने लगे


दूर से जब नज़र आ गया बुतकदा

घर तुम्हारा समझ  सर झुकाने लगे


इश्क़ दर्या है जिसका किनारा नही

यह समझने में मुझको ज़माने लगे


देखने वाला ही जब न बाकी रहा

किसकी आमद में खुद को सजाने लगे


ये ज़रूरी नहीं सब ज़ुबां ही कहे

दर्द आँखों से भी कुछ बताने लगे


तुमने मुझको न समझा न जाना कभी

दूसरों के कहे में तुम आने लगे ।


राह-ए-हक़ से तुम ”आनन’ न गुज़रे कभी

इसलिए सब हक़ीक़त फ़साने लगे ।


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

ग़ज़ल 340 [15]: क्यों अँधेरों में जीते हो मरते हो तुम

 ग़ज़ल  340[15]


२१२---२१२---२१२---२१२


क्यों अँधेरों में जीते हो मरते हो तुम

रोशनी की नहीं बात करते हो तुम


रंग चेहरे का उड़ता क़दम हर क़दम

सच की गलियों से जब भी गुज़रते हो तुम


कौन तुम पर भरोसा करे ? क्यों करे?

जब कि हर बात से ही मुकरते हो तुम


राह सच की अलग, झूठ की है अलग

राह ए हक  पर भला कब ठहरते हो तुम ?


वो बड़े लोग हैं, उनकी दुनिया अलग

बेसबब क्यों नकल उनकी करते हो तुम ?


वक़्त आने पे लेना कड़ा फ़ैसला

उनके तेवर से काहे को डरते हो तुम ?


तुमको उड़ना था ’आनन; नहीं उड़ सके

तो परिंदो के पर क्यों कतरते हो तुम ?


-- आनन्द,पाठक--


शनिवार, 9 सितंबर 2023

ग़ज़ल 339/14 : तुमने जैसा कहा मैने वैसा कहा


ग़ज़ल 339/14

212---212---212---212--


तुम ने जैसा कहा मैने वैसा किया

फ़िर बताओ कि मैने बुरा क्या किया ?


हाथ की बस लकीरें रहे देखते

बाजुओं पर न तुमने भरोसा किया ।


ध्यान में वह नहीं था, कोई और था

बस दिखावे का ही तुमने सज्दा किया ।


इश्क़ क्या चीज़ है, तुमको क्या है पता

इश्क़ के नाम पर बस तमाशा किया ।


रह-ए-हक़ में क़दम दो क़दम क्या चले

चन्द लोगों ने मुझ से किनारा किया ।


क्यों जुबाँ लड़खड़ाने लगी आप की

आप ने कौन सा सच से वादा किया ।


बात ’आनन’ की चुभने लगी आप को

सच की जानिब जब उसने इशारा किया ।


-आनन्द.पाठक--


सोमवार, 4 सितंबर 2023

ग़ज़ल 338/13:आप से अर्ज ए हाल है साहिब

2122   1212   22

आप से अर्ज-ए-हाल है, साहिब
जिंदगी पाएमाल  है साहिब

रोज जीना है रोज मरना है
यह भी खुद मे कमाल है, साहिब

अब फरिश्ते कहाँ उतरते हैं
आप का क्या खयाल है साहिब ?

रोशनी देगा या जला देगा-
हाथ उसके मशाल है, साहिब

सिर्फ टी0वी0 पे दिन दिखे अच्छे
मुझको इसका मलाल है साहिब

जिंदगी शौक़ है कि मजबूरी ?
यह भी कैसा सवाल है, साहिब

लोग 'आनन'  को हैं बुरा कहते
चन्द लोगों की चाल है साहिब

-आनन्द पाठक-

शनिवार, 2 सितंबर 2023

ग़ज़ल 337/12 : खुशियों का ज़िंदगी में अभी सिलसिला नहीं

 ग़ज़ल 337/12


221---212---212---212


खुशियों का ज़िंदगी में अभी सिलसिला नहीं

मैने भी ज़िंदगी से अभी कुछ कहा नहीं ।


हालात-ए-ज़िंदगी से कोई ग़मज़दा न हो

ऐसा तो कोई शख़्स अभी तक मिला नहीं ।


नफ़रत की आँधियॊं से उड़ा आशियाँ  मेरा

ज़ौर-ओ-सितम से एक भी तिनका बचा नहीं


दीवार थी गुनाह की दोनों के बीच में ,

वरना था दर्मियान कोई फ़ासला नहीं ।


वैसे कहानी आप की तो बारहा सुनी

फिर भी ज़दीद सी ही लगी, दिल भरा नहीं ।


नदिया में प्यास की न तड़प ही रही अगर

सागर से फिर मिलन का असर खुशनुमा नहीं


’आनन’ ख़याल-ओ-ख़्वाब में इतना न डूब जा

दुनिया की साज़िशों का तुम्हे हो पता नही ।



-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 31 अगस्त 2023

ग़ज़ल 336/11 : इश्क़ क्या है ? न मुझको बताया करो

 ग़ज़ल 336/11


212---212---212---212


इश्क़ क्या है? न मुझको बताया करो

जो पढ़ी हो, अमल में भी लाया  करो  ।


गर ज़ुबाँ से हो कहने में दुशवारियाँ

तो निगाहों से ही कह के जाया करो ।


जो रवायत ज़माने के नाक़िस हुए

छोड़ दो, कुछ नया आज़माया करो ।


दोस्ती भी इबादत से तो कम नही

बेगरज़ साथ तुम भी निभाया करो ।


रहबरी है तुम्हारी कि साज़िश है कुछ

जानते हैं सभी , मत छुपाया करो ।


जो अँधेरों में है उनके दिल में कभी

इल्म की रोशनी तो जगाया करो ।


नाम ’आनन’ का तुमने सुना ही सुना

जानना हो तो घर पे भी आया करो ।


-आनन्द पाठक--


बुधवार, 30 अगस्त 2023

ग़ज़ल 335[10] झूठ की हद से जब गुज़रता है

ग़ज़ल 335[10]

2122---1212---22


झूठ की हद से जब गुज़रता है

बात सच की कहाँ वो करता है


जब दलाइल न काम आती है

गालियों पर वो फिर उतरता है


हर तरफ है धुआँ धुआँ फ़ैला

खिड़कियां खोलने से डरता है


वह उजालों के राज़ क्या जाने

जुल्मतों में सफर जो करता  है


आसमाँ पर उड़ा करे हमदम

वह ज़मीं पर कहाँ ठहरता है ?


निकहत-ए-गुल से कब शनासाई

मौसिम-ए-गुल उसे अखरता है


कैसे ’आनन’ करें यकीं उसपर

जो ज़ुबाँ दे के भी मुकरता है


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

ग़ज़ल 334 [09]: हो न जाए कही रायगां--

 ग़ज़ल 334 /09


212---212---212---212


हो न जाए कहीं रायगां रोशनी -

उससे पहले तू दिल से मिटा तीरगी


उसने पर्दा उठाया हुई इक सहर

और दिल में जगी एक पाकीज़गी


इक अक़ीदत रही आख़िरी साँस तक

शख़्सियत उसकी थी बस सुनी ही सुनी


ज़िंदगी में तो वैसे कमी कुछ नहीं

जब न तुम ही मिले तो कमी ही कमी


मैं शुरु भी करूँ तो कहाँ से करूँ

मुख़्तसर तो नही है ग़म-ए-ज़िंदगी


इन हवाओं की ख़ुशबू से ज़ाहिर यही

इस चमन से है गुज़री अभी इक परी


एक एहसास है एक विश्वास है

तुमने ’आनन’ की देखी नही आशिक़ी


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

रायगां  = व्यर्थ

नूर--ए-सहर = सुबह का उजाला

पाकीजगी  = पवित्रता

अक़ीदत = श्रद्धा ,विश्वास

मुख़्तसर = संक्षिप्त

सोमवार, 21 अगस्त 2023

चन्द माहिए : क़िस्त 98/08

 चन्द माहिए : क़िस्त 98/08 

1

रितु बासंती आई

और नशा भरती

गोरी की अँगड़ाई


2

आ मेरे हमजोली

साथ सजाते हैं

आँगन की रंगोली

3

भूली बिसरी यादें

सोने कब देतीं

करती रहतीं बातें


4

कुछ ख़्वाब तुम्हारे थे

और थे कुछ मेरे

सब कितने प्यारे थे


5

जीवन भर चलना है

वक़्त कहाँ रुकता

गिरना है सँभलना है


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 20 अगस्त 2023

गीत 79 : मिले पुराने यार हमारे, [ थीम सांग]

