शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

गीत 17 :हर बार समर्पण करता हूँ...

एक गीत :हर बार समर्पण करता हूँ...

हर बार समर्पण करता हूँ हर बार गया ठुकराया हूँ
अधखुली उनींदी पलकों पर
इक मधुर मिलन की आस रही
दो अधरों पर तिरते सपने
चिर अन्तर्मन की प्यास रही
हर बार याचना सावन की हर बार अवर्षण पाया हूँ

तेरे घर आने की चाहत
गिरता हूँ कभी फिसलता हूँ
पाथेय नहीं औ दुर्गम पथ
लम्बा है सफ़र ,पर चलता हूँ
हर बार कल्पना मधुबन की, हर बार विजन वन पाया हूँ

अभिलाषाओं की सीमाएं
क्यों खींच नहीं डाली हमने
कुछ पागलपन था और नहीं
ये हाथ रहे खाली अपने
हर बार समन्वय चाहा है, हर बार प्रभंजन पाया हूँ

क्यों मेरे प्रणय समर्पण को
जग मेरी कमजोरी समझा
क्यों मेरे पावन परिणय को
तुमने समझा उलझा उलझा
हर बार भरा हूँ आकर्षण , हर बार विकर्षण पाया हूँ
हर बार समर्पण करता हूँ..........

-आनन्द

शनिवार, 25 जुलाई 2009

गीत 16 : वह बैसाखी ले एक ....

वह बैसाखी ले एक हिमालय नाप गए

मैं उजियारी राहों में भटक गया हूँ
वह अँधियारी राहों से चलते आए
मैं आदर्शों का बोझ लिए कंधों पर
वह ’वैभव’ हैं ’ईमान’ बेचते आए
मैं चन्दन,अक्षत,पुष्प लिए वेदी पर
वह चेहरा और चढा़ कर देहरी लांघ गए

वह हर दर पर शीश झुकाते चले गए
मैं हर पत्थर को पूज नहीं पाता हूँ
जिनको फूलों की खुशबू से नफ़रत थी
उनको फूलों का सौदागर पाता हूँ
मैं हवन-कुण्ड में आहुति देते फिरता हूँ
वह मुट्ठी गर्म किए ’सचिवालय’ नाप गए

उनके आदर्श शयन कक्ष की शोभा है
मैं कर्म-योग से जीवन खींच रहा हूँ
वह मदिरा के धार चढा़ आश्वस्त रहे
मैं गंगाजल से विरवा सींच रहा हूँ
मैं चन्दन का अवलेप लिए हाथों पर
वह ’रावण’ की जय बोल तिलकश्री छाप गए


-आनन्द

शनिवार, 11 जुलाई 2009

गीत 15 [20] :वह तो एक बहाना भर है ....

एक गीत 15[20]

वह तो एक बहाना भर है, वरना मेरा जीना क्या है
वरना मेरा मरना क्या है


पोर-पोर आँसू में डूबे गीत-गीत के अक्षर-अक्षर
सजल-सजल हो उठे नयन है बह जाएंगे  जैसे-निर्झर
तुमको सिर्फ़ सुनाना भर है ,वरना मेरा रोना क्या है
वरना मेरा हँसना क्या है

प्रीति-प्रीति अँजुरी में भर-भर आंचल में भरने की चाहत
दूर-दूर कटती रहती हो ,मन हो जाता आहत-आहत
वह तो एक समर्पण भर है ,वरना तुमको पाना क्या है
वरना मेरा खोना क्या है

अब तो यादें शेष रह गई ऊँगली, बाँह-पकड़ कर चलना
बल खा-खा कर गिर-गिर जाना इतराती-इठलाती रहना
दर्दो को दुलराता भर हूँ वरना मेरा सोना क्या है
वरना मेरा जगना क्या है

मेरी लौ से रही अपरिचित पावन-सी यह प्रीति तुम्हारी
पत्थर-पत्थर से है परिचित शीशे की दीवार हमारी
तेरी देहरी छूना भर है वरना मेरा गिरना क्या है
वरना मेरा उठना क्या है

वह तो एक बहाना भर है ......

-आनन्द पाठक-

सं 27-11-20

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

ग़ज़ल 06 [01] : ज़माने की अगर हम....

मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन
1222----------1222---------1222------1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
------------------------------
एक ग़ज़ल 06[01]

ज़माने की अगर हम बेरुखी से डर गए होते
न होती आग दिल में तो कभी के मर गए हो्ते


अगर हम ज़ब्त करते जो सदा-ए-दिल गमे-उल्फ़त
जो टकराते पहाड़ों से पिघल पत्थर गए होते


मेरे नायाब थे आँसू, वो गौहर थे इन आँखों के
छुपा कर जो नहीं रखता ,अभी तक झर गए होते


हमारा ज़िक्र भूले से कोई जो कर गया होता
यकीनन उसकी आँखों में भी आँसू भर गए होते


अना की क़ैद ना होती ,ये दिल मगरूर ना होता
तो कूचे से तुम्हारे हम झुका कर सर गए  होते


अगर बुतख़ाने से पहले ये मयख़ाना नहीं मिलता
सुकूँ दिल को कहाँ मिलता कि किसके दर गए होते ?


सभी की मंज़िलें अपनी ,जुदा राहें यहाँ  ’आनन’
किसी भी राह से जाते तुम्हारे घर गए होते



--आनन्द.पाठक-

[सं 126-07-20]