अनुभूतियाँ 148/35
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एक किसी के जाने भर से
दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती
चाह अगर है जीने की तो
राह नई खुद राह दिखाती
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कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी
कहाँ गया अब वो अल्हड़पन
इस बासंती मौसम में भी
दुखी दुखी क्यों रहती जानम
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नदिया की अपनी मर्यादा
तट के बन्धन में रहती है
अन्तर्मन की पीड़ा अपनी
दुनिया से कब कुछ कहती है
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इस अज्ञानी, इस अनपढ़ पर
कृपा करो हे अवध बिहारी
भक्ति भाव मन मे जग जाए
कट जाए सब संकट भारी
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