ग़ज़ल 357[33F]
1212---1122---1212---22-
चिराग़-ए-इश्क़ मेरा यूँ बुझा नहीं होता
नज़र से आप की जो मैं गिरा नहीं होता ।
क़लम न आप की बिकती, न सर कभी झुकता
जमीर आप का जो गर बिका नहीं होता ।
शरीफ़ लोग भी तुझको कहाँ नज़र आते ,
अना की क़ैद में जो तू रहा नहीं होता ।
वहाँ के हूर की बातें मैं क्या सुनूँ ,ज़ाहिद !
यहाँ की हूर में भी, हुस्न क्या नही होता ?
सफ़र तवील था, कटता भला कहाँ मुझसे
सफ़र की राह में जो मैकदा नहीं होता ।
मेरे गुनाह मुझे कब कहाँ से याद आते
जो आस्तान तुम्हारा दिखा नहीं होता ।
तुम्हारे बज़्म तक ’आनन’ शरीक हो जाता
ख़याल-ए-ख़ाम में जो दिल फँसा नहीं होता ।
-आनन्द.पाठक-
सं 29-06-24
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