 

गीत 79


थीम सांग--[ Jab We Mer -UOR-77]


मिले पुराने यार हमारे, झूमें नाचें गाएँ

वो भी दिन थे क्या मस्ती के, आज वही दुहराएँ

जम कर धूम मचाएँ, याराँ ! जम कर धूम मचाएँ


गंग नहर की लहरों में है अब भी वही जवानी

हम यारों में अब भी बाक़ी मस्ती और जवानी

कभी चाँदनी रात बिताई ’सोलानी’ क तट पर

मिल कर बैठेंगे, बाँटेंगे , यादें और कहानी ।


आसमान भी छोटा होगा उड़ने पर आ जाएँ

जम कर धूम मचाएँ, याराँ ! जम कर धूम मचाएँ


’रुड़की’ से जब निकले हम सब घर-संसार बसाए

बेटा-बेटी पढ़ा लिखा कर ,सच की राह लगाए

अब उनकी अपनी दुनिया है, मेरे संग देवी जी

बाक़ी बची ज़िंदगी अपनी हँसी-खुशी कट जाए


उतर गए जब बोझ हमारे मिल कर खुशी मनाएँ

जम कर धूम मचाएँ, याराँ ! जम कर धूम मचाएँ


सबकी अपनी मंज़िल, सबके नए सफ़र थे

जीवन की आपा-धापी में जाने किधर किधर थे

मुक्त गगन के पंछी अब हम, आसमान अपना है

कल तक हम सबके हिस्से थे , सबके नूर नज़र थे


वक़्त आ गया यारों के संग मिल कर समय बिताएँ

जम कर धूम मचाएँ, याराँ ! जम कर धूम मचाएँ


कभी कभी ऐसा भी होता, मन फ़िसला, सँभला है

कितनी बदल गई है ’रुड़की’, रंग नही बदला है

शान हमारी क्या थी क्या है मत पूछो यह प्यारे

हर इक साथी  ’रुड़की वाला’, नहले पर दहला है


इन हाथों के हुनर हमारे, दुनिया को दिखलाएँ

जम कर धूम मचाएँ, याराँ ! जम कर धूम मचाएँ


-आनन्द पाठक-

गीत 78 : सजनी ! तुम रनिंग कमेन्टरी हो


एक हास्य गीत


सजनी ! तुम रनिंग कमेन्टरी हो दो पल को शान्त न होती हो ।


जब तुम हँसना शुरू कर दो, ’सिद्धू’ पा की हस्ती क्या

जब तुम ’बकना’ शुरु कर दो, छक्का लगने की मस्ती क्या

है कौन जो आऊट हो न सके, स्पीनिंग’ चाल तुम्हारी हो

जब ’किट्टी पार्टी ’ करती हो तो घर क्या है गॄहस्थी क्या ।


मेरे पेन्शन का कैश झपट, मुझे  ’कैच आउट’ कर देती हो ।

सजनी ! तुम रनिंग कमेन्टरी हो ---


तेरे बेलन का एक प्रहार ज्यों धोनी की बल्लेबाजी

मेरा गंजा सर ’बाल’ समझ. कुछ ठोंक गई बेलनबाजी

क्या होगी कही ’क्रिकेट’ जगत में तेरी मेरी जैसी जोड़ी

मेरा दौड़ दौड़ कर ’रन’ लेना, तेरी उचक,उचक ’कलछुल’ बाजी


मैके जाने की धमकी से,मुझे ’क्लीन बोल्ड’ कर देती हो ।

सजनी ! तुम रनिंग कमेन्टरी हो ----


क्या भगवन ऐसे पाप किए जो सास बनी है ’अम्पायर’

जीवन की गाड़ी चली कहाँ ,जब चारो पंचर हो ’टायर’

हम मैच में मैं ’इंजर्ड’ हुआ. हर ’इनिंग’ जीत हुई तेरी

तेरी फ़ील्डिंग’ तेरी ’बैटिंग’ क्यों मार रही ’कट-स्कवायर"


अपने गुस्से का रुप दिखा, घर से बाहर कर देती हो

सजनी ! तुम रनिंग कमेन्टरी हो -----


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 12 अगस्त 2023

गीत 77 :जगह जगह है मारा-मारी,

 

एक गीत 77


जगह जगह है मारा मारी, अब चुनाव की है तैयारी,


चूहे-बिल्ली एक मंच पर

साँप-छछूंदर इक कोटर मे

जब तक चले चुनावी मौसम

भगवन दिखें उन्हें वोटर में ।

नकली आँसू ढुलका कर बस, जता रहें हैं दुनियादारी

जगह जगह है मारा मारी----


मुफ़्त का राशन, मुफ़्त की ”रेवड़ी’

मुफ़्त में बिजली, मुफ़्त में पानी

"कर्ज तुम्हारा हम भर देंगे-"

झूठों की यह अमरित बानी ।

बात निभाने की पूछो तो, कह देते -" अब है लाचारी"

जगह जगह है मारा मारी


नोट-वोट की राजनीति में, 

आदर्शों की बात कहाँ है ?

धुआँ वहीं से उठता दिखता

रथ का पहिया रुका जहाँ है ।

ऊँची ऊँची बातें उनकी, उल्फ़त पर है नफ़रत भारी

जगह जगह है मारा मारी


नया सवेरा लाने निकले

गठबन्धन कर जुगनू सारे

अपने अपने मठाधीश की

लगा रहे है सब जयकारे

इक अनार के सौ बीमार हैं, गठबंधन की है दुश्वारी

जगह जगह है मारा मारी


सूरज का रथ चले रोकने

धमा-चौकड़ी करते तारे

झूठे नारे वादे लेकर --

साथ हो लिए हैं अँधियारे

वही ढाक के तीन पात है, जनता बनी रही दुखियारी

जगह जगह है मारा मारी, अब चुनाव की है तैयारी


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रविवार, 30 जुलाई 2023

ग़ज़ल 333[08] : कुछ लोग बस हँसेंगे

 ग़ज़ल 333 [08]


221--2121----1221---212


 कुछ लोग बस हँसेंगे, तुझे पाएमाल कर

अपना गुनाह-ए-ख़ास तेरे सर पे डाल कर


कितना बदल गया है ज़माना ये आजकल

दिल खोलना कभी तो, जरा देखभाल कर


लोगों ने कुछ भी कह दिया तू मान भी लिया

अपनी ख़िरद का कुछ तो ज़रा इस्तेमाल कर


वह वक़्त कोई और था, यह वक़्त और है

जो कह रहा निज़ाम, न उस पर सवाल कर


सौदा न कर वतन का, न अपनी ज़मीर का

मिट्टी के कर्ज़ का ज़रा कुछ तो खयाल कर


इन बाजुओं में दम अभी हिम्मत है, हौसला

फिर क्यों करूँ मै फ़ैसला, सिक्के उछाल कर


’आनन’ सभी की ज़िंदगी तो एक सी नहीं

हासिल है तेरे पास जो, उससे कमाल कर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

ख़िरद = अक़्ल

पाएमाल =बरबाद 

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

ग़ज़ल 332 [07] : आदमी की सोच को यह क्या हुआ है

 ग़ज़ल 332 [07]


2122---2122---2122


आदमी की सोच को यह क्या हुआ है

आज भी कीचड़ से कीचड़ धो रहा है


मजहबी जो भी मसाइल, आप जाने

दिल तो अपना बस मुहब्बत ढूँढता है


मन के अन्दर ही अँधेरा और उजाला

देखना है कौन तुम पर छा गया है


ज़िंदगी की शर्त अपनी, चाल अपनी

कब हमारे चाहने से क्या हुआ है ।


कौन मानेगा तुम्हारी बात कोई 

बात अब तुमको बनाना आ गया है


देख सकते हैं मगर हम छू न सकते

चाँद नभ का है हमारा कब हुआ है ।


मौसिम-ए-गुल में कहाँ वो रंग ’आनन’

