बुधवार, 31 अगस्त 2022

ग़ज़ल 257 [22E]: हर बार अपनी पीठ स्वयं थपथपा गए

 


ग़ज़ल 257[22E]


221---2121---1221--212


हर बार अपनी पीठ स्वयं थपथपा रहे

’कट्टर इमानदार हैं-खुद को बता रहे


दावे तमाम खोखले हैं ,जानते सभी

क्यों लोग बाग उनके छलावे में आ रहे?


झूठा था इन्क़लाब, कि सत्ता की भूख थी

कुर्सी मिली तो बाद अँगूठा  दिखा रहे


उतरे हैं आसमान से सीधे ज़मीन पर

जो सामने दिखा उसे बौना बता रहे


वह बाँटता है ’रेवड़ी’ खुलकर चुनाव में

जो  लोग मुफ़्तखोर हैं झाँसे मे आ रहे


वो माँगते सबूत हैं देते मगर न खुद

आरोप बिन सबूत के सब पर लगा रहे


वैसे बड़ी उमीद थी लोगों की ,आप से

अपना ज़मीर आप कहाँ बेच-खा रहे


’आनन’ वो तीसमार है इसमें तो शक नहीं

वो बार बार काठ की हंडी चढ़ा रहे ।


-आनन्द.पाठक-

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सोमवार, 29 अगस्त 2022

ग़ज़ल 256 [21E] : सिर्फ़ आसमान में न उड़ा कीजिए जनाब

 ग़ज़ल 256 [21E]


221---2121--1221---212


सिर्फ़ आसमान में न उड़ा कीजिए, जनाब !

नज़रें ज़मीन पर भी रखा कीजिए जनाब‘


इतनी तिजोरियाँ न भरा कीजिए जनाब‘

कुछ कर्ज़ ’वोट’का भी अदा कीजिए जनाब‘


जो ज़ख़्म भर गया था समय के हिसाब से

उस ज़ख़्म को न फिर से हरा कीजिए जनाब‘


क्यों सब्ज़ बाग़ आप दिखाते हैं रोज़-रोज़

’रोटी’ की बात भी तो ज़रा कीजिए जनाब 


आवाज़ दे रहा हूँ खड़ा हाशिए पे मैं

आवाज़-ए-इन्क़लाब सुना कीजिए जनाब


"दुनिया में कोई और बड़ा है न आप से"

इन बदगुमानियों से बचा कीजिए जनाब


’आनन’ की बात आप को शायद बुरी  लगे

अपनी ही बात से न फिरा कीजिए जनाब‘


-आनन्द.पाठक-




ग़ज़ल 255[20E] : उनसे हुआ है आज तलक सामना नहीं

 ग़ज़ल 255 [20E]

221---2121--1221--212


उनसे हुआ है आज तलक सामना नहीं

कोई ख़बर नहीं है कोई राबिता नहीं


दिल की ज़ुबान दिल ही समझता है ख़ूबतर

तुमने सुना वही कि जो मैने कहा नहीं


दावा तमाम कर रहे हो इश्क़ का मगर

लेकिन तुम्हारे इश्क़ में हर्फ़-ए-वफ़ा नहीं


आती नहीं नज़र मुझे ऐसी तो कोई  शै

जिसमें तुम्हारे हुस्न का जादू दिखा नहीं‘


वो हमनवा है, यार है, सुनता हूँ आजकल‘

वो मुझसे बेनियाज़ है लेकिन ख़फ़ा नहीं‘


वह राह कौन सी है जो आसान हो यहाँ

इस दिल ने राह-ए-इश्क़ में क्या क्या सहा नहीं‘


लोगो की बात को न सुना कीजिए , हुज़ूर 

कहना है उनका काम, मै दिल का बुरा नहीं 


जो भी सुना है तुमने किसी और से सुना

’आनन’ खुली किताब है तुमने पढ़ा नहीं‘


-आनन्द.फाठक-


शब्दार्थ 

राबिता =राब्ता = सम्पर्क

शै         = चीज़

हमनवा‘ = समान राय वाला

बेनियाज़ = बेपरवा 


गुरुवार, 25 अगस्त 2022

ग़ज़ल 254 [19E] : जो हो रहा है उस पे कभी बोलिए--

 ग़ज़ल 254

221--2121--1221--212


जो हो रहा है उस पे कहा कीजिए हुज़ूर!

नफ़रत की आग की तो दवा कीजिए, हुज़ूर!


ऎसा न हो अवाम सड़क पर उतर पड़े

क्या कह रहा अवाम सुना कीजिए हुज़ूर !


माना कि हम ग़रीब हैं, ग़ैरत तो है बची

जूते की नोक पर न रखा कीजिए, हूज़ूर !


दीवार पे लिखी है इबारत पढ़ा करें-

आवाज़ वक़्त की भी सुना कीजिए, हुज़ूर !


पाला बदल बदल के ये ’कुर्सी’ तो बच गई

गिरवी ज़मीर को न रखा  कीजिए. हुज़ूर !


