सोमवार, 25 मार्च 2024

गीत 85 : प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में--

गीत : प्यास ही मर गई जब


प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में

अब ये बादल भी बरसे न बरसे तो क्या !


उम्र भर है चला जो कड़ी धूप में

जिंदगी भर सफर का रहा सिलसिला

जिसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक

ख़ुद से करता भला वह कहाँ तक गिला


प्यार की छाँव जिसको मिली ही नहीं

बाद साया किसी का मिले भी तो क्या !


ज़िंदगी के सवालात थे सैकड़ों

जितना सुलझाया, उतनी उलझती गई

चन्द ख़ुशियाँ रहीं तितलियों की तरह 

और पीड़ा,  मेरे घर  ठहरती  गई  ।


दर्द की जब नदी में उतर ही गया

पार कश्ती लगे ना लगे भी तो क्या !


राह सबकी अलग सबकी मंज़िल अलग

कोई बैसाखियों से चला उम्र भर ।

पालकी भी किसी को न रास आ सकी

राह काँटों भरी , मैं चला उम्र भर ।


पाँव के आबलों में कहानी मेरी

लोग चाहे पढ़ें ना पढ़ें भी तो क्या !


    जो सफर मे रहा है गिरेगा वही

   घर मे बैठा जो होता वो गिरता कहाँ

    फूल खिलते वहीं दीप जलते वहीं

     खून बन कर पसीना है गिरता जहाँ


वाह की, दाद की क्या जरूरत उसे

मिल गया, मिल गया ना मिला भी तो क्या

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 360/35 : लोग सुनेंगे हँस कर अपनी राह

 ग़ज़ल 360/35 : लोग सुनेंगे हँस कर अपनी--

21--121--121---121---121--122  =24

सोए जो दिन रात, जगाने से क्या होगा
बहरों को आवाज़ लगाने से क्या होगा

लोग सुनेंगे हँस कर अपनी राह लगेंगे
महफ़िल महफ़िल दर्द सुनाने से क्या होगा  !

आज नहीं तो कल सच का सूरज निकलेगा
झूठ अनर्गल बात बनाने से क्या होगा  !

जब दामन के दाग़ बज़ाहिर दिखते हो 
फिर दुनिया से दाग़ छुपाने से क्या होगा !

सत्ता की साज़िश में थे जब तुम भी शामिल
तुमसे फिर उम्मीद लगाने से क्या होगा !

ऊँची ऊँची आदर्शों की बातें करना-
सिर्फ़ हवा में गाल बजाने से क्या होगा !

प्रश्न तुम्हारा ’आनन’ नाक़िस बेमानी है
तुम क्या जानो दीप जलाने से क्या होगा !


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 22 मार्च 2024

ग़ज़ल 359/34 : उसे ख़बर ही नहीं है--

 ग़ज़ल 359/34 : उसे ख़बर ही नहीं है --


1212---1122---1212---112/22


उसे ख़बर ही नहीं है, उसे पता भी नहीं

हमारे दिल में सिवा उसके दूसरा भी नहीं


न जाने कौन सा था रंग जो मिटा भी नहीं

मज़ीद रंग कोई दूसरा चढ़ा भी नहीं  ।


जो एक बार तुम्हें ख़्वाब में कभी देखा ,

ख़ुमार आज तलक है तो फिर बुरा भी नहीं।


भटक रहा है अभी तक ये दिल कहाँ से कहाँ

सही तरह से किसी का अभी हुआ भी नहीं ।


किताब-ए-इश्क़ की तमहीद ही पढ़ी उसने

"ये इश्क़ क्या है"  कभी ठीक से पढ़ा भी नहीं


ख़ला से, ग़ैब से आती है फिर सदा किसकी

वो कौन हैं? वो कहाँ है?  कभी दिखा भी नहीं ।


तमाम लोग थे " आनन"  को रोकते ही रहे

सफ़र तमाम हुआ और वह रुका भी नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

तमहीद = किसी किताब की प्रस्तावना , भूमिका, प्राक्कथन

सोमवार, 18 मार्च 2024

अनुभूतियाँ 133/20 : होली पर

अनुभूतियाँ 133/20: होली पर
1
रंग गुलालों का मौसम है
महकी हुई फिज़ाएँ भी हैं
कलियाँ कलियाँ झूम रही हैं
बहकी हुई हवाएँ भी हैं

