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शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

ग़ज़ल 443[17-जी] : किसी के मिलन की --

ग़ज़ल : 443 [17-जी]
122---122---122---122


ग़ज़ल हूँ, किसी का मैं  हर्फ़-ए-वफ़ा  हूँ ।
किसी के  मिलन की, विरह की कथा हूँ ।
 
तवारीख़ में हर ग़ज़ल की गवाही
मैं हर दौर का इक सफ़ी आइना हूँ ।

कभी ’हीर’ राँझा’ की बन कर कहानी
किसी की तड़पती हुई मैं सदा हूँ ।

कभी ’मीर’ ग़ालिब’ , कभी दाग़, मोमिन
उन्हीं की मै  ख़ुशबू  का इक सिलसिला हूँ ।

ख़याल-ए-सुख़न हूँ निहाँ हर ग़ज़ल में
ग़ज़लगो, सुख़नदाँ का मैं आशना हूँ ।

ज़माने का ग़म हो कि ग़म यार का हो
हक़ीक़त बयानी की तर्ज़-ए-अदा हूँ ।

ग़ज़ल हूँ , अदब की रवायत हूँ ’आनन’
ज़माने की आवाज़ का तरज़ुमा हूँ । 

-आनन्द.पाठक-  

सोमवार, 7 जुलाई 2025

ग़ज़ल 442 [16-G) : आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त --

 ग़ज़ल  442[16-जी] : आदमी में शौक़-ए-उलफ़त 

2122---2122---2122---212


आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त और रहमत चाहिए
सोच में हो सादगी, दिल में दियानत चाहिए ।


साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं 

ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत  चाहिए ।


अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे  एक दिन

आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।



जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी

सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।


कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने

ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।



जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर

आप की बस मेहरबानी ता कयामत  चाहिए ।


ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं

मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।


-आनन्द.पाठक-





बुधवार, 2 जुलाई 2025

ग़ज़ल 441-[15-जी ]: उनको अना ग़ुरूर का ऐसा चढ़ा--

 ग़ज़ल 441[15-G] : 

221---2121---1221---212


उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा

ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।


हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा

परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।


रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए

तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।


जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई

सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।


जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है

बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।


क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त

वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।



’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर

फिर देख ज़िंदगी  कभी  होती नहीं  सज़ा ।



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
उरूज़ = उत्त्थान, विकास

ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा

राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती




शनिवार, 28 जून 2025

ग़ज़ल 440 [14-G)] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--

 ग़ज़ल 440 [ 14 जी] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--


2122---2122---2122

एक मुद्दत से वो  दुनिया से ख़फ़ा है ।

  मन मुताबिक जब न उसको कुछ मिला है 


जख़्म दिल के कर रहे है हक़ बयानी

आदमी हालात से कितना लड़ा है ।


हारने या जीतने से है ज़ियादा

आप का ख़ुद हौसला कितना बड़ा है।


बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से

पर चिराग़-ए-इश्क़ कब इन से डरा है।


आदमी की साज़िशो से साफ़ ज़ाहिर

आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।


जोश हो, हिम्मत इरादा हो अगर तो

कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।


ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’

एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।


-आनन्द.पाठक-





गुरुवार, 19 जून 2025

ग़ज़ल 439 [ 13-G) : जो राहें ख़ुद बनाते हैं--

 ग़ज़ल 439 [13-G]


1222---1222---1222---1222


जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या

मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।


पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते

उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।


नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना

उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।


रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका

हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।


मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर

नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।


अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित

बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।


करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे

पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438 [12- G] : हमारी दास्ताँ में ही--

 ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है


रविवार, 30 मार्च 2025

ग़ज़ल 437S [11-G] : यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं

 ग़ज़ल 437 [11-G]

