:1
ये रिश्ते खत्म नहीं होते
द्शकों से इसे सँभाला है
ख़ामोश है साहिल एक तरफ़ ।
मेरे बारे में जो समझा
:1
ये रिश्ते खत्म नहीं होते
ग़ज़ल 405 [61-फ़]
122---122---122---122
नहीं अब रही गुफ़्तगू में लताफत
वो करने लगा दोस्ती में सियासत
वो फोड़ा करे ठीकरा और के सर
उसे ख़ास हासिल है इसमें महारत
शजर छोड़ कर जो गए हैं परिंदे
नहीं अब रही लौट आने की आदत
जहाँ सीम-ओ-ज़र के दिखे चन्द टुकड़े
वहीं बेंच देगा वो अपनी शराफ़त ।
भले आँधियों ने गिराया हमे हो
हमारी जड़े है अभी तक सलामत ।
चराग़ों में जितनी बची रोशनी है
वही हौसले हैं वही मेरी ताक़त ।
यही बात होती न ’आनन’ गवारा
अमानत में करता है जब वह ख़यानत ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
सीम-ओ-ज़र = धन-दौलत, माल-पानी
अमानत में ख़यानत = विश्वासघात
दोहे 19: सावनी दोहे
काँवर लेकर चल पड़े, मन में भर विश्वास ।
महादेव के नाम से, गूँजे सावन मास ॥
पावन घट मे जल लिए, करने को अभिषेक ।
भक्ति भाव अतिरेक में , रखें भावना नेक ॥
गूंज रहा है बोल-बम, एक यही संकल्प ।
महादेव के नाम का, दूजा नहीं विकल्प ॥
बाबा भोले नाथ से, विनती मेरी खास ।
जब तक मेरी साँस हो,दर्शन की हो प्यास ॥
बाबा भोले नाथ का, सदा करें गुणगान ।
मन कल्मष ना हो कभी, सदा रहे यह ध्यान ॥
जा पर किरपा आप की, भवसागर हो पार ।
करियो शम्भू नाथ जी , मेरो भी उद्धार ॥ -6
चरण वंदना आप की, हे शिव जी महराज ।
कॄपा करें आशीष दें , पूरे होवे काज ॥ -7
सोमनाथ के द्वार पर, शरणागत 'आनन्द ।
ना जानू कैसे करूँ, स्तुति वाचन छन्द ।। -8
शिव जी से क्या माँगना , जाने मेरा हाल ।
बस इतना ही दें प्र्भू , मन ना हो वाचाल ॥ -9
ग़ज़ल 404 [60-फ़]
2122---1212---22
बात बेपर की तुम उड़ाते हो
क्या हक़ीक़त है भूल जाते हो ।
आदमी हो कोई खुदा तो नहीं
धौंस किस पर किसे दिखाते हो ।
झूठ ही झूठ का तमाशा है
बारहा सच उसे बताते हो ।
खुद की जानिब भी देख लेते तुम
उँगलियाँ जब कभी उठाते हो ।
मंज़िलों की तुम्हें ख़बर ही नही
राहबर खुद को तुम बताते हो
हम चिरागाँ हैं हौसले वाले
इन हवाओं से क्या डराते हो
वो फ़रिश्ता तो है नहीं ’आनन’
बात क्यों उसकी मान जाते हो
-आनन्द.पाठक--
ग़ज़ल 403 [ 59-फ़]
2122---1212---22
इश्क़ की एक ही कहानी है
रंज़-ओ-ग़म की ये तर्जुमानी है ।
उम्र भर का ये इक तकाज़ा है,
चन्द लम्हों की शादमानी है ।
प्यार करना है आ गले लग जा
चार दिन की ये जिंदगानी है ।
रंग-ए-दुनिया अगर बदलना हो
लौ मुहब्बत की इक जगानी है ।
ज़िंदगी ख़ुशनुमा नज़र आती
इश्क़ ही की ये मेहरबानी है ।
प्यार कतरा में इक समन्दर है
बात यह रोज़ क्या बतानी है ।
जानना राह-ए- इश्क़ क्या ’आनन’?
जानता हूँ कि राह-ए-फ़ानी है ।
-आनन्द पाठक--
कविता 21 : आया ऊँट पहाड़ के नीचे--
आया ऊँट पहाड़ के नीचे
देख रहा है अँखियाँ मीचे
मन ही मन कुछ सोचे
अयँ ?
मुझसे भी क्या कोई बड़ा ?
यहाँ सामने कौन खड़ा ?
ऐसा भी होता है क्या !
मुझसे कोई ऊँचा क्या !
जिसने देखी झाड - झाड़ियाँ
वह क्या समझे है पहाड़ क्या !
अपने कद का रोब दिखाता
अपना ही बस गाता जाता
क्या करता फिर एक आदमी
सिर्फ़ हवा में
दाँत भींच कर मुठ्ठी भींचे
आया ऊँट पहाड़ के नीचे
आया उँट पहाड़ के नीचे ।
-आनन्द.पाठक
कविता 20 : जाने क्यों ऐसा लगता है---
जाने क्यों ऐसा लगता है ?
उसने मुझे पुकारा होगा
जीवन की तरुणाई में, अँगड़ाई ले
दरपन कभी निहारा होगा
शरमा कर फ़िर, उसने मुझे पुकारा होगा ।
दिल कहता है
जाने क्यों ऐसा लगता है ?
-- --
कभी कभी वह तनहाई में
भरी नींद की गहराई में
देखा होगा कोई सपना
छूटा एक सहारा होगा, उसने मुझे पुकारा होगा
मन डरता है
जाने क्यों ऐसा लगता है ।
---
सारी दुनिया सोती रहती
लेकिन वह
रात रात भर जागा करता , तारे गिनता
टूटा एक सितारा होगा
फिर घबरा कर
उसने मुझे पुकारा होगा ।
जाने क्यों ऐसा लगता है ॥
-आनन्द.पाठक-
कविता 19 : जाने यह कैसा बंधन है--
जाने यह कैसा बंधन है
गुरु-शिष्य का
वर्तमान से ज्यों भविष्य का ।
रिश्ता पावन ऐसे जैसे
स्तुति वाचन-ॠचा मन्त्र का,
गीत गीत से -छ्न्द छन्द का,
फ़ूल फ़ूल से - गन्ध गन्ध का,
जैसे पानी का चंदन से,
भक्ति भावना का वंदन से,
शब्द भाव का--नदी नाव का,
बिन्दु-परिधि का, केन्द्र-वृत्त का,
जीवन-घट का और मृत्तिका,
दीप-स्नेह का और वर्तिका ।
बाहों का मधु आलिंगन से
एक अदृश्य -सा अनुबंधन है ।
जाने यह कैसा बंधन है ।
-आनन्द.पाठक--
ग़ज़ल 402 [ 59-अ ]
59-अ
221---2122 // 221--2122
हर दर्द नागहाँ हो, यह भी तो सच नहीं है
सब गम मिरा अयाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।
इलजाम जब है उन पर, कहते हैं वो, धुआँ है ,
बिन आग का धुआँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।
माखन न तुमने खाया, बस दूध के धुले हो
आदाब-ए-पासबाँ हो , यह भी तो सच नहीं है ।
आए जो हाशिए पर , कहते हो साजिशे हैं
कुछ भी न दरमियाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।
’दिल्ली’ में बारहा तुम, मजमा लगाते फिरते
तुम मिस्ल-ए-कारवाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।
काजल की कोठरी से, बेदाग़ कौन निकला ,
मासूम बेज़ुबाँ हो ,यह भी तो सच नहीं है ।
इतनी बड़ी तो हस्ती, ’आनन’ नहीं तुम्हारी,
दामान-ए-आसमाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।
-आनन्द.पाठक-
कविता 18 : कह न सका मैं---
कह न सका मैं
जो कहना था ।
मौन भाव से सब सहना था।
तुम ही कह दो।
शब्द अधर तक आते आते
ठहर गए थे।
अक्षर अक्षर बिखर गए थे।
आँखों में आँसू उभरे थे ।
पढ़ न सका मैं |
जो न लिखा था
तुम ही पढ़ दो।
कह न सकी जो तुम भी कह दो
कह न सका मैं , तुम ही सुन लो।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 401 [43-अ ]
1212---1122---1212---22
जो गीत दर्द के गाते नहीं , तो क्या करते
तमाम उम्र सुनाते नहीं , तो क्या करते ।
कड़े थे शर्त हमारी तो ज़िंदगी के मगर
उधार हम जो चुकाते नहीं, तो क्या करते !
हज़ार क़ैद थे आइद हमारे ख़्वाबों पर
हर एक ख़्वाब मिटाते नहीं, तो क्या करते।
उमीद थी कि वो आएँगे खुद बख़ुद चल कर
पयाम दे के बुलाते नहीं, तो क्या करते ।
तमाम लोग थे ईमाँ खरीदने निकले-
इमान अपना बचाते नहीं, तो क्या करते ।
शरीफ़ लोग भी बातिल के साथ साथ खड़े
अलम जो सच का उठाते नहीं, तो क्या करते ।
हर एक मोड़ पे नफ़रत की तीरगी ’आनन’
चिराग़-ए-इश्क़ जलाते नहीं, तो क्या करते ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
आइद थे = लागू थे
पयाम दे के = संदेश भेज कर
बातिल के साथ = झूठ के साथ
तीरगी = अँधेरा
अलम = झंडा
कविता 17
कल तुमने यह पूछा था
वह कौन थी ?
