मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

ग़ज़ल 361[37F] : सीने में है जो आग--

ग़ज़ल 361[37F]

221---2121---1221---212


सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?

कैसे मैं मान लूँ कि तुझे  कुछ ख़बर नहीं  ।


कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,

अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर  नहीं ।


वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर

कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।


गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,

गुलचीं  की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।


उनकी इनायतों का अगर सिलसिला रहा

कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।


डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर

यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही


तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है

’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

शरर = चिंगारी
गुंचा = कलियाँ
वज्द  में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद 

सं 29-06-24


बुधवार, 17 अप्रैल 2024

दोहे 14 : सामान्य

दोहे 14

'जग ही सच"- माना किया, कितना मै अनजान ।
वह तो थीं परछाइयाँ , हुआ बाद में ज्ञान ।।

वक्त वक्त की बात है, जब भी बदले चाल।
कल के धन्ना सेठ भी, आज हुए कंगाल ।।

बडे लोग सुनते कहाँ, मत कर इतनी आस ।
अपनी बाहों पर सदा,  करता रह विश्वास ।।

राहों में काँटे पड़े, कभी न बोले शूल ।
लेकिन खुशबू बोलती, किधर खिले हैं फूल ।।

जो भी तेरा धर्म हो, जो भी तेरी सोच ।
मानवता के काम में, मत कर तू संकोच ।।

शीश महल वाले खड़े, उन लोगों के साथ ।
साजिश में शामिल रहे, लेकर पत्थर हाथ ।।

-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

दोहे 13: चुनावी दोहे


दोहे 13 : चुनावी दोहे

साईं इतना दीजिए, दस पीढ़ी खा पाय ।
मै तो भूखा ना रहूँ,  देश भले मर जाय ॥

लालटेन ले ढूंढते,  गली गली में वोट ।
अपने दल को छोड़ कर,सभी दलों में खोट ॥

घोटाले की नाव में, सत्ता की पतवार ।
कोर्ट कचहरी क्या करे, कर ले नदिया पार ॥

राजनीति के खेल में,  क्या अधर्म क्या धर्म ।
नेता सफलीभूत वही, कर ले सभी कुकर्म ॥

एक साँस  में फूँक दे , हवा ठंड औ'  गर्म ।
असली नेता है वही , जो समझे यह मर्म ॥

गमले उगे गुलाब भी , देते हैं उपदेश ।
बूढ़े बरगद हैं खड़े , शीश झुका दरवेश ॥

क्या जाने हम होत क्या, गठबंधन अनुबंध ।
नेता जी से पूछिए,  हम तो सेवक अंध ॥

-आनन्द.पाठक-

दोहे 12 : चुनावी दोहे

दोहे 12: चुनावी दोहे


निर्दल बाँधे राखिए , डोरे उन पर डार ।
ना जाने किस हौद में, दें अपना मुँह मार ॥

छल कपट और मोह मद, नेता की पहचान ।
साँपन काटे बच सके , इनसे बचै न प्रान ।।

उड़न खटोला पे उड़ें, देख ग़रीबी रोय ।
जनता छप्पर पे टँगी, दर्द न पूछै कोय ।।

पीड़ित शोषित हो कहीं, आँसू पोछैं धाय ।
अगले किसी चुनाव में, वोट खिसक न जाय ॥

 एक टीस मन की यही, करती है बेचैन ।
मंत्री की कुर्सी मिले, जी में आवै चैन॥

शब्दों की बाजीगरी, नेता जी का खेल ।
वैचारिक प्रतिबद्धता, हुई हाथ की मैल ॥

देश प्रेम सेवा मदद , कुरसी के उपनाम ।
जब चुनाव जीते नहीं, अब क्या इनका काम ॥

-आनन्द.पाठक-


दोहे 11 : चुनावी दोहे



दोहे 11 चुनावी दोहे

रथयात्रा ने कर दिए, गाँव शहर में पाँक ।
कमल उगाने की कशिश,दिल्ली पर है झाँक॥

घोटाले उगने लगे, यत्र तत्र चहुँ ओर ।
चार कदम चलने लगे वह तिहाड़ की ओर॥

नित वादों के जाल बुन, रहें मछलियाँ फ़ाँस ।
जनता भी चालाक है ,नहीं फ़टकती पास ॥

 धवल वस्त्र अब देख कर, बगुला भी शरमाय ।
नेता जी ध्यानस्थ हैं ,’लछमिनियाँ’ मिल जाय ॥