212---212---212---212


यार मेरा कहीं  बेवफ़ा तो नहीं

 ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं


कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,

हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं


बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा

ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं


तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई

मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं


रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी 

राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं


लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही

सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।


वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ

जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें

यहाँ सुनें

https://www.facebook.com/share/v/1JErAJexTa/

बुधवार, 26 मार्च 2025

ग़ज़ल् 436 [10-G] : उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

 ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


गुरुवार, 20 मार्च 2025

ग़ज़ल 435 [09- G)) लोग क्या क्या नहीं कहा करते

 ग़ज़ल 435 [09-G]

2122---1212---22


लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,

हम भी सुन कर केअनसुना करते ।


उनके दिल को सुकून मिलता है

जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।


ताज झुकता है, तख़्त झुकता है

इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।


 कर्ज है ज़िंदगी का जो  हम पर

उम्र भर हम उसे अदा करते।


सानिहा दफ्न हो चुका कब का

कब्र क्यों खोद कर नया करते ?


जिनकी गैरत , जमीर मर जाता

चंद टुकड़ो पे वो  पला करते ।


ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’

अब तो अपने भी हैं दग़ा करते


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 17 मार्च 2025

ग़ज़ल 434 [08-G] : कहाँ आसान होता है--

 ग़ज़ल 434 [ 08-G]

1222---1222---1222---1222


कहाँ आसान होता है  किसी को यूँ भुला पाना

वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना


पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर

अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना


नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं

अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना


शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता

परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।


अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो

वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।


कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में

तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।


मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती

हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 433 [07-G] : रवायत बोझ हो जाए--

 ग़ज़ल 433 [ 07-G]

1222---1222---1222----122


रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना

अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’


इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी

ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना


किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक

छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना


हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते

तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।


शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है

शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।


तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का

ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।


मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’

अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।


-आनन्द पाठक-


रविवार, 2 मार्च 2025

ग़ज़ल 431 [05- G] : दौलत की भूख ने तुम्हे


ग़ज़ल 431[05-G]

2212---1212--2212---12


दौलत की भूख ने तुम्हे अंधा बना दिया

इस दौड़ में सुकून भी तुमने लुटा दिया


दो-चार बस फ़ुज़ूल इनामात क्या मिले

दस्तार को भी शौक़ से तुमने  गिरा दिया


इल्म.ओ.अदब की रोशनी चुभने लगी उसे

जलता हुआ चिराग़ भी उस ने बुझा दिया


लहजे में अब है तल्ख़ियाँ, लज़्ज़त नहीं रही

आदाब.ओ.तर्बियत मियाँ! तुमने भुला दिया


सत्ता ने चन्द आप को अलक़ाब क्या दिए

अपनी क़लम को आप ने गूँगा बना दिया


कुछ लोग थे कि राह में काँटे बिछा गए

कुछ लोग हैं कि राह से पत्थर हटा दिया


’आनन’ अजीब हाल है लोगों को क्या कहें

था शे’र और का, मगर अपना बता दिया।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को श्री विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] जी ने मेरी एक ग़ज़ल को बड़े ही दिलकश अंदाज़ में अपना स्वर दिया है आप भी सुनें। लिंक पर क्लिक करें और आनन्द उठाएँ


https://www.facebook.com/watch/?v=503360932825231&rdid=yXGK9YMOhcYihyGL


ग़ज़ल 432 [ 06-G ] सच तो कुछ और था-

 ग़ज़ल 432 [06-G)सच तो कुछ और था

2212---1212---2212---12

सच तो कुछ और था मगर तुमने घुमा दिया

चेहरे के रंग ने मुझे  सब कुछ बता दिया ।


देता भी क्या जवाब मैं तुझको, ऎ ज़िंदगी !

तेरे सवाल ने मुझे अब तो थका दिया ।


वैसे तुम्हारे शौक़ में शामिल तो ये न था

देखा कहीं जो बुतकदा तो सर झुका दिया


इतना भी तो सरल न था दर्या का रास्ता

पत्थर को काट काट के रस्ता बना दिया


क्या क्या न हादिसे हुए थे राह-ए-इश्क़ में

करता भी याद कर के क्या सबको भुला दिया


सुनने को दास्तान था तेरी जुबान से

तूने कहाँ से ग़ैर का किस्सा सुना दिया


कुछ शर्त ज़िंदगी की थी हर बार सामने

हर बार शर्त रो के या गा कर निभा दिया ।


क्यों पूछती हैं बिजलियाँ घर का मेरे, पता

’आनन’ का यह मकान है, किसने बता दिया?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

बुतकदा =मंदिर


शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

ग़ज़ल 430 [04G ] : यह झूठ की दुनिया ,मियां !

