ग़ज़ल 423 [72-फ़]
122---122---122---122
मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ
चिराग़-ए-मुहब्बत किधर हम जलाएँ ।
बला आसमानी से क्या ख़ौफ़ खाना
अगर साथ होंगी तुम्हारी दुआएँ ।
बदल जाएगी मेरी दुनिया यक़ीनन
मेरी ज़िंदगी में अगर आप आएँ ।
मिलेगा ठिकाना कहाँ और हमको
जहाँ जा के सजदे में यह सर झुकाएँ।
सभी अपने ग़म में गिरफ़्तार बैठे
यह जख़्म-ए-जिगर जा के किसको दिखाएँ ?
परिंदे शजर छोड़ कर उड़ गए हैं
शजर कैसे अपनी जमीं छोड़ जाएँ ।
तुम्ही को ये दुनिया बनानी है ’आनन’
फ़रिश्ते उतर कर जो आएँ न आएँ ।
-आनन्द.पाठक-
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