2
रंगोली में रंग भरे हैं
चाहत के, कुछ स्नेह प्यार के
आ जाते तुम एक बार जो
आ जाते फिर दिन बहार के

"राधा" लुकती छुपती भागें
'कान्हा' ढूँढे भर पिचकारी
ग्वाल बाल की टोली आती
देख गोपियाँ देवै गारी ।


4
होली का संदेश हमारा
"प्रेम मुहब्बत भाईचारा"
गले लगा कर रंग लगाना
पर्व है अपना अनुपम न्यारा

-आनन्द पाठक-

रविवार, 17 मार्च 2024

चन्द माहिए 102 /12 होली पर

 चन्द माहिए 102/12 [होली पर]


;1: 

रंगो के दिन आए

कलियाँ शरमाईं
भौरें जब मुस्काए

:2:

आई होली आई

आज अवध में भी

खेलें चारो भाई

:3:

हर दिल पर छाई है

होली की मस्ती

गोरी घबराई है

:4:

"कान्हा मत छेड़ मुझे"

राधा बोल रही

"हट दूर परे, पगले !"


:5:

होली के बहाने से

बाज न आएगा

तू रंग लगाने से ।


-आनन्द पाठक-


चन्द माहिए : क़िस्त 101 /11 होली पर

 



चन्द माहिए 101/11 : होली पर


:1:

होली में सनम मेरे 

थाम मुझे लेना

बहके जो कदम मेरे


:2:

घर घर में मने होली

हम भी खेलेंगे

आ मेरे हमजोली 

:3;

क्यों रंग लगाता है

दिल तो अपना है

क्यों दिल न मिलाता है?

:4:

क्यों प्रीत करे तन से

रंग लगा ऐसा

उतरे न कभी मन से ।

:5:

पूछे है अमराई

फागुन तो आया

गोरी क्यूँ नहीं आई ?


-आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 358/33 : चलो होली मनाएँ---

 



ग़ज़ल 358/33


1222---1222---1222---1222


चलो होली मनाएँ आ गया फिर प्यार का मौसम

गुलाबी हो रहा है मन, तेरे पायल की सुन छम छम


लगीं हैं डालियाँ झुकने, महकने लग गईं कलियाँ

हवाएँ भी सुनाने लग गईं अब प्यार का सरगम ।


समय यह बीत ना जाए, हुई मुद्दत तुम्हें रूठे

अरी ! अब मन भी जाओ, चली आओ मेरी जानम।


भरी पिचकारियाँ ले कर चली कान्हा की है टोली

इधर हैं ढूँढते ’कान्हा’,उधर राधा हुई बेदम ।


चुनरिया भींग जाए तो बदन में आग लग जाए

लुटा दे प्यार होली में, रहे ना दिल में रंज-ओ-ग़म । 


ये मौसम है रँगोली का, अबीरों का, गुलालों का

बुला कर रंजिशें सारी, गले लग जा मेरे हमदम ।


इसी दिल में है ’बरसाना’, ’कन्हैया’ भी हैं”राधा’ भी

तू अन्दर देख तो ’आनन’ दिखेगा वह युगल अनुपम ।


-आनन्द.पाठक-



शुक्रवार, 15 मार्च 2024

ग़ज़ल 357/32 : चिराग़-ए-इश्क़ मेरा

 

ग़ज़ल 357/32

1212---1122---1212---22-


चिराग़-ए-इश्क़ मेरा यूँ बुझा नहीं होता

नज़र से आप की जो मैं गिरा नहीं होता


क़लम न आप की बिकती, नहीं ये सर झुकता

जमीर आप का जो गर बिका नहीं  होता


शरीफ़ लोग भी तुझको कहाँ नज़र आते

अना की क़ैद में जो तू रहा नहीं  होता ।


वहाँ के हूर की बातें मैं  क्या सुनूँ ,ज़ाहिद

यहाँ की हूर में भी, हुस्न क्या नही होता ?