बुधना खुश ह्वै नाचता , छेड़े लम्बी तान ।
मेरे गुरबत से बने, नेता कई महान ॥

गमले उगे गुलाब भी, ठोंक रहे है ताल ।
बरगद वाले सर झुका, हाथ लिए जयमाल ॥

कल ही जो पैदा हुए, आज ’युवा-सम्राट ।
तमग़ा ऐसे दे रहे , जैसे  बन्दर बाँट ॥

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

अनुभूतियाँ 139/26

 अनुभूतियाँ  139 /26


:1:

" जब तक अन्तिम साँस रहेगी
सदा चलूँगी छाया बन कर "
मुँहदेखी थी या वह सच था
सोचा करता हूँ  मैं अकसर ।

2

इधर खड़े या उधर खड़े हो
किधर खडे हो साफ बताओ
हवा जिधर की जैसी देखी
पीठ उधर ही मत कर जाओ

3
आना ही जब नहीं तुम्हें था
फिर क्यो झूटी कसमें खाई?
सुनना ही जब नहीं तुम्हें कुछ
क्या कहती मेरी तनहाई 

4

हार जीत की बात न होती
इश्क़ इबादत. प्रेम समर्पण ।
कैसे साफ़ नज़र छवि आए
मन का हो जब धुँधला दर्पण ।


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 8 अप्रैल 2024

अनुभूतियाँ 138/25

अनुभूतियाँ 138/25

:1:

इन्क़िलाब करने निकले थे

लाने को थे नई निज़ामत
सीधे जा पहुँचे तिहाड़ मे 
बैठ करेंगे वहीं  सियासत ।

:2:
लिए हाथ में काठ की हांडी 
कितनी बार चढ़ाओगे तुम
इसकी टोपी उसके सर पर
कबतक रखते जाओगे तुम ?

:3:
झूठ बोलने की सीमा क्या
उसको तो मालूम नहीं है ।
जितना भोला चेहरा दिखता
उतना वह मासूम नहीं है ।

:4:
कभी आप को देख रहा हूँ
कभी देखता हूँ अपने को
क्या न उमीदें रखीं आप से
जोड़ रहा टूटे सपने को ।

- आनन्द पाठक-

रविवार, 7 अप्रैल 2024

अनुभूतियाँ 137/24

अनुभूतियाँ 137/24

:1:
रहने दो ये मीठी बातें
झूठ दिखावा झूठे वादे
क्या मै समझ नहीं सकता हूँ
क्या घातें , क्या नेक इरादे

2
हाल यही जो अगर रहा तो
छूटेंगे सब संगी साथी ।
तुम्ही अकेले करती रहना
सुबह-शाम की दीया-बाती ।

:3:
परछाई तो परछाई है
देख सकूँ पर हाथ न आए
एक भरम है जग मिथ्या है
मगर समझ में बात न आए ।

;4;
मन उचटा उचटा रहता है
जाने क्यों ? -यह समझ न पाऊँ
जिसकी सुधियों में खोया हूँ
कैसे मैं उसको बतलाऊँ

-आनन्द.पाठक-



अनुभूतियाँ 136/23 : राम लला पर [ भाग-2]

अनुभूतियां~136/23 : रामलला पर [ भाग-2]  [ भाग -1 देखें 131/18 ]

 :1:

मंदिर का हर पत्थर पावन
प्रांगण का हर रज कण चंदन
हाथ जोड़ कर शीश झुका कर
राम लला का है अभिनंदन


