क़िस्त 114/ क़िस्त 1
453
कब आना था तुमको लेकिन
निश दिन मैने पंथ निहारे
हर आने जाने वाले से
पूछ रहा हूँ साँझ-सकारे।
454
जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो
उन रिश्तों को क्या ढोना है
’हाय’ हेलो तक ही रह जाना
रस्म निबाही का होना है
455
कैसे मैं समझाऊँ तुमको
नही समझना ना समझोगी
तुम्ही सही हो,
मैं ही ग़लत हूँ
बिना बात मुझ से उलझोगी
456
बात बात पर नुक़्ताचीनी
बात कहाँ से कहाँ ले गई
क्या क्या तुमने अर्थ निकाले
जहाँ न सोचा, वहाँ
ले गई
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