सोमवार, 25 मार्च 2024

गीत 85[09] : प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में--

गीत 85[09] : प्यास ही मर गई जब

प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में,
अब ये बादल भी बरसे न बरसे तो क्या !

उम्र भर है चला जो कड़ी धूप में
जिंदगी भर सफर का रहा सिलसिला
जिसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक
ख़ुद से करता भला वह कहाँ तक गिला

प्यार की छाँव जिसको मिली ही नहीं
बाद साया किसी का मिले भी तो क्या !

ज़िंदगी के सवालात थे सैकड़ों
जितना सुलझाया, उतनी उलझती गई
चन्द ख़ुशियाँ रहीं तितलियों की तरह 
और पीड़ा,  मेरे घर  ठहरती  गई  ।

दर्द की जब नदी में उतर ही गया
पार कश्ती लगे ना लगे भी तो क्या !

राह सबकी अलग सबकी मंज़िल अलग
कोई बैसाखियों से चला उम्र भर ।
पालकी भी किसी को न रास आ सकी
राह काँटों भरी , मैं चला उम्र भर ।

पाँव के आबलों में कहानी मेरी
लोग चाहे पढ़ें ना पढ़ें भी तो क्या !

    जो सफर मे रहेगा, गिरेगा वही
   खाट पर है जो लेटा वो गिरता कहाँ
    फूल खिलते वहीं दीप जलते वहीं
     खून बन कर पसीना है गिरता जहाँ

वाह की, दाद की क्या जरूरत उसे
मिल गया, मिल गया ना मिला भी तो क्या

-आनन्द.पाठक-

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