रविवार, 15 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 114/01

 [ अब यहाँ से ये तमाम अनुभूतियाँ -कही अनकही-      [ नया संग्रह] में संकलित होंगी]


क़िस्त 114/ क़िस्त 1

453

कब आना था तुमको लेकिन

निश दिन मैने पंथ निहारे

हर आने जाने वाले से

पूछ रहा हूँ  साँझ-सकारे।

454

जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो

उन रिश्तों को क्या ढोना है

हाय’ हेलो तक ही रह जाना

रस्म निबाही का होना है

455

कैसे मैं समझाऊँ तुमको

नही समझना ना समझोगी

तुम्ही सही हो, मैं ही ग़लत हूँ

बिना बात मुझ से उलझोगी

456

बात बात पर नुक़्ताचीनी

बात कहाँ से कहाँ ले गई

क्या क्या तुमने अर्थ निकाले

जहाँ न सोचा, वहाँ ले गई


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