जो गुज़िस्ताँ दौर का होता रहा है ।


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 21 जुलाई 2023

ग़ज़ल 331[06] : ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ

 ग़ज़ल 331

212---212---212---212


ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ

लब पे क़ायम तुम्हारे है ख़ामोशियाँ


कल तलक रात-दिन राबिता में रहे

आज तुमने बढ़ा ली है क्यॊं दूरियाँ


एक पल को नज़र तुम से क्या मिल गई

लोग करने लगे अब है सरगोशियाँ


सोच उनकी अभी आरिफ़ाना नहीं

शायरी को समझते हैं लफ़्फ़ाज़ियाँ


ज़िंदगी भर जो तूफ़ान में ही पले

क्या डराएँगी उनको कभी बिजलियाँ


एक तुम ही तो दुनिया में तनहा नहीं’

इश्क़ में जिसको हासिल है नाकामियाँ


तेरी ’आनन’ अभी तरबियत ही नहीं

इश्क की जो समझ ले तू बारीकियाँ



-आनन्द.पाठक-




शनिवार, 15 जुलाई 2023

मौसम बदलेगा—एक समीक्षा---[ राम अवध विश्वकर्मा ]

 

[ नोट – मेरी किताब –मौसम बदलेगा – [ गीत ग़ज़ल संग्रह]  की एक संक्षिप्त समीक्षा, आदरणीय राम अवध विश्वकर्मा जी ने की है जो मैं इस पटल पर लगा रहा हूं।ग्वालियर निवासी श्री विश्वकर्मा जॊ सरकारी सेवा से निवृत्त हो, फ़ेसबुक और Whatsapp के मंचीय शोरगुल से दूर,अलग एकान्त साहित्य सृजन में साधनारत हैं।

आप स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है एव ग़ज़ल के एक सशक्त हस्ताक्षर भी ।आप की अबतक 7- पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है जिसमे आप का नवीनतम ग़ज़ल संग्रह “तंग आ गया सूरज” का हाल ही में प्रकाशित हुआ है।आप की रचनाओं पर एम0फिल0 पी0 एच0 डि0 के कुछ शोधार्थियों द्वारा भी काम किया जा रहा है।] विश्वकर्मा जी का बहुत बहुत धन्यवाद—सादर]

 

       समीक्षा पर आप भी अपने विचार प्रगट कर सकते है

 

मौसम बदलेगा—एक समीक्षा

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"मौसम बदलेगा" श्री आनन्द पाठक जी की  गीत,  ग़ज़ल ,मुक्तक से सुसज्जित अभी हाल में प्रकाशित हुई पुस्तक है। यह उनकी दसवीं पुस्तक है। इससे पहले चार व्यंग्य संग्रह, चार गीत ग़ज़ल संग्रह और एक माहिया संग्रह की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक विधाओं में अपनी लेखनी का हुनर दिखाने वाले आनन्द पाठक जी को गीत, ग़ज़ल ,माहिया आदि पर न केवल अच्छी पकड़ है वरन उनके व्याकरण का भी गहराई से ज्ञान है।

एक बार मैं नेट पर ग़ज़ल  ज़िहाफ़ के बारे में सर्च कर रहा था तो मुझे उनका ब्लॉग  www.aroozobaharblogspot.com दिखाई दिया। उसमें लगभग 87 ब्लॉग हैं।उस पूरे ब्लॉग को पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि ग़ज़ल के अरूज़ के लिये अन्यत्र कहीं भटकने की ज़रुरत नहीं है। बड़े सरल एवं विस्तार से बारीकी के साथ अरूज़ के हर पहलू पर इसमें चर्चा की गई है। यहीं से मेरा परिचय पाठक जी से हुआ। उनकी सरलता सहजता ने इस कदर मुझे प्रभावित किया कि उनके लेखन के साथ साथ उनका भी मुरीद हो गया।

          ' मौसम बदलेगा ' शीर्षक उनके एक गीत से लिया गया है। जिसके बोल हैं '

 

 सुख का मौसम, दुख का मौसम, आँधी पानी का हो मौसम,

 मौसम का आना जाना है , मौसम है मौसम बदलेगा।

 

यह गीत आशा का गीत है। पुस्तक में 99 ग़ज़लें, 08 नई कविता ( छन्द मुक्त  ), 05 मुक्तक और 09  गीत हैं।

होली की ग़ज़ल  नज़ीर अकबराबादी की याद दिला देती है। होली पर शेर देखें-

 

करें जो गोपियों की चूड़ियाँ झंकार होली में

बिरज में खूब देती है मज़ा लठमार होली में

अबीरों के उड़े बादल कहीं है फाग की मस्ती

कहीं गोरी रचाती सोलहो श्रृंगार होली में

 

मुफलिस की ज़िन्दगी में अक्सर अँधेरा ही रहता है।  सूरज उगता तो हर दिन है लेकिन उसके घर तक रोशनी नहीं पहुँचती। यह शेर उनकी व्यथा को बखूबी बयान करता है।

 

जीवन के सफ़र में हाँ ऐसा भी हुआ अक्सर

ज़ुल्मत न उधर बीती सूरज न इधर आया

 

देश के नेता सत्ता के लिए दीन धरम ईमान सब कुछ त्याग देते हैं । उनके लिये ये सब निरर्थक हैं। कुर्सी के लिये लालायित ऐसे नेताओं पर उनका एक शेर देखें

'जब दल बदल ही करना तब दीन क्या धरम क्या

हासिल हुई हो कुरसी ईमान जब लुटाकर'

 

इस दुनिया में राजा रानी पंडित मुल्ला आदि का भले ही लोग लेबल लगाकर भेद भाव के साथ जी रहे हों लेकिन मौत की नज़र में न कोई छोटा है न बड़ा। इसी से संदर्भित एक शेर देखें

 

' न पंडित न मुल्ला न राजा न रानी

रहे मर्ग में ना किसी को रियायत'

 

इतिहास गवाह है जनता जब शासन तंत्र से ऊब जाती है तब वह परिवर्तन पर आमादा हो जाती है और वह भ्रष्ट तंत्र को जड़ से.उखाड़ फेंकती है। शायर ने इस कटु सत्य को अपने इस शेर के माध्यम से रखने की कोशिश की है-

 

'मुट्ठियाँ इन्किलाबी भिचीं जब कभी

ताज सबके मिले ख़ाक में क्या नहीं'

 

न्याय व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य देखें

 

'क़ातिल के हक़ में लोग रिहाई में आ गये

अंधे भी चश्मदीद गवाही में आ गये'

 

आज की लीडरशिप पर शायर सवाल उठाते हुये शायर

कहता है—

 

' ऐ राहबर ! क्या ख़ाक तेरी रहबरी यही

हम रोशनी में थे कि सियाही मे आ गये'

 

इस देश की सियासत ने अपनी तहज़ीब को गालियों के हाथ गिरवी रख दी है। दिन ब दिन उसके गिरते स्तर से दुखी होकर शायर कहता है-

 

' अब सियासत में बस गालियाँ रह गईं

ऐसी तहज़ीब को आजमाना भी क्या'

'चोर भी सर उठाकर हैं चलने लगे

उनको कानून का ताजियाना भी क्या

 

उनके कुछ मुक्तक  देखिये जो आजकल के हालात को बखूबी बयान करते हैं

 

यह चमन है हमारा तुम्हारा भी है

खून देकर सभी ने सँवारा भी है

कौन है जो हवा में जहर घोलता

कौन है वो जो दुश्मन को प्यारा भी है

 

मौसम बदलेगा एक नायब क़िताब है। इसकी ग़ज़ले, गीत,मुक्तक आदि पाठक को अंत तक पढ़ने पर मजबूर करते हैं। कहीं भी उबाऊपन महसूस नहीं होता ।

 

पुस्तक का नाम - मौसम बदलेगा

प्रकाशक - अयन प्रकाशन,  उत्तम नगर,  नई दिल्ली

मूल्य- रुपये 380/-

 

समीक्षक- राम अवध विश्वकर्मा ग्वालियर (म. प्र.)

