सोमवार, 16 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 151/38


अनुभूतियाँ 151/क़िस्त 38


601

हार गए हों जो जीवन से

टूट गईं जिनकी आशाएँ

एक सहारा देना उनको

मुमकिन है फिर से जी जाएँ


602

अगर ज़रूरत नहीं जहाँ हो

नहीं बोलना होता अच्छा ।

बेमतलब तकरार बढ़ना

जो कहते हैं ख़ुद को सच्चा ।

603

मन चंचल रहता है उसका

मन पर जबतक काली छाया

इधर उधर मन भटक रहा था

निकल सकी ना जबतक माया।

604

कौन इधर से गुजरा है जो

कलियाँ कलियाँ महक उठी हैं

तुम तो इधर नहीं आई थी ?

बुलबुल फिर क्यों चहक उठीं है?


-आनन्द पाठक-



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