भाव मुखर थे, ग़ज़ल मौन थी ।
मेरी ग़ज़लों के शे’रों के
मिसरों में
चाहे वह अर्कान रहा हो
लफ्जों का औजान रहा हो
रुक्नो का गिरदान रहा हो
मक्ता था या मतला था
अक्षर अक्षर में
सिर्फ तुम्हारा रूप ढला था
मेरे भावों की छावों में
जो लड़की गुमसुम गुमसुम थी
वह तुम थी , हाँ वह तुम थी।
’अइसा तुमने काहे पूछा ?
तुम्हरा मन में ई का सूझा ?’
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 400 [42-अ]
21---121---121--122 // 21---121--121--122
खोटे सिक्के हाथों में ले, मोल लगाने लोग खड़े है
घड़ियाली आँसू से पूरित, दर्द जताने लोग खड़े हैं ।
आज धुँआ फिर से उठ्ठेगा, झुग्गी झोपड़ पट्टी से ही
कल जैसा फिर दुहराने को, आग लगाने लोग खड़े हैं ।
बेंच दिए ’रामायण-गीता’ आदर्शों की बात भुला कर
वाचन करने को तत्पर हैं, अर्थ बताने लोग खड़े हैं ।
दीन-धरम है बाक़ी अब भी, कुछ लोगों के दिल के अन्दर
आग लगाने वालों सुन लो, आग बुझाने लोग खड़े हैं ।
दुनिया भर की बात करेंगे, चाँद सितारे मुठ्ठी में है
करना धरना एक नही है, गाल बजाने लोग खड़े हैं ।
शर्म-ओ-हया की बात कहाँ अब, उरियानी का फैशन आया
वाजिब है कुछ की नजरों मे, आज बताने लोग खड़े हैं
’आनन’ तुम भी कैसे कैसे, लोगों की बातों में आए
झूठे वादों से जन्नत की, सैर कराने लोग खड़े हैं ।
-आनन्द पाठक-
एक समीक्षा : मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] --की समीक्षा - नीरज गोस्वामी जी के द्वारा
ग़ज़ल 399 [ 41 -अ]
21---121---121--122 // 21---121--121--12
सूरज को गिरवी रख रख वो , किरणों को नीलाम किए,
उनका ही अन्तस था काला, दरपन को बदनाम किए
शिकवा, आम शिकायत तुमसे, चाहे जितना कर लें हम
नाम तुम्हारा ही ले ले कर, सुबह किए हम, शाम किए ।
इस्याँ अपना जग ज़ाहिर है, और इबादत उल्फत भी
जो भी हासिल इस दुनिया से, सारे उनके नाम किए ।
तनहाई में आँखें नम थी, रंज़ो-ओ-ग़म थे साथ मेरे
एक तेरी तस्वीर मेरा दिल, पूरी रात कलाम किए ।
कितने दौर- ए- जाम चले हैं ,फिर भी प्यास अधूरी है
जब जब प्यास बढ़ी है यारब!, याद तुम्हें हर गाम किए
अक्स तुम्हारा हर शै में है, कब हमने इनकार किया
वैसे हम हर नक्श-ए-पा पर, सजदा और सलाम किए
हस्ती अपनी क्या है ’आनन’, एक तमाशा मेला है ,
दिन भर दौड़े, भागे, घूमे, रात हुई आराम किए ।
ग़ज़ल 398 [---]
21---121--121---122 // 21---121---121--12
आकर इस फ़ानी दुनिया में, चार दिनों की शान बने ,
चाल तुम्हारी टेढ़ी टेढ़ी, क्यों तुम नाफरमान बने ?
उनको क्या लेना-देना था, आदर्शों के मेले से-
गैरत अपनी बेंच दिए तो, ख़ुद अपनी पहचान बने ।
’राम-कथा’ कहते फ़िरते थे, गाँव-गली में वाचक बन
’दिल्ली’ जाकर जाने क्यों वह,’रावण’ के उन्वान बने ।
कल तक जिन हाथों में शोभित, दंड, कमंडल, माला थी
आज उन्हीं हाथों में जाकर, खंजर, तीर-कमान बने ।
कल तक खुद को खोज रहे थे, संबंधों की दुनिया में
गिरगिट-सा कुछ रंग बदल कर, आज वही अनजान बने ।
बात जहाँ पर तय होनी थी,चेहरे पर कितने चेहरे ,
जो चेहरे ’उपमेय’ नहीं थे, वो चेहरे ’उपमान’ बने ।
दुनिया मे क्या करने आए, पर क्या तुमने कर डाला,
’ढाई-आखर’ पढ़ कर” आनन’, क्यों ना तुम इन्सान बने?
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 397 [ 40-अ]
2122---2122---212
लोग सिक्कों पर फ़िसलने लग गए
भूमिका अपनी बदलने लग गए ।
आइना जब भी दिखाते हैं उन्हें
ले के पत्थर वो निकलने लग गए ।
मुठ्ठियाँ जब गर्म होने लग गईं
मोम-से थे जो , पिघलने लग गए।
आज आँगन में नहीं ’तुलसी’ कहीं
’कैकटस’ गमलों में पलने लग गए।
सत्य से जो बेखबर अबतक रहे
झूठ की वह राह चलने लग गए।
फ़न कुचलने का समय अब आ गया
साँप सड़को पर निकलने लग गए ।
अब तो ’आनन’ हाल ऐसा हो गया
लोग इक दूजे को छलने लग गए ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 396/39-A]
2122---1212- 22
जब कभी हम से वह मिला करता
दिल न जाने है क्यों डरा करता ।
उसकी तक़रीर जब कहीं होती
हादिसा क्यों वहीं हुआ करता ।
जख्म अपना उसे दिखाता हूँ
दर्द सुन कर वो अनसुना करता ।
फूल बन कर उसे महकना था
बन के काँटा है वह उगा करता ।
सच से जब उसका सामना होता
रंग चेहरे का क्यों उड़ा करता ।
रोशनी क्या है, क्या वो समझेगा,
जो अँधेरों में है पला करता ?
