रविवार, 15 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ : क़िस्त 114/01

 

क़िस्त 114/क़िस्त 1

453

कब आना था तुमको लेकिन

निश दिन मैने राह निहारे

हर आने जाने वाले से

पूछ रहा हूँ  साँझ-सकारे।

 

454

जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो

उन रिश्तों को क्या ढोना है

हाय’ हेलो तक ही रह जाना

रस्म निबाही का होना है

 

455

कैसे मैं समझाऊँ तुमको

नही समझना ना समझोगी

तुम्ही सही हो, मैं ही ग़लत हूँ

बिना बात मुझ से उलझोगी

 

456

बात बात पर नुक़्ताचीनी

बात कहाँ से कहाँ ले गई

क्या क्या तुमने अर्थ निकाले

जहाँ न सोचा, वहाँ ले गई


 

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

मुक्तक 22

122   122   122   122
1
तुम्हे लग न जाए किसी की नजर
मेरे हमनवा ऐ मेरे हमसफर
जुदाई की रातें न काटे कटी
शब-ए-वस्ल क्यूँ है लगे मुख्तसर

2
212   212  212
दिल में उलफत जगी तो रहे
इक शराफत बनी तो रहे
वह फरिश्ता बने ना बने
आदमी, आदमी तो रहे ।

3
212   212   212   212
खुशनुमा जिंदगी कौन जी कर गया
कौन ग़म मे जिया खुदकुशी कर गया
मैकदे को कहाँ फर्क क्या फिक्र क्या
कौन प्यासा गया कौन पी कर गया ।

4
221   2121   1221   212
कुछ सिरफिरे हैं लोग तुम्हे बरगला रहें
मजहब के नाम पर तुम्हे जन्नत दिखा रहें
दीपक जला के राह दिखाना था कल जिन्हे
मिल कर हवा के साथ वो बस्ती जला रहे

-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

अनुभूतियाँ 148/35

 अनुभूतियाँ 148/35

:1:
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल ।
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल ।

:2;



मंगलवार, 10 सितंबर 2024

मुक्तक 21

1
2122   2122   212
जो भी कहना था उन्हें वह कह गए
हम सियासत में उलझ कर रह गए
'वोट' वो आँसू बहा कर माँगते
भावनाओं में हम आकर बह गए ।

2
221    2121    1221   212
ग़ैरों से तेरे हाल की मिलती रही खबर
हर रोज देखता रहा तेरी ही रहगुजर
वैसे तमाम उम्र तेरा मुंतजिर रहा
ऐ जान! क्यों न भूल से आई कभी इधर?

3
122   122   122   122
कटी उम्र, उनको बुलाते बुलाते
जमाना लगेगा उन्हे आते आते
सफर जिंदगी में वो गाहे ब गाहे
हमे बेसबब क्यों रहे आजमाते

4
122    122   122   122
इशारों से गर तुम न हमको बुलाते
गुनह जाने हमको कहाँ ले के जाते
अगर दिल मे होता उजाला न तुमसे
सही या ग़लत क्या है, क्या हम बताते

-आनन्द पाठक -



कविता 31 : जब सच उठ कर

  कविता 31 : जब सच कर उठ कर


सच जब उठ कर ---

 सत्य ढूँढना, माना मुश्किल
झूठ फूस की ढेरी में
धुआँ धुआँ फैला देते हो
सच है तो फिर सच उठ्ठेगा
भले उठे वह देरी से ।

  झूठ मूठ के पायों पर
खड़ा तुम्हारा सिंहासन
आज नहीं तो कल डोलेगा
सच  उठ कर जब सच बोलेगा ।

-आनन्द पाठक-

कविता 30 : जब बचपन में

  कविता 30 : जब बचपन में

जब बचपन मे
रंग बिरंगी शोख तितलियाँ
बैठा करती थी फूलों पर
भागा करता था मै
पीछे पीछे 
जब भी उनको छूना चाहा
उड़ जाती थीं इतरा कर
इठला कर, मुझे थका कर ।

समय कहाँ रुकता जीवन में
ही तितलियाँ बैठ गईं अब
अपने अपने फूलों पर
पास से गुज़रूँ, पूछे हँस कर
"अब घुटनों का दर्द तुम्हारा, कैसा कविवर" ?


