1
तुम्हे लग न जाए किसी की नजर
मेरे हमनवा ऐ मेरे हमसफर
जुदाई की रातें न काटे कटी
शब-ए-वस्ल क्यूँ है लगे मुख्तसर
2
212 212 212
दिल में उलफत जगी तो रहे
इक शराफत बनी तो रहे
वह फरिश्ता बने ना बने
आदमी, आदमी तो रहे ।
3
212 212 212 212
खुशनुमा जिंदगी कौन जी कर गया
कौन ग़म मे जिया खुदकुशी कर गया
मैकदे को कहाँ फर्क क्या फिक्र क्या
कौन प्यासा गया कौन पी कर गया ।
4
221 2121 1221 212
कुछ सिरफिरे हैं लोग तुम्हे बरगला रहें
मजहब के नाम पर तुम्हे जन्नत दिखा रहें
दीपक जला के राह दिखाना था कल जिन्हे
मिल कर हवा के साथ वो बस्ती जला रहे
-आनन्द पाठक-
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