संग-ए-दिल लाख हो भले ’आनन’
दिल में दर्या है इक बहा करता ।
-आनन्द.पाठक -
ग़ज़ल 395 [58फ़]
1212---1122---1212---112/22
उसे पता ही नहीं क्या वो बोल जाता है
न सर, न पैर हो, बातें वही सुनाता है ।
वो आइना पे ही इलजाम मढ़ के चल देता
अगर जो आइना कोई कहीं दिखाता है ।
किसी के पीठ पे हो कर सवार पार हुआ
उसी को बाद में फिर शौक़ से डुबाता है ।
वो चन्द रोज़ हवा में उड़ा करेगा अभी
नई नई है मिली जीत यह दिखाता है ।
उसे बहार में भी आ रही नज़र है खिज़ाँ
वो जानबूझ के भी सच नही बताता है ।
ज़मीन पर है नहीं पाँव आजकल उसके
वो आसमाँ से हक़ीक़त न देख पाता है ।
हवा लगी है उसे बदगुमान की ’आनन’
किसी को अपने मुक़ाबिल नही लगाता है ।
-आनन्द.पाठक-
्दोहा 18 [ सामान्य]
ग़ज़ल 394 [57फ़]
1212---1122---1212---112/22
मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते
पहाड़ फूँक से ही तुम उड़ा नहीं सकते
ग़रूर है ये तुम्हारा , तमीज़ का परचम
दिखा के आँख मुझे तुम डरा नहीं सकते
नहीं वो पेड़ जो गमलों में, नरसरी में पले
वो शाख हैं कि हमें तुम झुका नहीं सकते ।
ये झूठ का जो पुलिंदा लिए हुए सर पे
पयाम सच का मेरे तुम दबा नहीं सकते
सवाल ये है कि सुनना न मानना है तुम्हें
दिमाग़ में जो तुम्हारे मिटा नहीं सकते ।
वो हार कर भी सबक कुछ न सीख पाया है
नहीं है सीखना जिसको सिखा नहीं सकते ।
जवाब सुन के भी वह सुन सका नहीं ’आनन’
जो कान बंद किए हो , सुना नहीं सकते।
-आनन्द.पाठक-
कविता 16
बचपन से
रंग बिरंगी शोख तितलियाँ
बैठा करती थी फूलों पर
भागा करता था मैं
पीछे पीछे
छूना चाहा जब भी उनको
उड़ जाती थीं इतरा कर
इठला कर
मुझे थका कर ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 393[ 56F]
212---212---212---212
वह ’खटाखट’ खटाखट’ बता कर गया
हाथ में पर्चियाँ मैं लिए हूँ खड़ा ।
बेच कर के वो सपने चला भी गया
सामना रोज सच से मै करता रहा ।
उसने जो भी कहा मैने माना ही क्यों
वह तो जुमला था जुमले में क्या था रखा।
आप रिश्तों को सीढ़ी समझते रहे
मैं समझता रहा प्यार का रास्ता ।
झूठ की थी लड़ाई बड़े झूठ से
’सच’- चुनावो से पहले ही मारा गया ।
अब सियासत भी वैसी कहाँ रह गई
बदजुबानी की चलने लगी जब हवा ।
उसकी बातों में ’आनन’ कहाँ फ़ँस गए
आशना वह कभी ना किसी का हुआ ।
-आनन्द.पाठक-
सं 02-07-24
ग़ज़ल 392[55F]
1212---1212---1212---1212
ह्ज़ज मक़्बूज़ मुसम्मन
सफ़र शुरु हुआ नहीं कि लुट गया है क़ाफ़िला
जहाँ से हम शुरु हुए, वहीं पे ख़त्म सिलसिला ।
दो-चार ईंट क्या हिली कि हो गया भरम उसे
इसी मुगालते में है किसी का ढह गया किला ।
वो झूठ पे सवार हो उड़ा किया इधर उधर
वो सत्य से बचा किया, रहा बना के फ़ासिला।
तमाम उम्र वह अना की क़ैद में जिया किया
वह चाह कर भी ख़ुद कभी न ज़िंदगी से ही मिला।
इसी उमीद में रहा बहार लौट आएगी
कभी न ख़त्म हो सका मेरे ग़मों का सिलसिला ।
मिला कभी तो यूँ मिला कि जैसे हम हो अजनबी
कभी गले नहीं मिला, न दिल ही खोल कर मिला ।
रहा खयाल-ओ-ख़्वाब में वो सामने न आ सका
अब ’आनन’-ए-हक़ीर को रहा नहीं कोई गिला ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
ग़ज़ल 391[54F]
2122---212 // 2122--212
रमल मुरब्ब: महज़ूफ़ मुज़ाइफ़
कह गया था वह मगर लौट कर आया नही
बाद उसके फिर मुझे, और कुछ भाया नहीं ।
चाहता था वह कि मैं ’हाँ’ में ’हाँ’ करता रहूँ
राग दरबारी कभी , गीत मैं गाया नहीं ।
बदगुमानी में रहा इस तरह वह आदमी
क्या ग़लत है क्या सही, फ़र्क़ कर पाया नहीं।
ज़िंदगी की दौड़ में सब यहाँ मसरूफ़ हैं
कुछ को हासिल मंज़िलें, कुछ के सर साया नहीं।
इश्क़ होता भी नहीं ,आजमाने के लिए
चल पड़ा तो चल पड़ा, फ़िर वो रुक पाया नहीं।
सब उसी की चाल थी और हम थे बेख़बर
वह पस-ए-पर्दा रहा, सामने आया नहीं ।
तुम भी ’आनन’ आ गए किसकी मीठी बात में
साज़िशन वह आदमी किसको भरमाया नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
मुक्तक 19
1
1212---1122--1212---112
इसी सवाल का मैं ढूँढता जवाब रहा
मेरा नसीब था या ख़ुद ही मैं ख़राब रहा
ये बात और है उसने मुझे पढ़ा ही नहीं
वगरना उसके लिए मैं खुली किताब रहा
2
2122 2122 2122 2
बात तो वह कर रहा था चाँद लाने की
ढूँढता अब राह रोजाना बहाने की
वह 'खटाखट' दे रहा था हम न ले पाए
बात अब तो रह गई सुनने सुनाने की ।
3
-आनन्द.पाठक-
मुक्तक 18
1
कज़ा का जो दिन था मुकर्रर ,वो आई
भला कब कहाँ दिखती ऐसी वफ़ाई
अदा-ए-क़ज़ा देख हैरत में ’आनन’
कि बस मुस्कराती न सुनती दुहाई
2
जब देश पे मिटने की खातिर, अनजाने मस्ताने निकले
सरमस्तों की टोली निकली,घर घर से दीवाने निकले
पर आज सि़यासत मे सबने ,लूटा है झूटे वादे कर
वो ग़ैर नहीं सब अपने थे , सब जाने पहचाने निकले।
3
2122---2122---212
ज़िंदगी बेलौस कुछ गाती तो है
जो भी हो जैसी भी हो भाती तो है
दीप चाहे हो किसी का भी कहीं
रोशनी छन छन सही आती तो है ।
4
1222---1222---1222---1222
उसे मालूम है उसके बिना मैं रह नहीं सकता
सितम मैं सह तो सकता हूं जुदाई सह नहीं सकता।
ज़माने भर में केवल मैं कि जिसकी है ज़ुबाँबंदी
जो कहना भी अगर चाहूँ तो मै कुछ कह नहीं सकता ।
-आनन्द.पाठक-
2122----2122---2122---2122
मुक्तक 16[फ़र्द]
1/25
1222---1222---1222---1222
अगर एहसास है ज़िंदा तो राह-ए-दिल सही मिलती
वगरना इन अँधेरों में कहाँ से रोशनी मिलती ।
तेरा होना, नही होना, भरम है भी तो अच्छा है
न होता तू तसव्वुर में कहाँ फिर ज़िंदगी मिलती ।
2/09
1222 1222 1222 22
नज़र आया उन्ही का हुस्न माह ए कामिल में
नहीं उतरा नहीं आया कोई उन सा दिल में
बचाता खुद को तो कैसे बचाता मै 'आनन'
बला की धार थी उनकी निगाह ए क़ातिल में
3/19
1222---1222---1222---122
न जाने किस दिशा से ग़ैब से ताक़ीद आती है
अभी कुछ साँस बाक़ी है, नज़र उम्मीद आती है
जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का ’आनन’
चलो वह भी सुना दो अब कि मुझको नींद आती है ।
4/18
1222---1222---1222---1222
ये उल्फ़त की कहानी है कि पूरी हो न पाती है
कभी अफ़सोस मत करना कि हस्ती हार जाती है
पढ़ो ’फ़रहाद’ के किस्से यकीं आ जायेगा तुमको
मुहब्बत में कभी ’तेशा’ भी बन कर मौत आती है ।
-आनन्द.पाठक-
-
मुक्तक 15 [फ़र्द]
1/30
221---2121---1221---212
खुशियाँ तमाम लुट गई है कू-ए-यार में
जैसे हरा-सा पेड़ कटा हो बहार में ।
जैसे कटी है आज तलक ज़िंदगी मेरी
बाक़ी कटेगी वह भी तेरे इन्तजार में ।
2/31
221---2121---1221---212
चढ़ती हुई नदी थी, चढ़ी और उतर गई
जैसे कि आरज़ू हो किसी की बिखर गई
वैसे तमाम उम्र खुशी ढूँढती रहीं
आ कर भी मेरे पास बगल से गुज़र गई
3/36
1222---1222---1222---1222
कभी इन्कार करती हो, कभी उपहार देती हो
मुझे हर बार जीने का नया आधार देती हो,
मुहब्बत का अजब तेरा तरीका है मेरे जानम !
कभी पुचकार लेती हो, कभी दुतकार देती हो ।
4/27
221---2122 // 221-2122
कश्ती भी पूछती है, साहिल कहाँ है मेरा
मजलूम ढूँढता है ,आदिल कहाँ है मेरा
क़ातिल निगाह उनकी, ख़ंज़र भी उनके हाथों
उनसे ही पूछता हूँ, क़ातिल कहाँ है मेरा ।
-आनन्द.पाठक-
मुक्तक 14[फ़र्द]
1/33
1222---1222---1222---1222
भला कब डूबने देंगे तुम्हारे चाहने वाले
दुआ कर के बचा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले
पता तुमको न हो शायद, इज़ाज़त दे के तो देखो
कि पलकों पर बिठा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले ।
2/13
2122--2122---212
राह-ए-उल्फ़त में कभी ऐसा तो कर
दिल को तू पहले अभी शैदा तो कर
सिर्फ़ सजदे में पड़ा है बेसबब
इश्तियाक़-ए-इश्क़ भी पैदा तो कर ।
3/12
212---212--212---212
कोई कहता नहीं, उनसे मेरी तरह
कोई खुलता नहीं दिल से मेरी तरह
जो मिले मुझसे, चेहरे चढ़ाए हुए
कोई मिलता नहीं मुझसे मेरी तरह ।
4/29
2212----2212----2212----2212
नासेह ये तेरा फ़लसफ़ा नाक़ाबिल-ए-मंज़ूर
क्या सच यहाँ कि हूर से बेहतर वहाँ की हूर ?
याँ सामने है मैकदा और तू बना है पारसा
फिर क्यों ख़याल-ए-जाम-ए-जन्नत से हुआ मख़्मूर है ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
[इश्तियाक-ए-इश्क़ = प्रेम की लालसा]\
पारसा = संयमी
मख़्मूर = ख़ुमार में
मुक्तक 13[फ़र्द]
1/16
1222---1222---1222---1222
वो मेरे ख़्वाब क्या थे और क्या ताबीर थी मेरी
जो वक़्त-ए-जाँ-ब-लब देखा, फटी तसवीर थी मेरी
मिलाया ख़ाक में मुझको, जो पूछू तो मैं क्या पूछूं
हुनर था वो तुम्हारा या कि फिर तकदीर थी मेरी ।
2/03
1222---1222--1222--1222
कहीं मुझको जो तुम दिखती, मैं बेबस क्यों मचलता हूं ?