 ग़ज़ल 430 [04-G)


2212---2212

यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !

सच है यहाँ बे आशियाँ ।


क्यों दो दिलों के बीच की

घटती नहीं है दूरियाँ ।


बस ख़्वाब ही मिलते इधर

मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।


इस ज़िंदगी के सामने

क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।


हर रोज़ अब उठने लगीं

दीवार दिल के दरमियाँ ।


तुम चंद सिक्कों के लिए

क्यों बेचते आज़ादियाँ ।


किसको पड़ी देखें कभी

’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

ग़ज़ल 429[03G] : ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसिला है

 ग़ज़ल 429 [03 G]

2122---2122---2122-

फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन

बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम

-----  ---   --- 

ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसि्ला है्

यह किसी के चाहने से कब रुका है ?


वक़्त अपना वक़्त लेता है यक़ीनन

वक़्त आने पर सुनाता फ़ैसला है ।


कौन सा पल हो किसी का आख़िरी पल

हर बशर ग़ाफ़िल यहाँ , किसको पता है ।


कारवाँ का अब तो मालिक बस ख़ुदा ही

राहबर जब रहजनों से जा मिला है ।


रोशनी का नाम देकर् हर गली ,वो

अंध भक्तों को अँधेरा बेचता है ।


आप की अपनी सियासत, आप जाने

क्या हक़ीक़त है, ज़माना जानता है ।


वह अना की क़ैद से बाहर न आया

 इसलिए ख़ुद से अभी नाआशना है 


वक़्त हो तो सोचना फ़ुरसत में ’आनन’

मजहबी इन नफ़रतों से क्या मिला है ।


-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 20 जनवरी 2025

ग़ज़ल 428 [02G]: वह पीठ अपनी खुद ही बस

 ग़ज़ल 428 [02G]

221---2122-// 221-2122

मफ़ऊलु--्फ़ाइलातुन// मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन

बह्र-ए-मुज़ारे’ अख़रब

--   ---  ---

 वह पीठ अपनी ख़ुद ही बस थपथपा रहा है

 लिख कर क़सीदा अपना, ख़ुद गुनगुना रहा है।


कर के जुगाड़ तिकड़म वह चढ़ गया कहाँ तक,

कितना हुनर है उसमे सबको बता रहा है ।


जिस बात को ज़माना सौ बार कह चुका है ,

क्या बात है नई जो, मुझको सुना रहा है ।


वैसे ज़मीर उसका तो मर चुका है कब का ,

उसको भी यह पता है फिर भी जगा रहा है।


वह झूठ ओढ़ता है, वह झूठ ही बिछाता ,

कट्टर इमान वाला, तगमा दिखा रहा है ।


आवाज़ दे रहा है ,चेहरा बदल बदल कर ,

अब कौन सुन रहा है, किसको बुला रहा है ।


वादे तमाम वादे कर के नहीं निभाना ,

उम्मीद क्यों तू ’आनन’ उससे लगा रहा है ।


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2024

ग़ज़ल 427[ 01G] ; नशा दौलत का है उसको--

 ग़ज़ल  427 [01G]