सम्पर्क 94793 28400


 

 

ग़ज़ल 330[ 06] : देखा जो कभी तुम ने

 ग़ज़ल 330[ 06]


221---1222--// 221--1222


देखा जो कभी तुमको, खुद होश गँवा बैठे

क्या तुमको सुनाना था ,क्या तुमको सुना बैठे


कुछ बात हुआ करतीं पर्दे की तलब रखती

यह क्या कि समझ अपना, हर बात बता बैठे


मालूम हमें क्या था बदलेगी हवा ऐसी

हर बार हवन करते, हम हाथ जला बैठे


यह राह फ़ना की है, अंजाम से क्या डरना

जिसका न मुदावा है, वह रोग लगा बैठे


रोके से नहीं रुकता, लगता न लगाने से

इस बात से क्या लेना, दिल किस से लगा बैठे


चाँदी के क़लम से कब, सच बात लिखी तुमने

सोने की खनक पर जब दस्तार गिरा बैठे


उम्मीद तो थी तुम से, तुम आग बुझाओगे

नफ़रत को हवा देकर तुम और बढ़ा बैठे ।


आदात तुम्हारी क्या अबतक है वही 'आनन'

कोई भी  मिला तुम से बस दर्द सुना बैठे ?


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
दस्तार = पगड़ी, इज्जत

मुदावा = इलाज


बुधवार, 12 जुलाई 2023

ग़ज़ल 329[05] : तुम्हारे ही इशारों पर--

 ग़ज़ल 329 /05


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे ही इशारों पर, बदलते हैं यहाँ मौसम

कभी दिल शाद होता है ,कभी होती हैं आँखें नम ।


ये ख़ुशियाँ चन्द रोज़ां की,  कब आती हैं चली जातीं

कभी क्या मुख़्तसर होती किसी की दास्तान-ए-ग़म


तरीक़ा आजमाने का तुम्हें लगता यही वाज़िब

सितम जितना भी तुम कर लो, नहीं होगी मुहब्बत कम


अजब है ज़िंदगी मेरी, न जाने क्यॊ मुझे लगता

कभी  लगती है अपनॊ सी ,कभी हो जाती है बरहम


रहेगा सिलसिला क़ायम सवालों का, जवाबों का

नतीज़ा एक सा होगा , ये आलम हो कि वो आलम


जरूरत ही नही होगी हथेली में लिखा है क्या

तुम्हें  इन बाजुओं पर हो भरोसा जो अगर क़ायम


परेशां क्यों है तू ’आनन’, ज़माने से हैं क्यॊ डरता

ये दुनिया अपनी रौ में है तू ,अपनी रौ मे चल हरदम



-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

मुख़्तसर  == छो्टी, संक्षेप में

बरहम = तितर बितर. नाराज़

मंगलवार, 30 मई 2023

ग़ज़ल 328[04 फ़] : मुझे क्या ख़बर किसने--

 ग़ज़ल 328 [04] 


ग़ज़ल 328[04फ़]

122--122--122--122


मुझे क्या ख़बर किसने क्या क्या कहा है

अभी मुझ पे तारी तुम्हारा  नशा  है ।


तुम्हें शौक़ है आज़माने का मुझको

हमेशा हूँ हाज़िर ,मना कब किया है


अभी शाम में ख़त मिला जब तुम्हारा

वही मैं पढ़ा जो न तुमने लिखा है


हज़ारों मनाज़िर मेरे सामने थे

तुम्हारे सिवा कब मुझे कुछ दिखा है


बदन ख़ाक की मिल गई ख़ाक में तो

ये हंगामा इतना क्यों बरपा हुआ  है


नई रोशनी घर में आए तो कैसे 

न खिड़की खुली है, न दर ही खुला है


समझ जाएगी एक दिन वह भी ’आनन’

अभी वह मुहब्बत से नाआशना है 


-आनन्द.पाठक- 

सोमवार, 22 मई 2023

ग़ज़ल 327 [ 03F] : ज़िंदगी में रही एक कमी उम्र भर

 ग़ज़ल 327[03F]


212---212---212---212


जिंदगी में रही इक कमी उम्र भर

इन लबों पर रही तिशनगी उम्र भर


तुम जो आते तो दिल होता रोशन मेरा

तुम न आए रही तीरगी  उम्र भर 


जानता हूँ मगर कह मैं सकता नहीं

ज़िंदगी क्यों मुझे तुम छ्ली उम्र भर


ये नज़ाकत, लताफ़त ये लुत्फ़-ओ-अदा

किसकी क़ायम यहाँ कब रही उम्र भर


आप की बात पर था भरोसा मुझे

राह देखा किए आप की उम्र भर


हो न लुत्फ़-ओ-इनायत भले आप की

दिल करेगा मगर बंदगी उम्र भर


सबको अपना समझते हो ’आनन’ यहाँ

कौन होता किसी का कहाँ उम्र भर


-आनन्द.पाठक-


 

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 326 (02F): जब दिल में कभी उनका

Ghazal 326 [02F]

221---1222// 221--1222

जब दिल मे कभी उनका,इक अक्स उतर आया
दुनिया न मुझे भायी दिल और निखर आया

ऐसा भी हुआ अकसर सजदे में झुकाया सर
ख्वाबों मे कभी उनका चेहरा जो नजर आया

कैसी वो कहानी थी सीने मे छुपा रख्खी
तुमने जो सुनाई तो इक दर्द उभर आया

दो बूँद छलक आए नम आँख हुई उनकी
चर्चा में कहीं मेरा जब जख्म ए जिगर आया

अंजाम से क्या डरना क्यों लौट के हम आते
खतरों से भरे रस्ते दौरान ए सफर आया

क्या क्या न सहे हमने दम तोड़ दिए सपने
टूटे हुए सपनों से जीने का हुनर आया

 मालूम नही तुझको, क्या रस्म-ए-वफा उलफत
क्या सोच के तू 'आनन', कूचे मे इधर आया 

--आनन्द पाठक-

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 325 [01F] : आजकल आप जाने न रहते किधर

 325[01F]


212---212---212---212


आजकल आप जाने न रहते किधर

आप की अब तो मिलती नही कुछ ख़बर


इश्क नायाब है सब को हासिल नहीं

कौन कहता मुहब्बत है इक दर्द-ए-सर


ख़्वाब देखे थे या जो कि सोचे थे हम

अब तो दिखती नहीं वैसी कोई  सहर


काम ऐसा न कर ज़िंदगी  में कभी

जो चुरानी पड़े खुद को ख़ुद से नज़र


छोड़ कर जो गया हम सभी को कभी

कौन आया है प्यारे यहाँ लौट कर


वक़्त रुकता नहीं है किसी के लिए

तय अकेले ही करना पड़ेगा सफ़र


दिल जो कहता है तुझसे उसी राह चल

क्यों भटकता है ;आनन’ इधर से उधर


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 324[89ई] : इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

 ग़ज़ल 324[89]


122---122---122---122


इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

निगाहों में क्यों दिख रही बेरुखी है


तेरी शख़्सियत का मैं इक आइना हूँ

तो फिर क्यों अजब सी लगे ज़िंदगी है


नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक

अजल से लबों पर वही तिश्नगी है


यक़ीनन नया इक सवेरा भी होगा

नज़र में तुम्हारी अभी तीरगी  है


बहुत दूर तक देख पाओगे कैसे

नहीं दिल में जब इल्म की रोशनी है


तुम आओगे इक दिन भरोसा है मुझको

उमीदो पे ही आज दुनिया टिकी है 


ये मुमकिन नहीं लौट जाऊँ मै ’आनन’

ये मालूम है इश्क़ ला-हासिली है ।


-आनन्द.पाठक-

अजल = अनादि काल से

ला-हासिली =निष्फल



सोमवार, 10 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 322(87E): न आए , तुम नहीं आए बहाना क्या !

