गुरुवार, 12 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 148/35 :

अनुभूतियाँ 148/35

589

एक किसी के जाने भर से

दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती

चाह अगर है जीने की तो

राह नई खुद राह दिखाती

 

590

कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी

कहाँ गया अब वो अल्हड़पन

इस बासंती मौसम में भी

दुखी दुखी क्यों रहती जानम

 

591

नदिया की अपनी मर्यादा

तट के बन्धन में रहती है

अन्तर्मन की पीड़ा अपनी

दुनिया से कब कुछ कहती है

 

592

इस अज्ञानी, इस अनपढ़ पर

कृपा करो हे अवध बिहारी 

भक्ति भाव मन मे जग जाए

कट जाए सब संकट भारी

 


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