ग़ज़ल 157
मूल बह्र 21--121--121--122 =16
सारी ख़ुशियाँ इश्क़-ए-कामिल
होती हैं कब किसको हासिल
जब से तुम हमराह हुए हो
साथ हमारे खुद ही मंज़िल
और तलब क्या होगी मुझको
होंगी अब क्या राहें मुश्किल
प्यार तुम्हारा ,मुझ पे इनायत
वरना यह दिल था किस क़ाबिल
इश्क़ में डूबा पार हुआ वो
फिर क्या दर्या फिर क्या साहिल
शेख ! तुम्हारी बातें कुछ कुछ
क्यों लगती रहतीं है बातिल
लौट के आजा ”आनन’ अब तो
किस दुनिया में रहता गाफ़िल
-आनन्द.पाठक-