-आनन्द पाठक-

कविता 29 : सूरज निकले उससे पहले--

  कविता 29 : सूरज निकले उस से पहले--


सूरज निकले उससे पहले

या डूबे तो बाद में उसके

रोज़ हज़ारों क़दम निकलते

कुआँ खोदते पानी पीते

तिल तिल कर हैं मरते ,जीते

सबकी अपनी अलग व्यथा है

महानगर की यही कथा है ।

-आनन्द.पाठक-


कविता 28 : चन्दन वन से

 कविता 28: चन्दन वन से


जब बबूल बन से गुज़रोगे
क्या पाओगे ?
राहों में  काँटे ही काँटे
दूर दूर तक  बस सन्नाटे ।

चन्दन बन से जब गुज़रोगे 
एक सुगन्ध 
भर जाएगी साँसों में
 सावधान भी रहना होगा
शाखों से लिपटे साँपों से ।

-आनन्द.पाठक-



कविता 27 : ख़्वाब देखना

  कविता 27 :ख़्वाब देखना--


ख़्वाब देखना ,बुरा नहीं है ।
हक़ है तुम्हारा।
यह किसी की दुआ नहीं है।
सिर्फ़ देखना रोज़ देखना
और देखते ही बस रहना, कुछ न करना
फिर सो जाना, फिर खो जाना
ठीक नहीं है ।
 उठो , जगो, पुरुषार्थ जगाओ
पुरुषार्थ तुम्हारा भीख नही है ।


-आनन्द.पाठक-



कविता 26 : बदलते रिश्ते

 कविता 26 :बदलते रिश्ते 


नहीं उतरते आसमान से 
कहीं फ़रिश्ते
नहीं दिखाते सच के रस्ते
लोग यहाँ ख़ुद गर्ज़ है इतने
बदले जैसे कपड़े, वैसे
रोज़ बदलते रहते रिश्ते ।

-आनन्द.पाठक-

कविता 25 : एक कवि ने-- [हास्य]

 कविता 25 : एक कवि ने --- [हास्य]


एक कवि ने

अपनी कन्या की शादी का
विज्ञापन छपवाया
लेखन कुछ ऐसा बनवाया
'वर चाहिए'
'रचना' मेरी स्वरचित मौलिक
अब तक नहीं प्रकाशित
इसी लिए रह गई आज तक
क्वारी अविवाहित
विज्ञापन के तथ्य यदि शंकित है
मौलिकता  का प्रमाण-पत्र
'रचना ' के पृष्ठ भाग पर
अंकित है
-----०----०

किसी पत्र के संपादक ने
हामी भर दी
कवि जी ने शादी कर दी
एक साल के बाद
संपादक ने

धन्यवाद के साथ
खेद सहित
'रचना ' वापस कर दी।
और लिख दिया
रचना सुन्दर अति-श्रेष्ठ है
उम्र में हम से वरिष्ठ है
छप नही सकती
अन्य कोई हो छोटी रचना यदि आप की
तो शायद खप सकती है


-आनन्द.पाठक-

कविता 24 : सतवाँ जान्म यही है--

कविता 24 :सतवाँ जनम यही है [ हास्य]


पत्नी बोली
'सुनते हैं जी !
कल शाम मंदिर में मैंने
क्या माँगा था ?
सात जनम तक पति रुप में
तुम को पाऊ
चरणों की सेवा कर
जीवन सफल बनाऊँ" ।
मैंने बोला " भाग्यवान !
एक बात तो तुम ने कही सही है।
छह जनम तो बीत चुका है
सतवाँ जनम यही है ।

-आनन्द.पाठक-

कविता 23 : एक देश

 


कविता 23 [ आ0 धूमिल जी की एक कविता की प्रेरणा से]