कभी यह दिल भटकता है, कभी गिर कर सँभलता हूँ ।
ज़माने की हज़ारों बंदिशे क्यों फ़र्ज़ हो मुझ पर ?
अकेला मैं ही क्या ’आनन’ जो राह-ए-इश्क़ चलता हूँ ?
3/35
1222---1222---1222---1222
कभी जब आग लगती है किसी के दिल के अंदर तक
किसे परवा कि कितने पेंच-ओ-ख़म होंगे तेरे दर तक
अगर होती नहीं उसके लबों पर तिश्नगी ’आनन’
भला कटता सफ़र कैसे नदी का इक समंदर तक ।
4/34
1222---1222---1222---1222
नवाज़िश भी नहीं उसकी, शिकायत भी नहीं करता
न जाने क्या हुआ उसको, क़राबत भी नही करता ।
ज़माने की हवाओं से वो क्यों बेजार रहता है ,
वो नफ़रत तो नहीं करता, मुहब्बत भी नहीं करता ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 389[53F
221---2121---1221---212
हम बेनवा कि जब से हिमायत में लग गए
कुछ लोग ख़्वाहमख़्वाह शिकायत में लग गए ।
जब तोड़ने चला था पुरानी रवायतें ,
कुछ क़ौम के अमीर हिदायत में लग गए ।
जब मग़रबी हवाएँ कभी गाँव आ गईं
तह्ज़ीब-ओ- तरबियत की हिफ़ाज़त में लग गए ।
जो कुछ जमीर थी बची, उसको भी बेच कर
सुनते हैं आजकल वो सियासत में लग गए ।
जो सर कटा लिए थे वो गुमनाम ही रहे ,
नाख़ून कुछ कटा के शहादत में लग गए ।
दुनिया को बार बार खटकते रहे है, हम
क्यों इश्क़ की तवाफ़-ओ-इबादत में लग गए ।
’आनन’ अजीब हाल है लोगों का आजकल
करना था जिन्हे प्यार , अदावत में लग गए ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
बेनवा = बेकस ग़रीब मजलूम
अमीर = समाज के ठेकेदार
मग़रिबी हवाएँ = पाश्चात्य संकृति की हवाएँ
तहज़ीब-ओ-तर्बियत = संस्कार
तवाफ़-ओ-इबादत = परिक्रमा और पूजा
सं 01-07-24
ग़ज़ल 388[52F]
2122---2122---212
वह धुआँ फ़ैला रहा है बेसबब
राग अपना गा रहा है बेसबब
सच उसे स्वीकार करना ही नहीं
झूठ पर इतरा रहा है बेसबब
आँख में पानी नहीं फिर क्यों उसे
आइना दिखला रहा है बेसबब
वह ’खटाखट’ क्या तुम्हें देगा कभी
वह तुम्हे भरमा रहा है बेसबब ।
अब सयानी हो गईं है मछलियां
जाल क्यों फ़ैला रहा है बेसबब ।
काम उसका ऊँची ऊँची फेंकना
बात में क्यों आ रहा है बेसबब ।
अब तो ’आनन’ तू उन्हें पहचान ले
क्यों तू धोखा खा रहा है बेसबब ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
ग़ज़ल 387 [51F]
2122---2122---2122
आश्रमों में धुंध का वातावरण है
बंद आँखें फिर भी कहते जागरण है ।
आदमी अंदर ही अंदर खोखला है
खोखली श्रद्धा का ऊपर आवरण है ।
और को उपदेश देते त्याग माया
कर न पाते मोह का ख़ुद संवरण है ।
लोग अंधी दौड़ में शामिल हुए अब
चेतना का क्या नया यह अवतरण है ।
भीड़ में हम भेड़ -सा हाँके गए हैं
यह निजी संवेदना का अपहरण है ।
ख़ुद से आगे और कुछ दिखता न उनकॊ
स्वार्थ का कैसा भयंकर आचरण है ।
रोशनी स्वीकार वो करते न ’आनन’
इन अँधेरों का अलग ही व्याकरण है ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
मुक्तक 12[ फ़र्द]
1/38
221--2121--1221--212
वह झूठ बोलता है , हुनरमंद यार है
ईमान बेचकर भी वो ईमानदार है
कर के गुनाह-ओ-जुर्म भी वह मुस्करा रहा
कहते सभी वो शख़्स बड़ा होशियार है ।
2/37
221---2121---1221---212
क्या इश्क़ है ग़लत कि सही? और बात है,
हसरत अयाँ न हो कि दबी ,और बात है ,
हाज़िर है मेरी जान मुहब्बत में आप की
माँगा न आप ने ही कभी, और बात है ।
3/1
1222---1222----1222---1222
ये दिल बेचैन रहता है अगर उनको नही पाता
भले गुलशन हो सतरंगी, बिना उनके नहीं भाता
सकून-ओ-चैन, ज़ेर-ए-हुक्म उनके आने जाने पर
वो आते हैं तो आता है, नहीं आते नही आता ।
4/8
2122---2122---212
ग़ौर से देखा नहीं खुद आप ने
झूठ कब बोला किए हैं आइने
खुद का चेहरा ख़ुद नज़र आता नहीं
जब तलक न आइना हो सामने ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 386[50F]
1222---1222---1222---1222
खुदा की जब इनायत हो बहार-ए-हुस्न आती है।
अगर दिल पाक हो तो फिर मुहब्बत ख़ुद बुलाती है ।
जुनून-ए-इश्क़ में फिरते, ख़िज़ाँ क्या है , बहारां क्या
फ़ना होना ही बस हासिल, यही दुनिया बताती है ।
नवाज़िश आप की साहिब !बहुत मश्कूर है यह दिल
मेरी मक़रूज़ है हस्ती ,ज़ुबाँ देकर निभाती है ।
लगा करती हैं जब जब ठोकरें, आँखें खुला करती
यही ठोकर सदा इन्सान को रस्ता दिखाती है ।
कहाँ आसान होता है गली तक यार की जाना
जो जाती है कभी यह ज़िंदगी कब लौट पाती है
हवाएं साजिशें रचतीं चिरागों कॊ बुझाने की
जो लौ जलती जिगर के खून से, कब ख़ौफ़ खाती है
अजब उलफ़त की नदिया है, अजब इसका सिफ़त ’आनन’
नहीं चढ़ना, नही चढ़ती, चढ़ी तो रुक न पाती है ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
क़िस्त 104 /14 [माही उस पार]
1
जब तुम न नज़र आए
लाख हसीं चेहरे
मुझको न कभी भाए
2
नफ़रत को हराना है
तो सबके दिल में
उलफ़त को जगाना है
3
बस्ती तो जलाते हो
क्या हासिल होता
यह क्यों न बताते हो?
4
गुलशन में महक कैसी?
तुम तो नही गुज़री
डाली में लचक कैसी?
5
माना कि अँधेरा है
धीरज रख प्यारे
होने को सवेरा है
-आनन्द.पाठक-
क़िस्त 103/13 [माही उस पार]
1
देखा जो कभी होता
ग़ौर से जब तुमको
मैं खुद में नहीं होता ।
2
ऎ दिल ! क्यॊं दीवाना
कब उसको देखा
पढ़ कर ही जिसे जाना ।
3
जो तेरे अन्दर है
देख ज़रा, पगले !