1222---1222---1222---1222

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

--- ---- --- 

नशा दौलत का है उसको, अभी ना होश आएगा

खुलेगी आँख तब उसकी, वो जब सब कुछ गँवाएगा।


बहुत से लोग ऐसे हैं,  ख़ुदा ख़ुद को समझते हैं

सही जब वक़्त आएगा, समय सब को सिखाएगा।


बख़ूबी जानता है वह कि उसकी हैसियत क्या है

बड़ा खुद को बताने में  तुम्हें कमतर बताएगा ।


वो साज़िश ही रचा करता, हवाओं से है याराना

अगर मौक़ा मिला उसको, चिराग़ों को बुझाएगा


किताबों में लिखीं बाते, सुनाता हक़ परस्ती की

अमल में अब तलक तो वह, न लाया है, न लाएगा


हवा में भाँजता रहता है तलवारें  दिखाने को

जहां कुर्सी दिखी उसको, चरण में लोट जाएगा ।


शराफत की भली बातें, कहाँ सुनता कोई "आनन"

सभी अपनी अना  में है, किसे तू क्या सुनाएगा ।


-आनन्द.पाठक-



इस ग़ज़ल को आप श्री विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में यहाँ सुनें

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रविवार, 29 सितंबर 2024

ग़ज़ल 426[75 फ़] : झूठे ख़्वाब दिखाते क्यों हो

 

ग़ज़ल  426[75 फ़]

21--121--121--122  =16


झूठे ख़्वाब  दिखाते क्यों हो

सच को तुम झुठलाते क्यों हो


कुर्सी क्या है आनी-जानी

तुम दस्तार गिराते क्यों हो


तर्क नहीं जब पास तुम्हारे

इतना फिर चिल्लाते क्यों हो।


गुलशन तो हम सबका है फिर

तुम दीवार उठाते क्यों हो ।


बाँध कफ़न हर बार निकलते

पीठ दिखा कर आते क्यों हो ।


जब जब लाज़िम था टकराना

हाथ खड़े कर जाते क्यों हो ।


पाक अगर है दिल तो ’आनन’

दरपन से घबराते क्यों हो ।


-आनन्द.पाठक - 





शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

ग़ज़ल 425 [74 फ़] : कोई आता है दुनिया में

 ग़ज़ल  425[74 फ़}


1222---1222---1222---1222


कोई आता है दुनिया में , कोई दुनिया से जाता है,

नवाज़िश है करम उसका, हमे क्या क्या दिखाता है


नही जो पाक सीरत हो, भरा हिर्स-ओ-हसद से दिल

इबादत या ज़ियारत हो, ख़ुदा नाक़िस बताता है ।


भरोसा है अगर उस पर, झिझक क्या है, हिचक फिर क्या

उसी का नाम लेता चल, अज़ाबों से बचाता है ।


न जाने क्या समझ उसकी, बहारों को ख़िज़ा कहता

हक़ीक़त जान कर भी वह, हक़ीक़त कह न पाता है ।


अदा करना जो चाहो हक़, तुम्हारी अहलीयत होगी

वगरना बेग़रज़ कोई फ़राइज़ कब निभाता है ।


तबियत आ ही जाती है जो ख़्वाहिश हो अगर उनकी

बना कर राहबर भेजे जिसे अपना बनाता  बनाता है ।


हुए गुमराह क्यों ’आनन’ ये सीम-ओ-ज़र के तुम पीछे

अगर दिल की सुना करते , सही राहें बताता है ।


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

ग़ज़ल 424 S [73-फ़] : गुनाह कर के भी होता वो---

 ग़ज़ल 424[73 फ़]

1212---1122---1212---112/22


गुनाह कर के भी होता वो शर्मसार नहीं

दलील यह है कि दामन तो दाग़दार नहीं


हज़ार रंग वो बदलेगा, झूठ बोलेगा,

मगर कहेगा कि "कुर्सी’ से उसको प्यार नहीं।


बताते ख़ुद को ही मजलूम बारहा सबको

चलेगा दांव तुम्हारा ये बार बार नहीं ।


ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता, मुगालते में है

कि उससे बढ़ के तो कोई ईमानदार नहीं।


दिखा के झूठ के आँसू , ख़बर बनाते हो

तुम्हारी बात में वैसी रही वो धार नहीं ।


यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों पर

तुम्हारी साख रही अब तो आबदार नहीं।


भले वो जो भी कहे सच तो है यही ’आनन’

किसी भी शख्स पे उसको है ऎतबार नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में 

यहाँ सुने

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