चेहरा जो आइने में कभी आ गया नज़र

चेहरा है आप का, न डरा कीजिए हुज़ूर !


कुछ इस ग़रीब को भी नज़र मे रखा करें

खुल कर कभी तो आप मिला कीजिए हुजूर


’आनन’ तो सरफिरा है कि सच बोलता है वो

दिल पर न उसकी बात लिया कीजिए, हुज़ूर !


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 22 अगस्त 2022

ग़ज़ल 253[18E]: क्या हाल-ए-दिल सुनाऊँ

 ग़ज़ल 253


221---2122--// 221-2122


क्या हाल-ए-दिल सुनाऊँ, क्या और कुछ बताऊँ 

जब सब ख़बर है तुमको फिर और क्या छुपाऊँ


जो हो गया मु’अल्लिम, राहें बता रहे हैं-

मुझको पता नहीं है किस राह से मैं आऊँ


देखूँ उन्हें तो कैसे, इक धुन्द-सा घिरा है

निकलूँ कभी अना से तो साफ़ देख पाऊँ


दुनिया के कुछ फ़राइज़, हिर्स-ओ-हसद के फ़न्दे

मैं क़ैद हूँ हवस में, आऊँ तो कैसे आऊँ


आवाज़ दे रहा है, वह कौन जो बुलाता

कार-ए-जहाँ से फ़ुरसत पाऊँ अगर तो आऊँ


देखूँ जो दूर से भी जब आस्ताँ तुम्हारा 

उस सिम्त बा अक़ीद्त सज़्दे में सर झुकाऊँ


हो आप की इजाज़त ’आनन’ की आरज़ू है

जिस राह आप गुज़रें पलकें उधर बिछाऊँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

मु’अल्लिम

अना से = अहम से 

फ़राइज़  = फ़र्ज़ का ब0व0

हिर्स-ओ-हसद= लालच इर्ष्या लोभ मोह माया

 कार-ए जहाँ से = दुनिया के कामों से 

आस्तां = चौखट ,ड्योढ़ी

उस सिम्त = उस दिशा में 

बाअक़ीदत = श्रद्धा पूर्वक


रविवार, 21 अगस्त 2022

ग़ज़ल 252 [17E]: यह नज्म जिंदगी की

 ग़ज़ल 252


221--2122 // 221--2122


यह नज़्म जिंदगी की होती कहाँ है पूरी

हर बार पढ़ रहा हूँ, हर बार है अधूरी


दोनों‘ अज़ीज़ मुझको पस्ती भी और बुलन्दी

इस ज़िंदगी में होना दोनो का  है ज़रूरी 


है कौन जो हमेशा बस ज़ह्र घोलता है

हर वक़्त बदगुमानी क्यों सोच है फ़ुतूरी


राहें तमाम राहें जातीं तम्हारे दर तक

लेकिन बनी हुई है दो दिल के बीच दूरी


हर दौर में है देखा बैसाखियों पे चल कर 

बन जाते राहबर है कुछ कर के जी हुज़ूरी


इक दिन ज़रूर उनको मज़बूर कर ही देगी

बेअख्तियार दिल की मेरी ये नासबूरी

 

उम्मीद तो है ’आनन’, पर्दा उठेगा रुख से

मैं मुन्तज़िर अज़ल से कब तक सहूँ मैं दूरी 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पस्ती = पतन 

फ़ुतूरी सोच = फ़सादी सोच

मीर-ए-कारवाँ = कारवां का लीडर 

नासबूरी = अधीरता 

मुन्तज़िर अज़ल से = अनादि काल से/ हमेशा से प्रतीक्षारत 


गुरुवार, 18 अगस्त 2022

ग़ज़ल 251[16E ]: फैला कोहरा , फैलता ही जा रहा है

ग़ज़ल 251

2122---2122---2122


फैला कोहरा, फैलता ही जा रहा है 

और गुलशन दिन ब दिन मुरझा रहा है


झूठ को ही सच बता कर, मुस्करा कर

वह दलीलों से हमें भरमा रहा है


पस्ती-ए-अख़्लाक़ कैसी हो गई अब

आदमी ख़ुद को किधर ले जा रहा है


जंग अपनी ख़ुद तुझे लड़नी पड़ेगी

हाशिए पर क्यों‘ खड़ा चिल्ला रहा है


कल तलक‘ चेहरा शराफ़त का सनद था

बाल शीशे में नज़र अब आ रहा है


कौन है जो साजिशों का जाल बुनता

कौन है जो बरमला धमका रहा है


खिड़कियाँ क्यों बन्द कर रख्खा है, प्यारे !

खोल दे अब, दम ये घुटता जा‘ रहा है


रोशनी रुकती कहाँ रोके से ’आनन’

ख़ैर मक़्दम है,  उजाला आ रहा है


शब्दार्थ

दलाइल से = दलीलों से

पस्ती-ए-अख़्लाक़ = चारित्रिक पतन

बाल शीशे में नज़र आना = दोष नज़र आना

बरमला = खुल्लमखुल्ला. खुले आम


बुधवार, 17 अगस्त 2022

ग़ज़ल 250[15E] : कोई रहता मेरे अन्दर

ग़ज़ल 250 [15E]

मूल बहर

21-121-121-122 = 21-122 // 21-122


कोई रहता  मेरे अन्दर

ढूँढ रहा हूँ किसको बाहर ?


