ग़ज़ल 440 [ 24 जी] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--
2122---2122---2122
एक मुद्दत से वो दुनिया से ख़फ़ा है ।
मन मुताबिक़ जब न उसको कुछ मिला है
जख़्म-ए-दिल कर रहे है हक़ बयानी
आदमी हालात से कितना लड़ा है ।
हारना या जीतना अपनी जगह है
हौसला उसका मगर कितना बड़ा है।
बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से
पर चिराग़-ए-इश्क़ इन से कब डरा है।
हो गया अंधा कभी खुदगर्जियों से
आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।
हौसला हिम्मत इरादा हो अगर तो
कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।
ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’
एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।
-आनन्द.पाठक-
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