सफ़र तवील था, कटता भला कहाँ मुझसे

सफ़र की राह में जो मैकदा नहीं होता ।


मेरे गुनाह मुझे कब कहाँ से याद आते

जो आस्तान तुम्हारा दिखा नहीं होता ।


तुम्हारे बज़्म तक ’आनन’ पहुँच गया होता

ख़याल-ए-ख़ाम में जो दिल फँसा नहीं होता


-आनन्द.पाठक- 

मंगलवार, 12 मार्च 2024

ग़ज़ल 356/31 मिलता है बड़े शौक़ से --

 ग़ज़ल 356/31

221---1221---1221---122


मिलता है बड़े शौक़ से वह हाथ बढ़ा कर

रखता है मगर दिल में वो ख़ंज़र भी छुपा कर


तहज़ीब की अब बात सियासत में कहाँ हैं

लूटा किया है रोज़ नए ख़्वाब दिखा कर


यह शौक़ है या ख़ौफ़ कि आदात है उसकी

मिलता है हमेशा वह मुखौटा ही चढ़ा कर


करने को करे बात वो ऊँची ही हमेशा

जब बात अमल की हो, करे बात घुमा कर


जिस बात का हो सर न कोई पैर हो प्यारे

उस बात को बेकार न हर बार खड़ा कर


यह कौन सा इन्साफ़, कहाँ की है शराफ़त

कलियों को मसलते हो ज़बर ज़ोर दिखा कर


’आनन’ तू करे और पे क्यों इतना भरोसा

धोखा ही मिला जब है तुझे दिल को लगा कर।


-आनन्द.पाठक-



शुक्रवार, 8 मार्च 2024

अनुभूतियाँ 132/19 : चुनावी अनुभूतियाँ


चुनावी अनुभूतियाँ  132/19


:1:

कल बस्ती में धुँआ उठा था

दो मज़हब टकराए होंगे ।

अफ़वाहों की हवा गर्म थी

लोग सड़क पर आए होंगे ।


;2:

जहाँ चुनावी मौसम आया

हवा साज़िशें करने लगती

झूठे नार वादों पर ही

जनता जय जय करने लगती 


;3:

जिस दल की औक़ात नही है

ऊँची ऊँची हाँक रहा है ।

अपना दर तो खुला छोड़ कर

दूजे दल में झाँक रहा है ।

:4:

झूठों की क्या बात करे हम

झूठ बोलने की हद कर दी

दो बोलें या दस बोलें वो

चाहे बोलें सत्तर अस्सी

गीत 84: फिर चुनाव का मौसम आया

 



चुनावी गीत


रंग बदलते नेताओं को ,देख देख गिरगिट शरमाया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


पलटी मारी, उधर गया था, पलटी मारी इधर आ गया

’कुर्सी’ ही बस परम सत्य है, जग मिथ्या है' समझ आ गया'


देख गुलाटी कला ’आप’ की, मन ही मन बंदर मुस्काया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


वही तमाशा दल बदली का, दल बदले पर दिल ना बदला

बाँट रहे हैं मुफ़्त ’रेवड़ी’, सोच मगर है गँदला ,गँदला ।


वही  घोषणा पत्र पुराना, पढ़ पढ़ जनता को भरमाया ।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


आजीवन बस खड़ा रहेगा, अन्तिम छोर खड़ा है ’बुधना’

हर दल वाले बोल गए हैं, - "तेरा भी घर होगा अपना "

जूठे नारों वादों से कब किसका पेट भला भर पाया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 6 मार्च 2024

क्षणिका 05

 चन्दन वन से


जब बबूल बन से गुज़रोगे
क्या पाओगे ?
राहों में  काँटे ही काँटे
दूर दूर तक  बस सन्नाटे ।

चन्दन बन से जब गुज़रोगे 
एक सुगन्ध 
भर जाएगी साँसों में
 सावधान भी रहना होगा
शाखों से लिपटे साँपों से ।

-आनन्द.पाठक-



क्षणिका 04

 ख़्वाब देखना--


ख़्वाब देखना ,बुरा नहीं है ।
हक़ है तुम्हारा।
यह किसी की दुआ नहीं है।
सिर्फ़ देखना रोज़ देखना
और देखते ही बस रहना, कुछ न करना
फिर सो जाना, फिर खो जाना
ठीक नहीं है ।
 उठो , जगो, पुरुषार्थ जगाओ
पुरुषार्थ तुम्हारा भीख नही है ।


-आनन्द.पाठक-