आलिम, तालिब, अल्लामा सब

पढ़ न सके हैं "ढाई आखर"


दर्द सभी के यकसा होते

किसका कमतर? किसका बरतर?


साथ तुम्हारा मिल जाए तो

क्या जन्नत ! क्या आब-ए-कौसर !


ज़ाहिद सच सच आज बताना

क्या है यह हूरों का चक्कर ?


रंज़-ओ-ग़म हो लाख तुम्हारा

कौन सुनेगा साथ बिठा कर 


देख कभी दुनिया तू ’आनन’

नफ़रत की दीवार गिरा कर ।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

यकसा =एक जैसा

बरतर = बढ़ कर

आब-ए-कौसर =स्वर्ग का पानी


गुरुवार, 11 अगस्त 2022

ग़ज़ल 249 [14E] : आप को राज़-ए-दिल बताना क्या

 ग़ज़ल 249 [14E]


2122---1212---22


आप को राज़-ए-दिल बताना क्या !

उड़ते बादल का है ठिकाना  क्या !


बेरुखी आप की अदा ठहरी

मर गया कौन ये भी जाना क्या !


बारहा मैं सुना चुका तुम को

फिर वही हाल-ए-दिल सुनाना क्या !


लोग कहते हैं सब पता तुम को

हसरत-ए-दिल का फिर छुपाना क्या !


जानता हूँ तुम्हें नहीं आना-

रोज़ करना नया बहाना  क्या !


रोशनी ही बची न आँखों में

रुख से पर्दे का फिर उठाना क्या !


इश्क़ की आग दिल में लग ही गई

जलने दो , अब इसे बुझाना क्या !


जो भी कहना है खुल के कह ’आनन’

बेसबब बात को घुमाना क्या !


-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 9 अगस्त 2022

ग़ज़ल 248 [13E] : बीज नफ़रत के बोए जाते हैं

 ग़ज़ल 248 [13E]


2122----1212---22


बीज नफ़रत के बोए जाते हैं

लोग क्यॊं बस्तियाँ जलाते हैं


एक दिन वो भी ज़द में आएँगे

ख़ार  राहों में जो बिछाते हैं


गर चिरागाँ सजा नहीं सकते

तो चिरागों को क्यों बुझाते है ?


खुद को वो दूध का धुला कहते 

कठघरे में कभी जो आते हैं


जिनके दामन रँगे गुनाहों से

ग़ैर पर ऊँगलियाँ  उठाते हैं


दीन-ओ-मज़हब के नाम पर दंगे

’वोट’ की खातिर सदा कराते हैं


आप से अर्ज़ क्या करे ’आनन’

कौन सी बात मान जाते हैं ।


-आनन्द.पाठक-


चिरागाँ = दीपमालिका

ग़ज़ल 247[12E] : आप से दिल लगा के बैठे हैं--

  ग़ज़ल 247 [12E]


2122---1212---22


आप से दिल लगा के बैठे हैं

खुद को ख़ुद से भुला के बैठे हैं


हाल-ए-दिल हम सुना रहें उनको

और वो मुँह घुमा के बैठे हैं


इश्क़ में कौन जो नहीं फिसला

दाग़-ए-इसयाँ लगा के बैठे हैं


एक दिन वो इधर से गुज़रेंगे

राह पलकें बिछा के बैठे हैं


मेरी चाहत में कुछ कमी तो न थी

वो नज़र से गिरा के बैठे हैं


या इलाही ! उन्हे हुआ क्या है !

ग़ैर के पास जा के बैठे हैं


बात ’आनन’ ने क्या कही ऐसी

आप दिल से लगा के बैठे हैं 


-आनन्द.पाठक-


दाह-ए-इसयाँ = गुनाहों के दाग़

ग़ज़ल 246 [11E] : दर्द दिल में जगा के रखते हैं

 ग़ज़ल 246 [11E]


2122---1212---22


दर्द-दिल में जगा के रखते हैं

राज़ अपना छुपा  के रखते हैं


इश्क़ में कुछ ग़लत न कर बैठे

दिल को समझाबुझा के रखते हैं


जो मिला आप की इनायत है

रंज़-ओ-ग़म भी सजा के रखते हैं


लोग ऐसे भी हैं ज़माने में

जाल अपना बिछा के रखते हैं


तीरगी में भटक न जाएँ, वो

लौ दिए की बढ़ा  के रखते हैं


जब नज़र आते नक़्श-ए-पा उनके

सामने सर झुका के रखते हैं


अक्स है आप ही का जब ’आनन’

फ़ासिला क्यों बना के रखते हैं ?


-आनन्द.पाठक-


तीरगी में = अन्धकार में /अँधेरे में