ग़ज़ल 322(87E)

1222--------1222------1222

न आए , तुम नहीं आए, बहाना क्या
गिला शिकवा शिकायत क्या सुनाना क्या

कभी तोड़ा नही वादा लब ए दम तक
ये दिल की बात है अपनी बताना क्या

नफा नुकसान की बातें मुहब्बत में
इबादत मे तिजारत को मिलाना क्या

हसीं तुम हो, खुदा की कारसाजी है
तो फिर पर्दे मे क्यों रहना, छुपाना क्या

भरोसा क्यों नहीं होता तुम्हे खुद पर
मुहब्बत को हमेशा आजमाना क्या 

अगर तुमने नहीं समझा तो फिर छोड़ो
हमारा दर्द समझेगा जमाना क्या  

अगर दिल से नहीं कोई मिले 'आनन'
दिखावे का ये फिर मिलना मिलाना क्या 

-आनन्द पाठक-

रविवार, 9 अप्रैल 2023

गजल 323(88E) निगाहों ने निगाहों से कहा

1222  1222   1222   1222
गजल 323(88E)

निगाहों ने निगाहों से कहा क्या था, खुदा जाने
कभी जब सामना होता लगे हैं अब वो शरमाने

 मिले दो पल को राहो में झलक क्या थी क़यामत थी
ये दिल मक्रूज है उनका  वो ख्वाबों मे लगे आने

नही मालूम है जिनको, मुहब्बत चीज क्या होती
वही तफसील से हमको लगे हैं आज  समझाने

इनायत आप की गर हो भले कागज की कश्ती हो
वो दर्या पार कर लेगी कोई माने नही माने
  
ये जादू है पहेली है कि उलफत है भरम कोई
कभी लगते हैं वो अपने कभी लगते है बेगाने

बड़ी मुशकिल हुआ करती, मैं जाऊँ तो किधर जाऊँ
तुम्हारे घर की राहों मे हैं मसजिद और मयखाने

अगर दिल साफ हो अपना तो पोथी और पतरा क्या
कि सीधी बात भी 'आनन' लगे हो और उलझाने

-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 321 [86इ] तुम्हारे चाहने से क्या हुआ है

ग़ज़ल  321[86इ] 

 1222---1222----122


तुम्हारे चाहने से क्या हुआ है
जो होना था वही होकर रहा है

बहुत रोका कि ये छलके न आँसू
हमारे रोकने से कब रुका है

भँवर में हो कि तूफाँ में सफीना
हमेशा मौज़ से लड़ता रहा है

हवाएँ साजिशें करने लगीं अब
चमन शादाब मुरझाने लगा है

हमारे हाथ में ताक़त क़लम की
तुम्हारे हाथ में खंज़र नया है

दरीचे खोल कर देखा न तुमने
तुम्हे दिखती उधर कैसी फ़ज़ा है

उजाले क्यों उन्हें चुभते हैं ’आनन’
अँधेरों से कोई क्या वास्ता  है ?

-आनन्द.पाठक-



सोमवार, 3 अप्रैल 2023

गज़ल 320(85E) : गर्म आने लगी है हवाएँ इधर

गजल 320(85)
212---212---212---212

गर्म आने  लगीं है हवाएँ इधर
'कुछ जली बस्तियाँ' कल की होगी खबर

चल पड़े लीडराँ रोटियाँ सेंकने
सब को आने लगी अब है कुर्सी नजर

आग की यह लपट कब हैं पहचानतीं
यह है 'जुम्मन' का घर या 'सुदामा' का घर

लोग गुमराह करते रहेंगे तुम्हे
उनकी चालों से रहता है क्यों बेखबर

अपने मन का अँधेरा मिटाया नहीं
चाहते हो मगर तुम नई इक सहर

प्यार की बात क्यों लोग करते नहीं
 चार दिन का है जब जिंदगी का सफर

 उनके हाथों के पत्थर पिघल जाएँगे
अपनी ग़ज़लों में 'आनन' मुहब्बत तो भर

- आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 319(84) : वो माया जाल फैला कर

ग़ज़ल 319(84)
1222---1222---1222---1222

वो माया जाल फैला कर जमाने को है भरमाता
हक़ीक़त सामने जब हो, मै कैसे खुद को झुठलाता

जिसे तुम सोचते हो अब कि सूरज डूबने को है
जो आँखें खोल कर रखते नया मंजर नजर आता

मै मह्व ए यार मे डूबी हुई खुद से जुदा होकर
लिखूँ तो क्या लिखूँ दिल की उसे पढ़ना नही आता

अजब दीवानगी उसकी नया राही मुहब्बत का
फ़ना है आखिरी मंजिल उसे यह कौन समझाता

मसाइल और भी तो हैं मुहब्बत ही नहीं केवल
कभी इक गाँठ खुलती है तभी दूजा उलझ जाता

दबा कर हसरतें अपनी तेरे दर से गुजरता हूँ
सुलाता ख़्वाब हूँ कोई, नया कोई है जग जाता

वही खुशबख्त है 'आनन' जिसे हासिल मुहब्बत है
नहीं हासिल जिसे वह दिल खिलौनों से है बहलाता

-आनन्द पाठक-

मंगलवार, 28 मार्च 2023

गजल 318(83E) :फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

 गजल 318(E)

212---212---212---212

फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

बच के जाएँ तो जाएँ मछलियाँ कहाँ


 ग़ायबाना सही एक रिश्ता तो है

जब तलक है यह क़ायम जमी-आस्माँ


मैं जुबाँ से भले कह न पाऊँ कभी

मेरे चेहरे से होता रहेगा बयाँ


प्यास दर्या की ही तो नहीं सिर्फ है

क्यों समन्दर की होती नही है अयाँ


वस्ल की हो खुशी या जुदाई का गम

जिंदगी का न रुकता कभी कारवाँ


सैकडो रास्ते यूँ तो मक़सूद थे

इश्क का रास्ता ही लगा जाविदाँ


जानता है तू 'आनन' नियति है यही

आज उजाला जहाँ कल अंँधेरा वहाँ


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

ग़ायबाना  =अप्रत्यक्ष

मक़सूद =अभिप्रेत

जाविदाँ  = नित्य, शाश्वत


रविवार, 26 मार्च 2023

ग़ज़ल 317 [82इ] : ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ

 ग़ज़ल 317/82


212---212---212---212


ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ

आँसुओं से कभी जब वो गीला हुआ


पढ़्ने वाले ने पढ़ कर समझ भी लिया

दर्द वह भी जो  खत में न लिख्खा हुआ


आप झूठी शहादत ही बेचा किए

यह तमाशा कई बार देखा हुआ


शोर ही शोर है बेसबब हर तरफ
कौन सुनता है किसको सुनाना हुआ


हर कली बाग़ की आज सहमी हुई

ख़ौफ़ का एक साया है फैला हुआ


अब परिन्दे भी जाएँ तो जाएँ कहाँ

साँप हर पेड़ पर एक बैठा हुआ


तुम भी ’आनन’ हक़ीक़त से नाआशना

सब की अपनी गरज़ कौन किसका हुआ



-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 23 मार्च 2023

ग़ज़ल 316[81 इ] : सच से उसका कोई वास्ता भी नहीं

 ग़ज़ल 316[81]

212---212---212----212

सच से उस का कोई वास्ता भी नहीं,

क्या हक़ीक़त उसे जानना  भी नहीं ।


उँगलियाँ वो उठाता है सब की तरफ़

और अपनी तरफ़ देखता भी नहीं ।


रंग चेहरे क्यों उड़ गया आप का ,

सामने तो कोई आइना भी नहीं ।


पीठ अपनी सदा थपथपाते रहे ,

क्या कहें तुमको कोई हया भी नहीं ।


टाँग यूँ ही अड़ाते रहोगे अगर ,

तुम को देगा कोई रास्ता भी नहीं ।


आप दाढ़ी मे क्या लग गए खोजने ,

मैने 'तिनका' अभी तो कहा भी नहीं ।


रेवड़ी बाँटने  ख़ुद  चले आप थे

किसको क्या क्या दिया कुछ पता ही नहीं


राज-सत्ता भी ’आनन’ अजब चीज़ है

मिल गई , तो कोई छोड़ता भी नहीं


-आनन्द पाठक-

बुधवार, 22 मार्च 2023

ग़ज़ल 315[80इ] : ये अलग बात है वो मिला तो नहीं--

 ग़ज़ल 315  [ 80इ]


