शनिवार, 25 जनवरी 2014

ग़ज़ल 57 [52] : राह अपनी वो चलता गया....


ग़ज़ल 57[52]

मंच के सभी सदस्यों को 
 गणतन्त्र दिवस की शुभकामनायें और नई उम्मीदों से नए दिवस का स्वागत
छोटी बहर में -एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं
’मतला’ से इशारा साफ़ हो जायेगा ,बाक़ी आप सब स्वयं समझ जायेंगे

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन
212---212---212


राह अपनी वो चलता रहा
’आप’ से ’हाथ’ जुड़ता रहा

मुठ्ठियाँ इन्क़लाबी रहीं
पाँव लेकिन फिसलता रहा

एक सैलाब आया तो था
धीरे धीरे उतरता रहा

जादूगर तो नहीं ,वो मगर
जाल सपनों का बुनता रहा

एक चेहरा नया सा लगा
रंग वो भी बदलता रहा

एक सूरज निकलने को था
उस से पहले ही ढलता रहा

जिस से ’आनन’ को उम्मीद थी
वो भरोसे को छलता रहा ।

-आनन्द.पाठक

[सं 300918]


शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

गीत 52: छा न जाएँ शहर पे



छा न जाएं शहर पे ये ख़ामोशियाँ
तुम भी गाती रहो,मैं भी गाता रहूँ

ये शहर था  हमारे  लिए  अजनबी
एक तुम जो मिली तो ख़ुशी ही ख़ुशी
अब ख़ुदा से हमें और क्या  माँगना
तुम मेरी ’मेनका’ तुम मेरी  ’उर्वशी’
लिख सको तो मिलन गीत ऐसा लिखो
उम्र भर मैं जिसे गुनगुनाता  रहूँ

लोग आते यहाँ अपने सपने लिए
एक मक़सद लिए ज़िन्दगी के लिए
सबको जल्दी पड़ी ,सबको अपनी पड़ी
कोई रुकता नहीं दूसरों के लिए
थक न जाओ कहीं चलते चलते यहाँ
अपनी पलकों पे तुम को बिठाता रहूँ

भीड़ का एक समन्दर हुआ है शहर
किसकी मंज़िल किधर और जाता किधर
जिसको साहिल मिला वो सफल हो गया
किसकी डूबी है कश्ती किसे है ख़बर
इस शहर में कहीं राह भटको न तुम
प्रेरणा का दिया मैं जलाता  रहूँ

हर गली मोड़ पे होती दुश्वारियाँ
जब निगाहें ग़लत चीरती है बदन
ज़िन्दगी के सफ़र में हो तनहाईयां
ढूँढती है वहीं दो बदन-एक मन
सर टिका दो अगर मेरे कांधे से तुम
आशियाँ एक अपना बनाता रहूँ

-आनन्द.पाठक


मंगलवार, 21 जनवरी 2014

ग़ज़ल 56 [02] : ये बाद-ए-सबा है..

ग़ज़ल 56[02]

122--122--122---122

ये बाद-ए-सबा है ,भरी ताज़गी है
फ़ज़ा में अजब कैसी दीवानगी है

निज़ाम-ए-चमन जो बदलने चला तो
क्यूँ अहल-ए-सियासत को नाराज़गी है

वो सपने दिखाता ,है बातें  बनाता
ख़यालात में उस की बेचारगी  है

बदल दे ज़माने की रस्म-ओ-रवायत
अभी सोच में तेरी पाकीज़गी है

दुआयें करो ये तलातुम से उबरे
गो मौजों की कश्ती  से रंजीदगी है

वो वादे निभाता, निभाता भी कैसे ?
वफ़ा में कहाँ अब रही पुख़्तगी है  ?

हो दीवार-ए-ज़िन्दां से क्यों ख़ौफ़ ’आनन’
अगर तेरी ताक़त तेरी सादगी है


दीवार-ए-ज़िन्दां = क़ैदख़ाने की दीवार

-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

गीत 51 : किसकी यह पाती है ---?



एक युगल गीत  :किसकी यह पाती है-----

[ बचपन की प्रीति थी, जब  बड़ी हो गई, दुनिया की रस्म ,रिवायात  खड़ी हो गईं। हालात ऐसे की परवान न चढ़ सकीं ।जीवन के सुबह की एक लिखी हुई पाती ,जीवन के शाम में मिलती  गुमनाम ।
जीवन के सारे घटनाक्रम स्मृति पटल पर किसी चलचित्र की भाँति उभरते गए----। उस पाती में कुछ बातें नायक ने कही---कुछ नायिका ने कही। आप स्वयं समझ जायेंगे।

किसकी यह पाती है ,जीवन के नाम 
मिलती है शाम ढले , मुझको गुमनाम  ?

