गीत 087: गीत 14 [ अभी संभावना है ]
इससे पहले कि हम रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।
आदमी से अजनबी हुआ आदमी
रंग के भेद में रंग गया आदमी ।
काल गोरे हो तन पर लहू एक रंग
जात और पात में बँट गया आदमी ।
इससे पहले कि हम धर्म अधूरा पढ़ें,"ढाई आख़र" पढ़े आख़िरी में ।
आदमी है खड़ा लेकर ’परमाणु-बम्ब’
आदमी बन गया साँप का तन-बदन ।
हर ज़हर से ज़हरीला हुआ आदमी
आदमी बन गया एक सीलन घुटन ।
इससे पहले कहीं हम-नस्ल ना बचे, ’गाँधी-गौतम’ बचा आदमी ।
आदमी को निगलता हुआ आदमी
आदमी से उबलता हुआ आदमी ।
आदमी आदमी से परेशान है -
अग्नि-शलाका उगलता हुआ आदमी ।
इससे पहले कि हम पर अँधेरा हँसे, रोशनी तो जगा आदमी में ।
’गाँधी’ वह जो मिटे आदमी के लिए
’सुकरात’ वह जो ज़हर के प्याले पिए
आदमी ने ही सूली चढ़ाया उसे -
आदमी जो जिया आदमी के लिए ।
इससे पहले कि फिर कोई सूली चढ़े, एक "ईशा" जगा आदमी में ।
इससे पहले कि हम रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।
-आनन्द.पाठक-
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