212---212---212---212


ये अलग बात है वो मिला तो नहीं

दूर उससे मगर मैं रहा तो नहीं


एक रिश्ता तो है एक एहसास है

फूल से गंध होती जुदा तो नहीं


उनकी यादों मे दिल मुब्तिला हो गया

इश्क की यह कहीं इबतिदा तो नहीं


कौन आवाज़ देता है छुप कर मुझे

आजतक कोई मुझको दिखा तो नहीं 


ध्यान में और लाऊँ मैं किसको भला

आप जैसा कोई दूसरा तो नहीं


लाख ’तीरथ’ किए आ गए हम वहीं

द्वार मन का था खुलना, खुला तो नहीं


आप जैसा भी चाहें समझ लीजिए

वैसे ’आनन’ है दिल का बुरा तो नहीं


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 314 [79 इ] : आप ने जो भी कुछ किया होगा

 ग़ज़ल 314[79]


2122---1212---22


आप ने जो भी कुछ किया होगा

हश्र में उसका फ़ैसला  होगा


चाह कर भी न कह सका उस से

उसने आँखों से पढ़ लिया होगा


ख़ौफ़ खाया न जो दरिंदो से

आदमी देख कर डरा  होगा


दिल पे दीवार उठ गई होगी

घर का आँगन भी जब बँटा होगा


अब भरोसा भी क्या करे  कोई

राहजन ही जो रहनुमा होगा


जाहिलों की जमात में अब वो

ख़ुद को आरिफ़ बता रहा होगा


रोशनी की उमीद में ’आनन’

आख़िरी छोर पर खड़ा होगा


-आनन्द पाठक-



शुक्रवार, 10 मार्च 2023

ग़ज़ल 313[78] जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

 ग़ज़ल 313/78


221---2121---1221---212


जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे


दिन रात मैकदा ही तुम्हारे खयाल में

तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरते रहे


इन्सानियत की बात किताबों में रह गई

अपना बना के लोग गला काटते रहे


चेहरे के दाग़ साफ नजर आ रहे जिन्हे

इलजाम आइने पे वही थोपते रहे


क्या दर्द उनके दिल में है तुमको न हो पता

अपनी ज़मीन और जो घर से कटे रहे


कट्टर ईमानदार हैं जी आप ने कहा

घपले तमाम आप के अब सामने रहे


बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब

मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे


'आनन' को कुछ खबर न थी, मंजिल पे थी नजर

काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ = नाम जपने की माला

मजलूम =पीड़ित


इसी ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुने---

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

चन्द माहिए : क़िस्त 97/07 [होली 2023]

 क़िस्त 97/07 [होली 2023]

1

होली के दिन आए

आए न बालमवा

मौसम भी तड़पाए


2

रंगों का है मौसम

खेल रहे कान्हा

राधा भी कहाँ है कम


3

है प्रेम का रंग ऐसा

रंग अलग कोई

चढ़ता ही नहीं वैसा


4

होली का मज़ा क्या है

रंग लगा मन पे

इस तन में रखा क्या है


5

गोरी हँस कर बोली

" मन ही नहीं भींगा

फिर कैसी यह होली


-आनन्द.पाठक-

इन्ही माहियों को डा0 अर्चना पाण्डेय  की आवाज़ में सुनें--


चन्द माहिए : क़िस्त 96/06

 क़िस्त 96/06

1

तुम पास जो आओ तो

प्यास मेरी देखो

खुल कर जो पिलाओ तो


2

कब प्यास बुझी सब की

नदियाँ प्यासी हैं

प्यासा है समन्दर भी


3-

इक बार ही नाम लिया

नाम तेरा लेकर

जग ने बदनाम किया


4

मैं कैसे कह पाता

छू देती  गर तुम

तन और महक जाता


5

मौसम महका महका

रंग लगा देना

मन है बहका बहका


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 312[77इ] : चिराग़-ए-इल्म जिसका हो --

 ग़ज़ल 312


1222---1222---1222---1222


चिराग़-ए-इल्म जिसका हो, सही रस्ता दिखाता है

जहाँ होता वहीं से ख़ुद पता अपना बताता  है


शजर आँगन में, जंगल में कि मन्दिर हो कि मसज़िद मे

जो तपता ख़ुद मगर औरों पे वो छाया लुटाता है


समन्दर है तो क़तरा है, न हो क़तरा समन्दर क्या

ये रिश्ता दिल हमेशा ही निभाया है निभाता है


नज़र आता नहीं फिर भी तसव्वुर में है वह रहता

बहस मैं क्या करूँ इस पर नज़र आता, न आता है


हवेली माल-ओ-ज़र, इशरत जो जीवन भर जुटाते हैं

यही सब छोड़ कर जाते, कभी जब वह बुलाता है


इनायत हो अगर उनकी  तो दर्या रास्ता दे दे

करम उनका भला इन्साँ कहाँ कब जान पाता है


 जो संग-ए-आस्ताँ उनका हवा छूकर इधर आती 

मुकद्दस मान कर ’आनन’ ये अपना सर झुकाता है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शजर = पेड़

माल-ओ-ज़र इशरत = धन संपत्ति, ऐश्वर्य वैभव

संग-ए-आस्ताँ  = चौखट

मुक़द्दस =पवित्र


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 311[76इ] :दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

 1222---1222---1222--122


एक ग़ज़ल 311 [76इ]


दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

जो जुमले घिस चुके क्यों बारहा रटवा रहे हो


अकेले तो नहीं तुम ही जो लाए थे उजाले

यही इक बात हर मौके पे क्यों दुहरा रहे हो


दिखा कर ख़ौफ़ का  मंज़र जो लूटे हैं चमन को

उन्हीं को आज पलकों पर बिठाए जा रहे हो


अगर शामिल नहीं थे तुम गुजस्ता साजिशों में

नही है सच अगर तो किस लिए  घबरा रहे हो ?


सबूतों के लिए तुम बेसबब हो क्यों परेशाँ

खड़ा सच सामने जब है तो क्या झुठला रहे हो


ये मिट्टी का बदन है ख़ाक में मिलना है इक दिन

ये इशरत चार दिन की है तो क्यों इतरा रहे हो


तुम्हारी कैफ़ियत ’आनन’ यही है तो कहेँ क्या  

जहाँ पत्थर दिखा बस सर झुकाते जा रहे हो


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 310[75इ] : हमें कब से वह शिद्दत से


ग़ज़ल 310 [75इ]

1222---1222---1222--122


हमे कब से वो शिद्दत से यही बतला रहा है

लहू के रंग कितने हैं  हमें समझा  रहा है


उसे भाता नहीं सुख चैन मेरी बस्तियों का

हवा दे कर बुझे शोलों को वो भड़का रहा है


फ़रिश्ता बन के उतरेगा न कोई आसमाँ से

बचे हैं जो उन्हें सूली चढ़ाया  जा रहा है


जो बाँटी 'रेवड़ी' उसने, दिखे बस लोग अपने

ज़माने को वह असली रंग अब दिखला रहा है


वो कर के दरजनो वादे हुआ सत्ता पे काबिज़

निभाने की जो पूछी बात तो हकला रहा है ।


इधर पानी भरा बादल तो आता है यक़ीनन

पता चलता नहीं पानी किधर बरसा रहा है


वो मीठी बात करता सामने हँस हँस कर ’आनन’

पस-ए-पर्दा वो टेढ़ी चाल चलता जा रहा है


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 309 [74इ] : अवाम जो भी सुनाए उसे सुना करिए

 ग़ज़ल 309


1212---1122--1212--22


अवाम जो भी सुनाए उसे सुना करिए

हवा का रुख भी ज़रा देखते रहा करिए


हुजूम आ गया सड़कों पे तख़्तियाँ लेकर

कभी तो हर्फ़-ए-इबारत जरा पढ़ा करिए


हर एक बात मेरी फूँक कर उड़ा देना

हुजूर दर्द सलीक़े से तो सुना करिए


ज़ुबान आप की है आप को मुबारक हो

जलील-ओ-ख्वार तो कम से न कम किया करिए


तमाशबीन ही बन कर न देखिए मंज़र

जनाब वक़्त ज़रूरत पे तो उठा करिए


चला किए है अभी तक किसी के पैरों से

उतर के पाँव पे अपने, कभी चला करिए


सही है बात बुरा मानना नहीं ’आनन’