 पूछा है तुमने जो मइया का हाल   
 खाँसी से , सर्दी से रहतीं बेहाल
 लगता है आँखों में है ’मोतियाबिन’
 कैसी हो तुम बोलो? कैसी ससुराल?

पकड़ी हैं खटिया औ’ लेती हरिनाम
कहती हैं-’करना है अब चारो धाम’

 हाँ ,मइया की ’मुनिया’ है अच्छी भली
मइया से कह देना  वो पूतो   फली
 देखा था मइया में  सासू’  का रूप
 ’बिधिना’ के आगे कब है किसकी चली !

 जो चाहेंगे भगवन, तो अगले जनम 
मइया से कह देना हमरा परनाम

 अब की जो सावन में जाना हो गाँव
 बचपन मे खेले थे  कागज की नाव
 मन्नत के धागे  जो मिल कर थे बाँधे 
 पड़ती है उस पर क्या पीपल की छाँव ?

सावन के झूले अब आते हैं याद
रहता है  होठों  पर बस तेरा नाम? 

 सुनती हूँ गोरी अँगरेजन सौगात
 ’कोरट’ में शादी कर लाए हो साथ
 चलती हो ’बिल्ली’ ज्यों ’हाथी’ के संग
 मोती की माला ज्यों ’बन्दर’ के हाथ

हट पगली ! काहे को छेड़े है आज
ऐसे भी करता क्या कोई  बदनाम !

कैसी थी मजबूरी ? क्या था आपात?
छोड़ो सब बातें वह , जाने दो, यार !
कितनी हैं बहुएँ औ’ कितने संतान ?
कैसे है ’वो’ जी ? क्या करते हैं प्यार ?

कट जाते होंगे दिन पोतों के संग
बहुएँ क्या खाती हैं  फिर कच्चे आम ?

 जाड़े में ले लेना ’स्वेटर’ औ’ शाल
 खटिया ना धर लेना ,फिरअब की साल
 मिलने से मीठा है मिलने की चाह
 काहे को करते हो मन को बेहाल

सुनती हूँ -करते हो फिर से मदपान
क्या ग़म है तुमको जो  पीते हर शाम

 अपनी इस ’मुनिया’ को तुम जाना भूल
 जैसे   थी वह कोई आकाशी फूल  
 अपना जो समझो तो कर देना माफ़
 कब मिलते दुनिया में नदिया के कूल !

दो दिल जब हँस मिल कर गाते हैं गीत
दुनिया तो करती ही रहती  बदनाम

 धत पगली ! ऐसी क्या होती है रीत
 खोता है कोई क्या  बचपन की प्रीत
 साँसों में घुल जाता जब पहला प्यार
  प्राणों से पहले कब निकला है,  मीत !

इस पथ का राही हूँ ,मालूम है खूब
मर मर के जीना औ’ चलना है काम

किसकी यह पाती है ,जीवन के नाम 
शाम ढले मिलती है  मुझको गुमनाम।

-आनन्द.पाठक--

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

गीत 50 : नफ़रत की होलिका जलाएं...



नफ़रत की होलिका जलाएं, रंग चलो प्यार के लगाएं

रस्में जो हो गईं पुरानी
जैसे कि ठहरा हुआ पानी
चेतना की नई लेखनी से
नए दौर की लिखें कहानी
’वसुधैव कुटुम्बकम’-की धुन पे, गूंज उठें वेद की ऋचाएं 

कोसने से क्या भला मिलेगा
अँधियारा तो नहीं  मिटेगा
हौसले से मुठ्ठियाँ जो भींचो
ज़मीं तो क्या, आस्मां हिलेगा
उठती दीवार जब गिराएं, आयेंगी सन्दली हवाएं

बातें जो  बीत गई ,छोड़ो
दो दिल के बीच सेतु जोड़ो
रूढियां जो रोकतीं हों राहें
मिल के उन रूढियों को तोड़ो
 अंगद-सा एक पाँव रख दो ,टूटने लगेंगी वर्जनाएं

तितलियों के पंख तुम कतर के
किस पे  पौरुष जता रहे हो ? 
ये तो कोई वीरता नहीं  है
जैसा कि तुम बता रहे  हो
मन से कभी भाग न सकोगे, घेरती रहेंगी  चेतनाएं

सड़कों पे  भीड़ उतर आई
मौसम नें ली हैं अँगड़ाई
कल तक जो आम आदमी था
उसने आवाज़ तो उठाई
भरने दो रंग तूलिका से ,उसकी जो भी हैं कल्पनाएं
नफ़रत की होलिका जलाएं-रंग चलो प्यार के लगाएं ।

-आनन्द.पाठक-