अनुभूतियाँ 151/क़िस्त 38
601
हार गए हों जो जीवन से
टूट गईं जिनकी आशाएँ
एक सहारा देना उनको
मुमकिन है फिर से जी जाएँ
602
अगर ज़रूरत नहीं जहाँ हो
नहीं बोलना होता अच्छा ।
बेमतलब तकरार बढ़ना
जो कहते हैं ख़ुद को सच्चा ।
603
मन चंचल रहता है उसका
मन पर जबतक काली छाया
इधर उधर मन भटक रहा था
निकल सकी ना जबतक माया।
604
कौन इधर से गुजरा है जो
कलियाँ कलियाँ महक उठी हैं
तुम तो इधर नहीं आई थी ?
बुलबुल फिर क्यों चहक उठीं है?
-आनन्द पाठक-
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