बँधी हो आँख पे पट्टी, किसी का क्या करिए


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 308[73 इ] : इश्क़ क्या है, दो दिलों की बस्तगी है


ग़ज़ल 308

2122---2122---2122


इश्क़ क्या है? दो दिलों की बस्तगी है 

एक ने’मत है , खुदा की बंदगी  है


राह-ए-उलफ़त का सफ़र क्या तय करेगा

सोच में ही जब तेरी आलूदगी है


इश्क़ कब अंजाम तक पहुँचा हमारा

इक अधूरी सी कहानी ज़िंदगी है


लोग हैं खुशबख़्त जिनको प्यार हासिल

चन्द लोगों के लिए यह दिल्लगी है


आप का मैं मुन्तज़िर जब से हुआ हूँ

एक मैं हूँ इक मेरी शाइस्तगी है


दूसरा चेहरा नज़र आता नहीं अब

जब से मेरे दिल से उनकॊ लौ लगी है


आप आनन को भले समझे न समझें

दिल में मेरे आज भी पाकीजगी है ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

बस्तगी = लगाव खिंचाव

ने’मत = ईश्वरी कूपा

आलूदगी = खोट, मिलावट,अपवित्रता

मुन्तज़िर = प्रतीक्षक इन्तज़ार करने वाला

शाइस्तगी = शिष्टता शराफ़त

पाकीजगी =पवित्रता


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 307[72इ] : बात मे उसके रही कब पुख्तगी है

 ग़ज़ल 307

2122--2122--2122

 

बात में उसकी  रही कब पुख्तगी  है

सोच में साजिश भरी है, तीरगी है


एक चेहरे पर कई चेहरे लगाता

पर चुनावों में भुनाता सादगी है


लग रही है कुछ निज़ामत में कमी क्यों

लोग प्यासे हैं लबों पर तिश्नगी है


घर के आँगन में उठीं दीवार इतनी

मर चुकी आँखों की अब वाबस्तगी है


रोशनी देखी नहीं जिसने अभी तक

जुगनुओं की रोशनी अच्छी लगी है


चन्द लोगों के यहाँ जश्न-ए-चिरागाँ

बस्तियों में दूर तक बेचारगी है


भीड़ में क्या ढूँढते रहते हो ’आनन’

अब न रिश्तों में रही वो ताजगी है ।


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 

पुख्तगी = दृढ़ता, स्थायित्व

निज़ामत = शासन व्यवस्था

वाबस्तगी = लगाव खिंचाव

जश्न-ए-चिरागाँ = रोशनी का त्यौहार

तीरगी = अँधेरा



बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 306[71इ] : मंज़िल पे है नज़र मुझे काँटों का डर नहीं

 ग़ज़ल 306 

221---2121--1221---212


मंज़िल पे  है नज़र, मुझे काँटों का डर नहीं

छाले पड़े हैं पाँव में कहता मगर नही


पत्थर के देवता से ही अब कुछ उमीद है

गो, आँसुओं का उस पे भी होता असर नहीं


यह तो मकान और किसी का मकीन तू

दो दिन का है क़याम यहाँ, तेरा घर नहीं


ठोकर लगा के आप ने दिल तोड़ क्यों दिया

 क्या दिल गरीब का अभी है मोतबर नहीं ?

 

गो, हादिसे तमाम तेरे सामने हुए

उस पर दलील यह कि तुझे कुछ ख़बर नहीं 


दो-चार लाइनों में सुनाऊँ तो किस तरह

ये दास्तान ज़िंदगी का मुख़्तसर नहीं


जब इन्तखाब तुमको निगाहों ने कर लिया”

आनन’ को दूसरा कोई आता नज़र नहीं


-आनन्द.पाठक-

शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 305[70इ] : निज़ाम आया नया है

 ग़ज़ल 305 [ 70इ]


1222---122


निज़ाम आया नया है

बयाँ सच का मना है


उधर आँसू गिरे हैं

इधर पत्थर गला है


अगर तुम चुप रहोगे

तो फिर मालिक ख़ुदा है


अमीर-ए-कारवाँ बन

हमे फिर छल रहा है


मेरी ख़ामोशियों का

किसी को क्या पता है


दिया नन्हा सही, पर

अँधेरों से लड़ा  है


सवालों के मुक़ाबिल

इधर ’आनन’ खड़ा है 


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 304 [69इ] : सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता

 ग़ज़ल 304 [69इ]

1212---1122---1212---22


सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता 

हबीब आप सा कोई अगर मिला होता


निगाह आप ने मुझसे न फ़ेर लॊ होती

हक़ीर आप के कुछ काम आ गया होता


इधर उधर न भटकते तेरी तलाश में हम

तवाफ़ दिल का कभी हम ने कर लिया होता


अना की क़ैद से बाहर कभी नहीं निकला

अगर वो शख़्स निकलता तो कुछ भला होता


सज़ा गुनाह की मेरे न कुछ मिली होती

बयान आप ने ख़ारिज़ न कर दिया होता


जो दिल में आप की तसवीर हम नहीं रखते

ख़ुमार प्यार का अबतक उतर गया होता


हर एक दर पे झुकाता नहीं है सर ’आनन’

दयार आप का होता तो सर झुका होता ।


-आनन्द.पाठक-


तवाफ़ = परिक्र्मा करना




बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 303 [68इ] :वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता

 ग़ज़ल 303 [68इ]

1212---1122---1212---22

वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता

हसीन ख्वाब में गर वो न मुब्तिला होता


चिराग़ दूर से जलता हुआ नज़र आता-

जो उसकी आँख पे परदा नहीं पड़ा होता


तुम्हारे हाथ में तस्बीह और ख़ंज़र भी

समझ में काश! यह पहले ही आ गया होता


क़लम, ज़ुबान नहीं आप की बिकी होती

ज़मीर आप का ज़िंदा अगर रहा होता ।


किसी के पाँव से चलता रहा है वो अकसर

मज़ा तो तब कि वह ख़ुद पाँव से चला होता


तमाम दर्द ज़माने का तुम समेटे हो

कभी ज़माने से अपना भी ग़म कहा होता


सितम शिआर भी सौ बार सोचता ’आनन’

सितम के वक़्त ही पहले जो उठ खड़ा होता


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 302 [ 67इ] : इधर दिखती नहीं अब तुम [वैलन्टाइन 2023 - हास्य ]

 "वैलेन्टाइन डे पर-[2023]


हास्य ग़ज़ल 302 [ 67इ]


1222---1222---1222---1222


इधर दिखती नहीं अब तुम, किधर रहती हो तुम जानम !

चलो मिल कर मनाते हैं ’ वेलनटाइन’ दिवस हमदम !


दिया जो हार पिछली बार पीतल का बना निकला

दिला दो हार  हीरे का नहीं दस लाख से हो कम


खड़े हैं प्यार के दुश्मन लगा लेना ज़रा ’हेलमेट’

मरम्मत कर न दें सर का "पुलिसवाले" मेरे रुस्तम ! 


ज़माने का नहीं है डर करेगा क्या पुलिसवाला

अगर तुम पास मेरे हो नहीं दुनिया का है फिर ग़म


बता देती हूँ मैं पहले , नहीं जाना तुम्हारे संग

कि बस ’फ़ुचका’ खिला कर तुम मना लेते हो ये मौसम


इधर क्या सोच कर आया कि है यह खेल बच्चों का !

अरे ! चल हट निकल टकले, नहीं ’पाकिट’ में तेरे दम


घुमाऊँगा , खिलाऊँगा,  सलीमा भी दिखाऊँगा, 

अब ’आनन’ का ये वादा है, चली आ ,ओ मेरी हमदम !