क़तरे में समन्दर है ।
4
भगवा कंठी माला
व्यर्थ दिखावा क्यों
जब मन तेरा काला ।
5
ऐसा भी आना क्या
"जल्दी जाना है"
हर बार बहाना क्या ।
ग़ज़ल 385[49F]
221---2121---1221---212
औरों की तरह "हाँ’ मे मैने "हाँ’ नहीं कहा
शायद इसीलिए मुझे पागल समझ लिया ।
लफ़्ज़ों के ख़ल्त-मल्त से कुछ इस तरह कहा
जुमलों में जैसे फिर से नया रंग भर दिया ।
उसके तमाम झूठ थे तारीफ़ की मिसाल
मेरे तमाम सच को वो ख़ारिज़ ही कर दिया
वह आँख बन्द कर के कभी ध्यान में रमा
कुछ बुदबुदाया, भीड़ ने ’मन्तर’-समझ लिया।
गूँगी जमात की उसे जब बस्तियाँ दिखीं ,
हर बार वह चुनाव में पहले वहीं गया ।
’दिल्ली’ में जा के जब कभी गद्दीनशीं हुआ
घर के ही कोयले में ’ज़वाहिर’ उसे दिखा ।
कितनी अज़ीब बात थी सब लोग चुप रहे
’आनन’ ग़रीब था तो सरेआम लुट गया ।
-आनन्द.पाठक-
ख़ल्त-मत = फेट-फ़ाट , गड्म-गड्ड
सं 01-07-24
ग़ज़ल 383 [47F]
2122---2122---212
जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी
किस तरह उलझा हुआ है आदमी
ज़िंदगी भर द्वंद में जीता रहा-
अपने अंदर जो बसा है आदमी ।
सभ्यता की दोड़ में आगे रहा
आदमीयत खो दिया है आदमी
ज़िंदगी की सुबह में सूली चढ़ा
शाम में उतरा किया है आदमी ।
देखता है ख़ुद हक़ीक़त सामने
बन्द आँखें कर रखा है आदमी ।
पैर चादर से सदा आगे रही
उम्र भर सिकुड़ा किया है आदमी।
चाह जीने की है ’आनन’ जब तलक
मर के भी ज़िंदा रहा है आदमी ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
ग़ज़ल 382[46F]
2122---1122---1122--22
आप का शौक़ है एहसान जताए रखना
मेरी मजबूरी है रिश्तों को जगाए रखना।
आप की सोच में वैसे तो अभी ज़िंदा हूँ
वरना जीना है भरम एक बनाए रखना ।
सच को अर्थी न मिली, झूठ की बारात सजी
ऐसी बस्ती में बसे चीख दबाए रखना ।
जुर्म इतना था मेरा झूठ को क्यों झूठ कहा
जिसकी इतनी थी सज़ा,ओठ सिलाए रखना।
इन अँधेरों मे कोई और न मुझ-सा भटके
कोई आए न सही दीप जलाए रखना ।
कौन सी बात हुई व्यर्थ की बातों पर भी
आसमाँ हर घड़ी सर पर ही उठाए रखना।
राजदरबार में ’आनन’ भी मुसाहिब होता
शर्त इतनी थी कि बस सर को झुकाए रखना।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
मुसाहिब = दरबारी
ग़ज़ल 381[45F]
2122---2122---2122--2
बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]
फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !
फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !
हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के
खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !
आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा
हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !
सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है
हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !
आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा
देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !
बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से
खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !
जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते
फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
ग़ज़ल 379 [44-अ
2122---1122---1122---112/22
जब ग़रज़ उनकी, तो रिश्तों का सिला देते हैं
काम मेरा जो पड़ा , मुझको भगा देते हैं ।
उनके एहसान को मैने तो सदा याद रखा
मेरे एहसान को कसदन वो भुला देते हैं ।
आप के सर जो झुके बन्द मकानो में झुके
मैने सजदा भी किया , सर को उड़ा देते हैं ।
आप का फ़र्ज़ यही है तो कोई बात नहीं
जुर्म किसने था किया मुझको सज़ा देते हैं ।
ज़िंदगी आज भी उनके ही क़सीदे पढ़ती
प्यार के नाम पे गरदन जो कटा देते हैं ।
आप जो ख़ुश हैं तो मुझको न शिकायत कोई
वरना अब लोग कहाँ ऐसा सिला देते हैं ।
हार जब सामने उनको नज़र आती ’आनन’
और के सर पे वो इलज़ाम लगा देते हैं ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 378 [ 60-अ]
221---2121---1221---212
ऐसी भी हो ख़बर कोई अख़बार में लिखा ,
’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का है पता ।
समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,
जब इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।
बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह
इस शहर में’उसूल’ की गठरी उठा उठा।
जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,
मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।
हर सिम्त शोर सुन रहे हैं जंग-ए-अज़ीम का ,
इन्सानियत को तू भी दिल-ओ-जान से बचा ।
मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे
अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।
क्यों तस्करों के शहर में ’आनन’ तू आ गया,
तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 377/ 53-अ
1222---1222---1222---1222
अज़ाब-ए-ज़िंदगी, वैसे सफ़र में कब रुका करते
मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी सामना करते ।
ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं
बहुत से लोग अपने ही शराइत पर जिया करते ।
तुम्हारी ही सुनी ऎ ज़िंदगी ! जो भी कहा तुमने
हमारी भी सुनी होती तो कुछ हम भी कहा करते ।
गिरेंगी बिजलियाँ तय है कभी मेरे ठिकाने पर
हवादिश आशियाने पर मेरे अकसर हुआ करते।
कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,
तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।
कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी , हमने
तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।
नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -
जिन्हे करना वफ़ा ’आनन’ लब-ए-दम तक,किया करते।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 376/ 52-अ
2122---2122---212---2
बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं है।
काश ! सूरत आप की असली नज़र आती
आप की सदभावना, झूठी नज़र आती ।
वक़्य आने पर खड़े होंगे चलो , माना
काश ! उनके रीढ़ की हड्डी नज़र आती ।
जब भी सुनते राग दरबारी सुना करते
वेदना मेरी उन्हें गाली नज़र आती ।
आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म
अब उन्हें हर बात में ;कुर्सी; नज़र आती ।
जब से ’दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे
क्यारियाँ सूखी भी हरियाली नज़र आती ।
हाथ धोने के लिए बेताब बैठे हैं ,
’योजना’-गंगा सी कुछ बहती नज़र आती ।
आदमी की जब कभी बोली लगी ’आनन’
’आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आती ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 375/ 51-अ
221---2121---1221---212[1]
बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब
या तो नक़ाबपोश है या फिर है बेनिक़ाब
जिस आदमी की खुद की कभी रोशनी नहीं
औरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।
सत्ता के जोड़-तोड़ में वह बेमिसाल है
उम्मीद कर रहें हैं कि लाएगा इन्क़िलाब ।
उस आदमी की डोर किसी और हाथ में
उड़ता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।
वो झूठ को सच की तरह बोलता रहा
ऐसे ही लोग ज़िंदगी में आज कामयाब ।
उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी था
आता है सामने जो अब आता है बेहिजाब ।
’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा
हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्र आब ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
इन्तिख़ाब = चुनाव
ज़ह्रआब = विष
ग़ज़ल 374
221---1222 // 221----1222
हम क़ैद में क्यों रहते, पिंजड़े में क्यों पलते
गर उनकी तरह हम भी, भेड़ों की तरह चलते ।
सच जान गए जितने ,आश्वस्त रहे उतने ,
वो झूठ के दम पर ही ,दुनिया को रहे छलते ।
बस कर्म किए जाना, होना है सो होगा ही
लिख्खे हैं जो क़िस्मत में ,टाले से कहाँ टलते ।
बिक जाते अगर हम भी, दुनिया तो नहीं रुकती
बस सर ही झुकाना था, यह हाथ नहीं मलते ।
जुमलॊं से अगर सबको, गुमराह नहीं करते
आँखों में सभी के तुम, सपनों की तरह पलते।
जीवन का यही सच है, चढ़ना है तो ढलना भी
सूरज भी यहाँ ढलता, तारे भी यहाँ ढलते ।
’आनन’ जो कभी तुमने, इतना तो किया होता
भटका न कोई होता, दीपक सा अगर जलते ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 373 [48-अ]
221---1222//221---1222
सुनना ही नहीं उनको, क्या उनको सुनाना है
बहरों के मुहल्लों में , क्या शंख बजाना है ।
सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा दिखता ,
मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच का बताना है
दावा तो यही करता, वह एक खुली पुस्तक
हर पेज फटा जिसका, क्या है कि पढ़ाना है।
एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसके
वह जो भी कहे चाहे , सब झूठ बहाना है ।
चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता
जितनी हो ज़रूरत बस , उतना ही चलाना है।
मालूम सभी को है, है रीढ़ नहीं उसकी
किस ओर ढुलक जाए, क्या उसका ठिकाना है ।
भीतर से बना हूँ जो , बाहर भी वही ’आनन’
दुनिया जो भले समझे, क्या है कि छुपाना है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 372 [43F]
2122---2122---2122
शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है
रात फिर लगता है कुछ घपला हुआ है।
लोग सहमें है , नज़र ख़ामोश है
आस्थाओं पर कहीं हमला हुआ है ?
लोग क्यों नज़रें चुरा कर चल रहे अब,
मन का दरपन फिर कहीं धुँधला हुआ है ।
शहर के हालात कुछ अच्छे न दिखते,
मज़हबी कुछ सोच से गँदला हुआ है ।
रोशनी के नाम पर लाए अँधेरे ,
कौन सा यह रास्ता निकला हुआ है ?
