ग़ज़ल 303 [68इ]
1212---1122---1212---22
वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता
हसीन ख्वाब में गर वो न मुब्तिला होता
चिराग़ दूर से जलता हुआ नज़र आता-
जो उसकी आँख पे परदा चढ़ा नहीं होता
तुम्हारे हाथ में तस्बीह और ख़ंज़र भी
समझ में काश! यह पहले ही आ गया होता
सितम शिआर भी सौ बार सोचता तुझको
अगर तू वक़्त पे जो उठ खड़ा हुआ होता
तमाम दर्द ज़माने का तुम समेटे हो
कभी ज़माने से अपना भी ग़म कहा होता
क़लम, ज़ुबान नहीं आप की बिकी होती
ज़मीर आप का ज़िंदा अगर रहा होता ।
इधर उधर न भटकते तेरी तलाश में हम
तवाफ़ दिल का कभी हम ने जो किया होता
अना की क़ैद से बाहर वो जो निकल आता
सफ़र हयात का उसका भी खुशनुमा होता
हर एक दर पे झुकाता नहीं है सर ’आनन’
दयार आप का होता तो सर झुका होता ।
-आनन्द.पाठक-
तस्बीह = माला .सुमिरनी जो हाथ में लेकर फेरते हैं
तवाफ़ = परिक्रमा