एक देश

दूसरे देश से लड़ता है

दूसरा देश विरोध में लड़ता है ।

एक तीसरा देश भी है 

जो लड़ता नहीं, लड़ाता है  ।

अपना हथियार बेच,

मोटा मुनाफ़ा कमाता है।

मैं पूछता हूँ

वह तीसरा देश कौन है

इस विषय पर  भी U.N.O मौन है।


-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

ग़ज़ल 422 [ 71-फ़] : हाल इतना तेरा बुरा तो नहीं-

 ग़ज़ल 71-फ़

2122---1212---112


हाल इतना तेरा बुरा तो नहीं ।

वक़्त तेरा अभी गया तो नहीं ।


सामने हैं अभी खुली राहें ,

हौसला है,अभी मरा तो नहीं ।


एक दीपक तमाम उम्र जला

आँधियों से कभी डरा तो नहीं ।


जानता हूँ तू बेवफ़ा न सही

चाहे जो है तू बावफ़ा तो नहीं ।


इश्क अंजाम तक भले न गया

इश्क करना कोई ख़ता तो नहीं ।


आँख तेरी है क्यूँ छलक आई,

ज़िक्र मेरा कहीं हुआ तो नहीं ?


बात यह भी तो है सही ’आनन’

ज़िन्दगी क़ैद की सज़ा तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 3 सितंबर 2024

गीत 087 : इससे पहले कि हम रोशनी से जलें--

  गीत 087: गीत 14 [ अभी संभावना है ]


इससे पहले कि हम  रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।


आदमी से अजनबी हुआ आदमी

रंग के भेद में रंग गया आदमी ।

काल गोरे हो तन पर लहू एक रंग

जात और पात में बँट गया आदमी ।

इससे पहले कि हम धर्म अधूरा पढ़ें,"ढाई आख़र" पढ़े आख़िरी में ।


आदमी है खड़ा लेकर ’परमाणु-बम्ब’

आदमी बन गया साँप का तन-बदन ।

हर ज़हर से ज़हरीला हुआ आदमी 

आदमी बन गया एक सीलन घुटन ।

इससे पहले कहीं हम-नस्ल ना बचे, ’गाँधी-गौतम’ बचा आदमी ।


आदमी को निगलता हुआ आदमी

आदमी से उबलता हुआ आदमी ।

आदमी आदमी से परेशान है -

अग्नि-शलाका उगलता हुआ आदमी ।

इससे पहले कि हम पर अँधेरा हँसे, रोशनी तो जगा आदमी में ।


’गाँधी’ वह जो मिटे आदमी के लिए

’सुकरात’ वह जो ज़हर के प्याले पिए

आदमी ने ही सूली चढ़ाया उसे -

आदमी जो जिया आदमी के लिए ।

इससे पहले कि फिर कोई सूली चढ़े, एक "ईशा" जगा आदमी में ।

इससे पहले कि हम  रोशनी से जलें,’आदमी’ तो जगा आदमी में ।


-आनन्द.पाठक-





गीत 087 : वह नई रोशनी की फिर से बातें करते है --

 

गीत 087 [ अभी संभावना है]


वह नई रोशनी की फिर से  बातें करते हैं

मैं एक अँधेरा तब से अब तक भोग रहा हूँ ।


गलियों गलियों नुक्कड़ नुक्कड़ चौराहों पर

’सम्पूर्ण क्रान्ति" का नारा हमसे लगवाएँगे ।

पुन: सुनहले स्वप्न दिखा सूनी आँखों  में

सिंहासन सत्ता का हमसे हिलवाएँगे ।

तार तार हो गई मेरी विश्वास चदरिया

मैं पेबन्द पेबन्द तब से अब तक जोड़ रहा हूँ।


हम आज तलक है  खड़े उन्हीं चौराहों पर

कल हमे अकेला छोड़ कि "दिल्ली’ चले गए ।

सब सत्ता के बँटवारे  में आसक्त रहे 

                       कितने वर्षों हम उनके हाथों छले गए ।

वह आश्वासन का बोझ सौंप आश्वस्त हुए

मैं टुकड़ा-टुकड़ा अब तक जीवन जोड़ रहा हूँ ।


हर कोई एक मशाल लिए अपने हाथों में

" जे0पी0 बनने का दम्भ लिए फिरता रहता है।

हर रथी यहाँ अब स्वयं सारथी बन बैठा

हर नेता खुद को महारथी सोचा करता ।

वह शहर शहर में अश्वमेध की बातें करता

मैं बलिवेदी की तब से अब तक सोच रहा हूँ।


-आनन्द.पाठक-