मुफ़्त राशन, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली
आदमी बस झूठ से बहला हुआ है ।
आज ’आनन’ बुद्ध गाँधी की ज़रूरत
आदमी जब स्वार्थ का पुतला हुआ है ।
-आनन्द.पाठक-
सं 30-06-24
ग़ज़ल 371 [42F]
21---121---121---122
कितने रंग बदलता है, वह
ख़ुद ही ख़ुद को छलता है, वह ।
सीधी सादी राहों पर भी
टेढ़े-मेढ़े चलता है , वह ।
जितना जड़ से कटता जाता
उतना और उछलता है, वह ।
बन्द किया है सब दरवाजे
अपने आप बहलता है, वह ।
करते हैं सब कानाफ़ूसी -
जिस भी राह निकलता है वह ।
औरों के पांवों से चलता ,
अपने पाँव न चलता है, वह।
’आनन’ की तो बात अलग है,
दीप सरीखा जलता है, वह ।
-आनन्द.पाठक-
सं 30-06-24
ग़ज़ल 370 [41F]
1212----1122---1212---22
मेरे सवाल का अब वो जवाब क्या देगा
इधर उधर की सुना कर उसे घुमा देगा
वो अपने आप को शायद ख़ुदा समझता है
यही नशा है जो, इक दिन उसे डुबा देगा ।
यह बात और की है, आप क्यों परीशाँ है
ये वक़्त ही है जो सबको सबक़ सिखा देगा ।
हुनर कमाल का उसका, न कोई सानी है
नहीं हो आग जहाँ, वह धुआँ उठा देगा ।
वही है मुफ़्त की बिजली वही चुके वादे
घिसे पिटे से हैं नारे, नया वो क्या देगा ।
जुबान पर है शहद और सोच में फ़ित्ना
खबर किसी को न होगी वो जब दग़ा देगा ।
अब उसकी बात का ’आनन’ बुरा भी क्या माने
सिवा वो झूठ के दुनिया को और क्या देगा ।
-आनन्द.पाठक -
सं 30-06-24
ग़ज़ल 369/14-अ
2122---2122--2122---212
जब बनाने मैं चला था एक अपना आशियाँ
आँधियों ने धौंस दी थीं बिजलियों नें धमकियाँ
ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में
दो घड़ी तुम क्या मिले फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।
गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े
राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।
यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर
हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।
ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई
अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगी सरगोशियाँ ।
कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में
उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।
हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं , लड़ता रहा
फिर उसे सोने न दीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 368/13-अ
221---1222//221---1222
क्या मुझको समझना है, क्या तुमको बताना है
किरदार अधूरा है, झूठा ये फ़साना है ।
इस एक निज़ामत के, तुम एक अदद पुर्जा ,
नाज़िम तो नहीं ख़ुद हो, जाने ये ज़माना है ।
तुम चाँद सितारों की बातों में न खो जाना ,
मक़्सूद न ये मंज़िल , जीने का बहाना है ।
रुकने से कभी तेरे, दुनिया तो नहीं रुकती
यह मन का भरम तेरा, कच्चा है पुराना है ।
माना कि बहुत दूरी, हम भी न चले होंगे,
जाना है बहुत आगे, हिम्मत को जगाना है ।
हटने से तो अच्छा है, लड़ना है अँधेरों से
हर मोड़ उमीदों का , इक दीप जलाना है ।
हो काम भले मुशकिल, डरना न कभी ’आनन’
जन गण के लिए हम को, इक राह बनाना है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 367 [40F]
221---1222-// 221--1222
इज़हार-ए-मुहब्बत के आदाब हुआ करते,
अपनी तो सुनाते हो, मेरी भी सुना करते।
कहने को कहो जो भी, होना था यही आख़िर,
हमने तो वफ़ा की थी, तुम भी तो वफ़ा करते ।
आसान नहीं होता, जीवन का सफ़र ,हमदम!
कुछ सख़्त मराहिल भी, हस्ती में हुआ करते ।
सरमस्त जो होते हैं रोके से कहाँ रुकते
उनकी तो अलग दुनिया, मस्ती में जिया करते।
कब सूद, जियाँकारी होती है मुहब्बत में ,
उल्फ़त का तक़ाज़ा है, दिल खोल मिला करते।
होती है मुहब्बत की, तासीर कभी तारी
अग़्यार भी जाने क्यों, अपने ही लगा करते।
आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ’आनन’ तू परीशां क्यों
होतें है फ़ना सब ही, जो इश्क़ किया करते ।
-आनन्द.पाठक-
मराहिल = पड़ाव
जियाँकारी = कदाचार ,बुरे आचरण/विचार
अग़्यार = ग़ैर लोग, अनजान लोग
सरमस्त = बेसुध, मतवाला
तासीर = असर, प्रभाव
सं 30-06-24
ग़ज़ल 366/ 47-अ
221---1222// 221-1222
मुश्किल है बहुत मुश्किल अपनों से विदा लेना
नायाब हैं ये आँसू, पलकों में छुपा लेना ।
किस दिल में तुम्हे रहना, अधिकार तुम्हारा है,
राहों में अगर अगर मिलना , नज़रे न चुरा लेना ।
जो साथ तुम्हारे हैं, मुंह मोड़ के चल देंगे ,
जो रूठ गए अपने, उनको तो मना लेना ।
हैं लोग बहुत ऐसे, सब कुछ न जिन्हें मिलता
हासिल जो हुआ तुमको, बस दिल से लगा लेना।
जीवन का सफ़र लम्बा, आसान नहीं होता ,
अपना जो लगे तुमको, हमराज़ बना लेना ।
महफ़िल में तुम्हारे जब, कल मैं न रहूँ शामिल
पर गीत मेरे होंगे, अधरों पे सजा लेना ।
’आनन’ जो हुआ पागल, आदत न गई उसकी
राहों में पड़े काँटे, पलको से उठा लेना ।
-आनन्द. पाठक-
ग़ज़ल 365[39F]
221---2121---1221---212
अच्छा हुआ कि आप जो आए नहीं इधर
पत्थर लिए खड़े अभी कुछ लोग बाम पर
श्रद्धा के नाम पर खड़ी अंधों की भीड़ है
जाने किधर को ले के चलेगा यह राहबर ।
मिलता है दौड़ कर जो गले से, तपाक से
मिलिए उस आदमी से तो दामन सँभाल कर।
वैसे तुम्हारे शहर का हमको नहीं पता ,
लेकिन हमारे शहर का माहौल पुरख़तर !
आँखों में ख़ास रंग का चश्मा चढ़ा हुआ ,
देखा न उसने सच कभी , चश्मा उतार कर।
हालात शादमान कि ना शादमान हो,
जीना यहीं है छोड़ के जाना है अब किधर ।
ऐसी तुम्हारी जात तो ’आनन’ कभी न थी
कुछ माल-ओ-ज़र बना लिए दस्तार बेच कर ।
-आनन्द पाठक-
शादमान, नाशादमान = सुख-दुख , हर्ष विषाद
जात = व्यक्तित्व
माल-ओ- ज़र = धन दौलत
दस्तार = पगड़ी ,इज्जत
सं 30-06-24
मुक्तक 10 : चुनावी मुक्तक
:1:
राजतिलक की है तैयारी
सब ही माँगे भागीदारी ,
एक हमी तो ’हरिश्चन्द्र; हैं
बाक़ी सब हैं भ्रष्टाचारी ।
:2:
कुरसी देख देख मन डोले
माल दिखा तो पत्ता खोले
भरे तराजू मेढक सारे
कैसे कोई इनको तोले
:3:
सबके अपने अपने नारे
कर्ज माफ कर देंगे सारे
यह अपनी "गारंटी" भइया
'वोट' हमें जब देगा प्यारे !
:4:
रोजगार हम घर घर देंगे
तुझको भी हम अवसर देंगे
मुफ्त रेवड़ी राशन-पानी
से तेरा हम घर भर देंगे
:5:
ये सब हैं मौसामी परिंदे
’वोट’ माँगना- इनके धन्धे
वोट जिसे भी चाहे देना
आँख खोल कर देना , बंदे !
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 364/30 A
221--2122 // 221---2122
ठोकर लगी किसी को, आँखें खुली किसी की
गिर कर सँभल भी जाना, यह सीख ज़िंदगी की ।
रफ़्तार-ए-ज़िंदगी से वह तेज दौड़ता है ,
चाहत हज़ार चाहत क्यों एक आदमी की ?
मरता था माल-ओ-ज़र पर, दुनिया से जब गया वह
इक दास्तान-ए-आख़िर, मुठ्ठी खुली हुई की ।
परबत से, घाटियों से, चल कर यहाँ तक आई
सागर को क्या पता है, क्या प्यास इक नदी की ?
मँडरा रहें है बादल, आसार जंग के हैं ,
हर देश खौफ़ में है ,पीड़ा नई सदी की ।
सूरज कहाँ रुका है , दो-चार जुगनुओं से
सबकॊ पता हमेशा औक़ात रोशनी की ।
’आनन’ तमाम बातें , मालूम है तुम्हे भी ,
क्या बात मैने तुमसे, अब तक कोई नई की ?
