नफ़रत की होलिका जलाएं, रंग चलो प्यार के लगाएं
रस्में जो हो गईं पुरानी
जैसे कि ठहरा हुआ पानी
चेतना की नई लेखनी से
नए दौर की लिखें कहानी
’वसुधैव कुटुम्बकम’-की धुन पे, गूंज उठें वेद की ऋचाएं
कोसने से क्या भला मिलेगा
अँधियारा तो नहीं मिटेगा
हौसले से मुठ्ठियाँ जो भींचो
ज़मीं तो क्या, आस्मां हिलेगा
उठती दीवार जब गिराएं, आयेंगी सन्दली हवाएं
बातें जो बीत गई ,छोड़ो
दो दिल के बीच सेतु जोड़ो
रूढियां जो रोकतीं हों राहें
मिल के उन रूढियों को तोड़ो
अंगद-सा एक पाँव रख दो ,टूटने लगेंगी वर्जनाएं
तितलियों के पंख तुम कतर के
किस पे पौरुष जता रहे हो ?
ये तो कोई वीरता नहीं है
जैसा कि तुम बता रहे हो
मन से कभी भाग न सकोगे, घेरती रहेंगी चेतनाएं
सड़कों पे भीड़ उतर आई
मौसम नें ली हैं अँगड़ाई
कल तक जो आम आदमी था
उसने आवाज़ तो उठाई
भरने दो रंग तूलिका से ,उसकी जो भी हैं कल्पनाएं
नफ़रत की होलिका जलाएं-रंग चलो प्यार के लगाएं ।
-आनन्द.पाठक-
1 टिप्पणी:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (10.01.2014) को " चली लांघने सप्त सिन्धु मैं (चर्चा -1488)" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है,नव वर्ष कि मंगलकामनाएँ,धन्यबाद।
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