:2:

हो जाए जब सोच तुम्हारी

राग द्वेष मद मोह से मैली

राम कथा में सब पाओगे

जीवन के जीने की शैली ।


:3: 

एक बार प्रभु ऐसा कर दो

अन्तर्मन में ज्योति जगा दो

काम क्रोध मद मोह  तमिस्रा

मन की माया दूर भगा दो ।


:4:

श्याम वर्ण मृदु हास अधर पर

अनुपम छवि पर हूँ बलिहारी

कृपा करो हे राम सियापति

आया हूँ प्रभु ! शरण तिहारी 


-आनन्द पाठक-

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

अनुभूतियाँ 135/22

अनुभूतिया 135/22

:1:
एक भरोसा टूट गया जो
बाक़ी क्या फिर रह जाएगा
आँखों में जो ख़्वाब सजे है
पल भर में सब बह जाएगा

:2:
जाने की तुम सोच रही हो
जाओ ,कोई बात नहीं फिर
कभी लौट कर आने का  हो
खड़ा मिलूँगा तुम्हें यहीं फिर 

:3:
बिला सबब जब करम तुम्हारा
होता है, दिल घबराता है
मीठी मीठी बातें सुन सुन
जाने क्यों दिल डर जाता है

 :4:
शब्दों के आडंबर से कब
सत्य छुपा करता है जग में ।
बहुत दूर तक झूठ न चलता
गिर जाता है पग दो पग में ।

[ 1 और 2 ---139/26 के साथ ले लिया गया है फ़ेसबुक के लिए\

बिला सबब = बिना कारण

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

अनुभूतियाँ 134/21

 अनुभूतियाँ 134/21


:1:

मन का क्या है उड़ता रहता

एक जगह पर कब ठहरा है

लाख लगाऊँ बंदिश इस पर

पगला कब मेरी सुनता  है ।

;2:

पूजन अर्चन में जब बैठूँ

इधर उधर मन भागे फिरता

रिचा मंत्र बस है जिह्वा पर

जाने कहाँ कहाँ मन रमता 

:3:

उचटे मन की दवा न कोई

उजडी उजडी दुनिया लगती

खुशियाँ जैसे हुई पराई

आँखों मे बस पीड़ा  बसती

:4:

एक दिखावा सा लगता है

हाल पूछना -"जी कैसे हो?

बिना सुने उत्तर चल देना

अर्थहीन लगता जैसे हो ।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

क्षणिका 08

 क्षणिका 08

सच जब उठ कर ---

 सत्य ढूँढना, माना मुश्किल
झूठ फूस की ढेरी में
धुआँ धुआँ फैला देते हो
सच है तो फिर सच उठ्ठेगा
भले उठे वह देरी से ।

  झूठ मूठ के पायों पर
खड़ा तुम्हारा सिंहासन
आज नहीं तो कल डोलेगा
सच  उठ कर जब सच बोलेगा ।

-आनन्द पाठक-

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

क्षणिका 07

 क्षणिका 07

जब बचपन मे
रंग बिरंगी शोख तितलियाँ
बैठा करती थी फूलों पर
भागा करता था मै
पीछे पीछे 
जब भी उनको छूना चाहा
उड़ जाती थीं इतरा कर
इठला कर, मुझे थका कर ।

समय कहाँ रुकता जीवन में
ही तितलियाँ बैठ गईं अब
अपने अपने फूलों पर
पास से गुज़रूँ, पूछे हँस कर
"अब घुटनों का दर्द तुम्हारा, कैसा कविवर" ?


-आनन्द पाठक-

क्षणिका 06

 क्षणिका 06


सूरज निकले उससे पहले

या डूबे तो बाद में उसके

रोज़ हज़ारों क़दम निकलते

कुआँ खोदते पानी पीते

तिल तिल कर हैं मरते ,जीते

सबकी अपनी अलग व्यथा है

महानगर की यही कथा है ।

-आनन्द.पाठक-