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 363 /58 -अ
221---2121---1221---212 [1]
कहने की बात और है, करने की बात और
कुछ कर्ज़ ज़िंदगी के हैं, भरने की बात और ।
गमलों में जो उगे हैं बताएँगे क्या हमें ,
तूफ़ान आँधियों से निखरने की बात और ।
जड़ से कटे हुओं की तो दुनिया अलग रही
अपनी ज़मीन जड़ से सँवरने की बात और ।
बैसाखियों पे आप टँगे थे तमाम उम्र
खुद के ही पाँव चलने उतरने की बात और ।
आसान रास्ते से तो चलते तमाम लोग
काँटों भरी हो राह गुजरने की बात और।
वादे हज़ार आप किए और चल दिए
अपने दिए ज़ुबान पे मरने की बात और ।
’आनन’ ये लूट पाट हुई रोज़ की ख़बर
गुलशन,बहार, फूल की, झरने की बात और ।
-आनन्द.पाठक-
दोहे 15 : चुनावी दोहे
चरण वंदना ’बॉस’ की, श्रद्धा का है रूप ।
अँधियारा कहना पड़े, जब विकास का धूप ॥
यह चुनाव का दौर है, सुन ले सबकी बात ।
जनता की सहनी पड़े, सह ले पद आघात ॥
प्रश्न हमारा आप से, सुन कर रहें न मौन ।
जीत रहें है जब सभी, हार रहा है कौन ॥
पप्पू , पप्पू मत कहो , पप्पू सब ना होय ।
पप्पू ढूँढन मैं चला, मिला न दूजा कोय ॥
नेता जी करने लगे, नैतिकता का जाप ।
’सतयुग’ से सीधे यहीं, आए हैं क्या आप ॥
वादे पर वादे करें, सपनों की भरमार ।
दूर खड़े ह्वै देखिए, मतदाता की लार ॥
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 362 [38F]
2122---1212---22
हम तेरा एहतराम करते हैं
याद भी सुबह-ओ-शाम करते हैं ।
नक्श-ए-पा जब कहीं दिखा तेरा
सर झुका कर सलाम करते हैं।
सादगी भी तेरी क़यामत है
बात यह ख़ास-ओ-आम करते हैं ।
इश्क़ के जानते नताइज़, सब
इश्क़ के इन्तिज़ाम करते हैं ।
क्या तुझे दे सकेंगे हम, जानम !
ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं ।
उनको इस बात की ख़बर ही नहीं
कि वो दिल में क़याम करते हैं ।
कब वो वादा निभाते हैं ’आनन’
हम निभाने का काम करते हैं ।
-आनन्द.पाठक-
सं 29-06-24
ग़ज़ल 361[37F]
221---2121---1221---212
सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?
कैसे मैं मान लूँ कि तुझे कुछ ख़बर नहीं ।
कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,
अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर नहीं ।
वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर
कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।
गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,
गुलचीं की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।
उनकी इनायतों का अगर सिलसिला रहा
कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।
डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर
यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही
तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है
’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
सं 29-06-24
अनुभूतियाँ 139 /26
:1:
2
इधर खड़े या उधर खड़े हो
किधर खडे हो साफ बताओ
हवा जिधर की जैसी देखी
पीठ उधर ही मत कर जाओ
3
आना ही जब नहीं तुम्हें था
फिर क्यो झूटी कसमें खाई?
सुनना ही जब नहीं तुम्हें कुछ
क्या कहती मेरी तनहाई
4
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियां~136/23 : रामलला पर [ भाग-2] [ भाग -1 देखें 131/18 ]
:1:
मंदिर का हर पत्थर पावन
प्रांगण का हर रज कण चंदन
हाथ जोड़ कर शीश झुका कर
राम लला का है अभिनंदन
:2:
हो जाए जब सोच तुम्हारी
राग द्वेष मद मोह से मैली
राम कथा में सब पाओगे
जीवन के जीने की शैली ।
:3:
एक बार प्रभु ऐसा कर दो
अन्तर्मन में ज्योति जगा दो
काम क्रोध मद मोह तमिस्रा
मन की माया दूर भगा दो ।
:4:
श्याम वर्ण मृदु हास अधर पर
अनुपम छवि पर हूँ बलिहारी
कृपा करो हे राम सियापति
आया हूँ प्रभु ! शरण तिहारी
-आनन्द पाठक-
अनुभूतियाँ 134/21
:1:
मन का क्या है उड़ता रहता
एक जगह पर कब ठहरा है
लाख लगाऊँ बंदिश इस पर
पगला कब मेरी सुनता है ।
;2:
पूजन अर्चन में जब बैठूँ
इधर उधर मन भागे फिरता
रिचा मंत्र बस है जिह्वा पर
जाने कहाँ कहाँ मन रमता
:3:
उचटे मन की दवा न कोई
उजडी उजडी दुनिया लगती
खुशियाँ जैसे हुई पराई
आँखों मे बस पीड़ा बसती
:4:
एक दिखावा सा लगता है
हाल पूछना -"जी कैसे हो?
बिना सुने उत्तर चल देना
अर्थहीन लगता जैसे हो ।
क्षणिका 07
जब बचपन मे-आनन्द पाठक-
क्षणिका 06
सूरज निकले उससे पहले
या डूबे तो बाद में उसके
रोज़ हज़ारों क़दम निकलते
कुआँ खोदते पानी पीते
तिल तिल कर हैं मरते ,जीते
सबकी अपनी अलग व्यथा है
महानगर की यही कथा है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 359[35F] : उसे ख़बर ही नहीं है --
1212---1122---1212---112/22
उसे ख़बर ही नहीं है, उसे पता भी नहीं
हमारे दिल में सिवा उसके दूसरा भी नहीं
न जाने कौन सा था रंग जो मिटा भी नहीं
मज़ीद रंग कोई दूसरा चढ़ा भी नहीं ।
जो एक बार तुम्हें ख़्वाब में कभी देखा ,
ख़ुमार आज तलक है तो फिर बुरा भी नहीं।
भटक रहा है अभी तक ये दिल कहाँ से कहाँ
किसी तरह से ये उसका अभी हुआ भी नहीं
किताब-ए-इश्क़ की तमहीद ही पढ़ी उसने
"ये इश्क़ क्या है" कभी ठीक से पढ़ा भी नहीं
ख़ला से, ग़ैब से आती है फिर सदा किसकी
वो कौन हैं? वो कहाँ है? कभी दिखा भी नहीं ।
तमाम लोग थे " आनन" को रोकते ही रहे
सफ़र तमाम हुआ और वह रुका भी नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
तमहीद = किसी किताब की प्रस्तावना , भूमिका, प्राक्कथन
सं 29-06-24
चन्द माहिए 102/12 [होली पर] [माही उस पार]
;1:
रंगो के दिन आए
कलियाँ शरमाईं
भौरें जब मुस्काए
:2:
आई होली आई
आज अवध में भी
खेलें चारो भाई
:3:
हर दिल पर छाई है
होली की मस्ती
गोरी घबराई है
:4:
"कान्हा मत छेड़ मुझे"
राधा बोल रही
"हट दूर परे, पगले !"
:5:
होली के बहाने से
बाज न आएगा
तू रंग लगाने से ।
-आनन्द पाठक-
चन्द माहिए 101/11 : होली पर [माही उस पार]
:1:
होली में सनम मेरे
थाम मुझे लेना
बहके जो कदम मेरे
:2:
घर घर में मने होली
हम भी खेलेंगे
आ मेरे हमजोली
:3;
क्यों रंग लगाता है
दिल तो अपना है
क्यों दिल न मिलाता है?
:4:
क्यों प्रीत करे तन से
रंग लगा ऐसा
उतरे न कभी मन से ।
:5:
पूछे है अमराई
फागुन तो आया
गोरी क्यूँ नहीं आई ?
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 358[34F]
1222---1222---1222---1222
चलो होली मनाएँ आ गया फिर प्यार का मौसम
गुलाबी हो रहा है मन, तेरे पायल की सुन छम छम
लगीं हैं डालियाँ झुकने, महकने लग गईं कलियाँ
हवाएँ भी सुनाने लग गईं अब प्यार का सरगम ।
समय यह बीत ना जाए, हुई मुद्दत तुम्हें रूठे
अरी ! अब मान भी जाओ, चली आओ मेरी जानम।
भरी पिचकारियाँ ले कर चली कान्हा की है टोली
इधर हैं ढूँढते ’कान्हा’,उधर राधा हुई बेदम ।
चुनरिया भींग जाए तो बदन में आग लग जाए
लुटा दे प्यार होली में, रहे ना दिल में रंज-ओ-ग़म ।
ये मौसम है रँगोली का, अबीरों का, गुलालों का
भुला कर रंजिशें सारी, गले लग जा मेरे हमदम ।
इसी दिल में है ’बरसाना’, ’कन्हैया’ भी हैं”राधा’ भी
तू अन्दर देख तो ’आनन’ दिखेगा वह युगल अनुपम ।
-आनन्द.पाठक-
सं 29-06-24
ग़ज़ल 357[33F]
1212---1122---1212---22-
चिराग़-ए-इश्क़ मेरा यूँ बुझा नहीं होता
नज़र से आप की जो मैं गिरा नहीं होता ।
क़लम न आप की बिकती, न सर कभी झुकता
जमीर आप का जो गर बिका नहीं होता ।
शरीफ़ लोग भी तुझको कहाँ नज़र आते ,
अना की क़ैद में जो तू रहा नहीं होता ।
वहाँ के हूर की बातें मैं क्या सुनूँ ,ज़ाहिद !
यहाँ की हूर में भी, हुस्न क्या नही होता ?