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 301 [ 66इ] तुम्हारे हुस्न का जल्वा

 ग़ज़ल 301[66इ]


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे हुस्न का जल्वा किसी को जब दिखा होगा

ख़ुमारी आजतक होगी नहीं उतरा नशा  होगा


ख़यालों में किसी के तुम कभी जो आ गए होगे

भला वह शख़्स अपने आप में फिर कब रहा होगा


तुम्हे हूँ चाहता दिल से. फ़ना होने की हद तक मैं

न दुनिया को ख़बर होगी, तुम्हे भी क्या पता होगा


यकीं करना तुम्हारा राज़ मेरे साथ जाएगा 

जमाने से दबा है यह जमाने तक दबा होगा


कभी तुम लौट कर आना समझ लेना करिश्मा क्या

तुम्हारा नाम रट रट कर , कोई ज़िंदा रहा होगा


अगर ढूढोंगे शिद्दत से तो मिल ही जाएगा वो भी

तो मकसद ज़िंदगी का और अपना ख़ुशनुमा होगा


निगाह-ए-शौक़ से ढूँढा इसी उम्मीद से ’आनन’

कभी दैर-ओ-हरम में एक दिन तो सामना होगा


-आनन्द.पाठक--


शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 300 [65इ] : आँधियों से तुम अगर यूँ ही डरोगे

 ग़ज़ल 300 [65इ]

2122--2122--2122


आँधियों से तुम अगर यूँ ही डरोगे

किस तरह लेकर दिया आगे बढ़ोगे


मंज़िले तो ख़ुद नहीं आतीं है चल कर

नीद से तुम कब उठोगे कब चलोगे ?


वक़्त का होता अलग ही फ़ैसला है

कर्म जैसा तुम करोगे, तुम भरोगे


 कब तलक उड़ते रहोगे आसमाँ में

तुम ज़मीं की बात आकर कब करोगे?


झूठ ही जब बोलना दिन रात तुमको

सच की बातें सुन के भी तुम क्या करोगे


कब तलक पानी पे खींचोगे लकीरे

और खुद विरदावली गाते रहोगे


हक़ बयानी पर यहाँ पहरे लगे हैं

अब नहीं ’आनन’ तो फिर तुम कब उठोगे ?


-आनन्द.पाठक-



बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 299 [64इ] : ये अपना दिल है दिवाना (होली)

 ग़ज़ल 299 [64इ]


1222--1222--1222--1222

एक ग़ज़ल : होली पर

ये दिल अपना है दीवाना, हुआ दिलदार होली मे

चढ़ी है भाँग की मस्ती, लुटाए प्यार होली में


अभी तक आप से होती रही हैं 'फोन' पर बातें

यही चाहत हमारी है कि हो दीदार होली में


तुम्हे भी तो पता होगा, जवाँ दिल की है हसरत क्या.

खुला रखना सनम इस बार घर का द्वार होली में ।


उधर हैं राधिका रूठी, न खेलेंगी वो कान्हा से

इधर कान्हा मनाते हैं,  करें मनुहार होली में


जब आता मौसिम-ए-गुल तो कली लेती है अँगड़ाई.

बिना छेड़े ही बज उठते हॄदय के तार होली में ।


न रंगों का कोई मजहब, तो रंगों पर सियासत क्यों ,

सदा रंग-ए-मुहब्बत ही लगाना यार होली में।


न रखने हाथ देती हो झटक देती हो क्यो हँसकर ,

जवानों से जवाँ लगते हैं बूढ़े यार होली में ।


 नहीं छोटा-बड़ा कोई हुआ करता कभी ’आनन’

यही पैगाम देना है समन्दर पार,  होली में ।


-आनन्द पाठक-

सोमवार, 30 जनवरी 2023

चन्द माहिए : क़िस्त 95/05

 क़िस्त 95/05 

1

सपनों के शीश महल

टूट ही जाना है

सच, आज नहीं तो कल


2

चलने की तैय्यारी

आ मेरी माहिया

कुछ और निभा यारी


3

मेरी भी गली में आ

ओ मेरी माहिया !

 बस एक झलक दिखला


4

कांटों से भरी राहें

तेरे दर की हों 

फिर भी तुमको चाहें


5

आसान नहीं होतीं

प्रेम नगर वाली

गलियाँ सँकरी होतीं


चन्द माहिए : क़िस्त 94/04

 क़िस्त 94/04


1

कुछ यादें रह जाती

सूनी आँखों में

आँसू बन कर आतीं


2

कोई मिल जाता है

राह-ए-मुहब्बत में 

फिर क्यों खो जाता है?


3

कलियाँ सहमी सहमी

माली की नज़रें

दिखतीं बहकी बहकी


4

कुछ अपनी सीमाएँ

मर्यादा की हैं

हम भूल नहीं जाएँ


5

मैं इक प्यासा राही

मिलना है मुझको

उस पार मेरा माही 


चन्द माहिए : क़िस्त 93/03

 


क़िस्त 93/ 03


1

दुनिया की छोड़ो तुम

क्या करना इसका

दिल से दिल जोड़ो तुम


2

ख़्वाबों में मिला करना

लौट के आऊँगा

इक दीप जला रखना


3

अब क्या मजबूरी है

और सुना माहिया

तेरी बात अधूरी है


4

जानी पहचानी सी

लगती है तेरी

कुछ मेरी कहानी सी


5

बाग़ों के बहारों का

रंग चढ़ा मुझ पर

कलियों के नज़ारों का


चन्द माहिए : क़िस्त 92/02

 क़िस्त 92/ 02


1

अब और न कर बातें

झेल चुकी हूँ मैं

हर बार तेरी घातें ।


2

टुकड़ा टुकड़ा जीवन

जोड़ के जीते हैं

जीने का है बन्धन


3

गो, सुनने में तीखे

पैसों के आगे

सब रिश्ते हैं फीके


4

आदाब मुहब्बत के

कुछ तो निभाते तुम

अन्दाज़ नज़ाक़त के


5

कैसी थी मुलाकातें

कुछ तो बता, गुइयाँ !

क्या क्या थी हुई बातें


चन्द माहिए: क़िस्त 91/01

 क़िस्त 91 /01

1

सावन के महीने में

आग लगी कैसी

गोरी के सीने में 


2

भूले से आ जाते

सावन में साजन

झूले पे झुला जाते


3

सावन की फुहारों से

जलता है तन-मन

जैसे अंगारों से


4

रुक ! सुन तो ज़रा बादल !

कैसे है प्रियतम?

यह पूछ रही पायल 


5

सावन की हरियाली

मस्त हुआ मौसम

कलियाँ भी मतवाली


रविवार, 29 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ 125/12

 अनुभूतियाँ 125/क़िस्त 12


497

जीवन है सौग़ात किसी की

जब तक जीना, हँस कर जीना

बात बात पर रोना क्या है

हर पल आँसू क्यों है पीना


498

देख सुबह की नव किरणों को

आशाएँ लेकर आती हैं

शीतल मन्द सुगन्ध हवाएँ

नई चेतना भर जाती हैं


499

कण कण में है झलक उसी की

अगर देखना चाहो जो तुम

वरना सब बेकार की बातें

नहीं समझना चाहो जो तुम


500

रोज़ शाम ढलते ही छत पर

एक दिया रख आ जाती हूं~

लौटोगे तुम इसी राह से

सोच सोच कर हुलसाती हूं~


अनुभूतियाँ 124/11

 क़िस्त 124/क़िस्त 11

 

 493

आग लगाने वाली बातें

बार बार दुहराती क्यों हो

ला हासिल था तब भी,अब भी 

माजी में फिर जाती क्यों  हो 

 

494

मिलना जुड़ना और बिछ्ड़ना

यह जीवन का क्रम है सुमुखी !

सदा बहारों का मौसम हो-

एक कल्पना है भ्रम है सुमुखी !

 

495

मंज़िल मिलना या ना मिलना

यह तुम पर निर्भर करता है

राह कहाँ इसमे दोषी है-

जो जैसा करता, भरता है

 

496

बार बार यह कहते रहना

नहीं ज़रूरत तुम्हे किसी की

जिसको तुम ने ठुकराया हो

कहीं ज़रूरत पड़े उसी की