ग़ज़ल 424[73 फ़]
1212---1122---1212---112/22
गुनाह कर के भी होता वो शर्मसार नहीं
दलील यह है कि दामन तो दाग़दार नहीं
हज़ार रंग वो बदलेगा, झूठ बोलेगा,
मगर कहेगा कि "कुर्सी’ से उसको प्यार नहीं।
बताते ख़ुद को ही मजलूम बारहा सबको
चलेगा दांव तुम्हारा ये बार बार नहीं ।
ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता, मुगालते में है
कि उससे बढ़ के तो कोई ईमानदार नहीं।
दिखा के झूठ के आँसू , ख़बर बनाते हो
तुम्हारी बात में वैसी रही वो धार नहीं ।
यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों पर
तुम्हारी साख रही अब तो आबदार नहीं।
भले वो जो भी कहे सच तो है यही ’आनन’
किसी भी शख्स पे उसको है ऎतबार नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
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