सफ़र तवील था, कटता भला कहाँ मुझसे
सफ़र की राह में जो मैकदा नहीं होता ।
मेरे गुनाह मुझे कब कहाँ से याद आते
जो आस्तान तुम्हारा दिखा नहीं होता ।
तुम्हारे बज़्म तक ’आनन’ शरीक हो जाता
ख़याल-ए-ख़ाम में जो दिल फँसा नहीं होता ।
-आनन्द.पाठक-
सं 29-06-24
ग़ज़ल 356[32F]
221---1221---1221---122
मिलता है बड़े शौक़ से वह हाथ बढ़ा कर ,
रखता है मगर दिल में वो ख़ंज़र भी छुपा कर ।
तहज़ीब की अब बात सियासत में कहाँ हैं
लूटा किया है रोज़ नए ख़्वाब दिखा कर ।
यह शौक़ है या ख़ौफ़ कि आदात है उसकी ,
मिलता है हमेशा वह मुखौटा ही चढ़ा कर ।
करने को करे बात वो ऊँची ही हमेशा ,
जब बात अमल की हो, करे बात घुमा कर ।
जिस बात का हो सर न कोई पैर हो, प्यारे !
उस बात को बेकार न हर बार खड़ा कर ।
यह कौन सा इन्साफ़, कहाँ की है शराफ़त ,
कलियों को मसलते हो ज़बर ज़ोर दिखा कर ।
’आनन’ तू करे और पे क्यों इतना भरोसा
धोखा ही जो मिलता है तुझे दिल को लगा कर।
-आनन्द.पाठक-
सं 29-06-24
चुनावी अनुभूतियाँ 132/19
:1:
कल बस्ती में धुँआ उठा था
दो मज़हब टकराए होंगे ।
अफ़वाहों की हवा गर्म थी
लोग सड़क पर आए होंगे ।
;2:
जहाँ चुनावी मौसम आया
हवा साज़िशें करने लगती
झूठे नार वादों पर ही
जनता जय जय करने लगती
;3:
जिस दल की औक़ात नही है
ऊँची ऊँची हाँक रहा है ।
अपना दर तो खुला छोड़ कर
दूजे दल में झाँक रहा है ।
:4:
झूठों की क्या बात करे हम
झूठ बोलने की हद कर दी
दो बोलें या दस बोलें वो
चाहे बोलें सत्तर अस्सी
चुनावी गीत
रंग बदलते नेताओं को ,देख देख गिरगिट शरमाया।
फिर चुनाव का मौसम आया ।
पलटी मारी, उधर गया था, पलटी मारी इधर आ गया
’कुर्सी’ ही बस परम सत्य है, जग मिथ्या है' समझ आ गया'
देख गुलाटी कला ’आप’ की, मन ही मन बंदर मुस्काया।
फिर चुनाव का मौसम आया ।
वही तमाशा दल बदली का, दल बदले पर दिल ना बदला
बाँट रहे हैं मुफ़्त ’रेवड़ी’, सोच मगर है गँदला ,गँदला ।
वही घोषणा पत्र पुराना, पढ़ पढ़ जनता को भरमाया ।
फिर चुनाव का मौसम आया ।
आजीवन बस खड़ा रहेगा, अन्तिम छोर खड़ा है ’बुधना’
हर दल वाले बोल गए हैं, - "तेरा भी घर होगा अपना "
जूठे नारों वादों से कब किसका पेट भला भर पाया।
फिर चुनाव का मौसम आया ।
-आनन्द.पाठक-
चन्दन वन से
जब बबूल बन से गुज़रोगे
ख़्वाब देखना--
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 355[31F]
221---2122 // 221-2122
दिल का बयान करते ये आइने ग़ज़ल के ,
माजी के है मुशाहिद, नाज़िर हैं आजकल के |
एहसास-ए-ज़िंदगी हूँ, जज़्बा भी हूँ, ग़ज़ल हूँ |,
हर दौर में हूँ निखरी, अहल-ए-ज़ुबाँ में ढल के |
अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू है, नाज़-ओ-नियाज़ भी है
तहज़ीब ,सादगी भी आदाब हैं ग़ज़ल के |
आती समझ में उसको कब रोशनी की बातें ,
वो तीरगी से बाहर आता नही निकल के ।
सीने की आग से जो ये खूँ उबल रहा है ,
इन बाजुओं से रख दे दुनिया का रुख़ बदल के |
हर बार ख़ुद ही जल कर देती सबूत शम्मा’
उलफ़त के ये नताइज़ कहती पिघल पिघल के |
जंग-ओ-जदल से कुछ भी हासिल न होगा’आनन’ ,
पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको मिलकर सुनाएँ चल के ।
-आनन्द.पाठक-
नताइज़ = नतीज़े
मुशाहिद,नाज़िर = प्रेक्षक, observer,गवाह
जंग ओ जदल = लड़ाई झगड़ा युद्ध
सं 29-06-24
चन्द माहिए : क़िस्त 100/10 [माही उस पार]
:1:
क्या और सुनानी है
तेरी कहानी में
मेरी भी कहानी है
:2:
जीवन का सफ़र बाक़ी
हाथ पकड़ चलना
मेरे जीवन साथी !
3
छुप कर भी गुजरेगी
कोई कली जब भी
खुशबू तो बिखरेगी
4
जुल्मों की कहानी है
जिंदा हो तो फिर
आवाज उठानी है
5
अल्हड़ सी जवानी पर
इतना मत इतरा
इस जिस्म ए फानी पर
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 354/[30F]
212---212---212---212--// 212--212--212--212
मैने तुम से अभी कुछ कहा ही नहीं , बेनियाज़ी का ये सिलसिला किसलिए ?
तुमने जो भी कहा मैने माना सभी , फिर भी रहती हो मुझसे ख़फ़ा किसलिए ?
उम्र भर मै तुम्हारा रहा मुन्तज़िर, राह देखा किए आख़िरी साँस तक ,
आजमाना ही था जब मुझे ऎ सनम !बारहा फिर इशारा किया किसलिए?
जानता हूँ न आना, न आओगी तुम ,सौ बहानों से वाक़िफ़ रहा मेरा दिल
क्या करें दिल है नादान समझा नहीं, उम्र भर राह देखा किया किसलिए ?
जानता हूँ तुम्हारी मैं मजबूरियाँ,चाह कर भी न तुम कुछ भी कह पाओगी
इस जमाने का यह कौन सा है करम हाथ में ले के पत्थर खड़ा किसलिए ?
क्या छुपा है जो तुमसे छुपाऊँगा मैं और क्या है जो तुमको न मालूम हो
इक भरम का था परदा रहा उम्र भर, सच उसे मानता मैं रहा किसलिए ?
ज़िंदगी का सफ़र इतना आसाँ नहीं , हर क़दम दर क़दम पर मिले पेच-ओ-ख़म
जो मिला है उसे ही नियति मान लें, जो न हासिल उसे सोचना किसलिए !
तुम रफ़ीक़ों की बातों में फिर आ गई,कान भरना था उनको , भरे चल दिए
तुमने मेरी सफ़ाई सुनी ही कहाँ , बिन सुने ही दिया फिर सज़ा किसलिए ?
उसकी मुट्ठी खुली तो दिखी, खाक थी, कहते थकता नहीं था कि है लाख की
क्या हक़ीक़त थी सबको तो मालूम था,वह मुख़ौटे चढ़ाए रहा किसलिए ?
तुम भी ’आनन’ कहाँ किस ज़माने के हो,कौन मिलता यहाँ बेसबब बेग़रज़
जिसको समझा किया उम्र भर मोतबर, फेर कर मुंह वही चल दिया किसलिए ?
-आनन्द.पाठक-
मुन्तज़िर = प्रतीक्षक
बारहा = बार बार
सं 29-06-24
मोतबर = विश्वसनीय
सरस्वती वंदना
जयति जयति माँ वीणापाणी ,
मन झंकृत कर दे, माँ भारती वर दे !
तेरे द्वारे खड़ा अकिंचन. भक्ति भाव से है पुष्पित मन,
‘ सुर ना जानू, राग न जानू और न जानू पूजन अर्चन !
कल्मष मन में घना अँधेरा. ज्योतिर्मय कर दे,
माँ भारती वर दे !
छन्द छन्द माँ तुझे समर्पित, राग ताल से हो अभिसिंचित
जब भी तेरे गीत सुनाऊँ , शब्द शब्द हो जाएँ हर्षित ।
अटक न जाए कहीं रागिनी, स्वर प्रवाह भर दे ।
माँ भारती वर दे !
’सत्यम शिवम सुन्दरम ’-लेखन,बन जाए जन-मन का दरपन
गूँगों की आवाज़ बने माँ, क़लम हमारी करे नव-सॄजन ।
शक्ति स्वरूपा बने लेखनी, शक्ति पुंज भर दे ।
माँ भारती वर दे !
मैं अनपढ़ माँ, अग्यानी मन, हाथ जोड़ कर, करता आवाहन,
गीत ग़ज़ल के अक्षर अक्षर तेरे हैं माँ तुझको अर्पन !
चरण कमल में शीश झुकाऊँ, भक्ति प्रखर कर दे।
माँ भारती वर दे !
-आनन्द.पाठक-