ग़ज़ल 251
2122---2122---2122
फैला कोहरा, फैलता ही जा रहा है
और गुलशन दिन ब दिन मुरझा रहा है
झूठ को ही सच बता कर, मुस्करा कर
वह दलीलों से हमें भरमा रहा है
पस्ती-ए-अख़्लाक़ कैसी हो गई अब
आदमी ख़ुद को किधर ले जा रहा है
जंग अपनी ख़ुद तुझे लड़नी पड़ेगी
हाशिए पर क्यों‘ खड़ा चिल्ला रहा है
कल तलक‘ चेहरा शराफ़त का सनद था
बाल शीशे में नज़र अब आ रहा है
कौन है जो साजिशों का जाल बुनता
कौन है जो बरमला धमका रहा है
खिड़कियाँ क्यों बन्द कर रख्खा है, प्यारे !
खोल दे अब, दम ये घुटता जा‘ रहा है
रोशनी रुकती कहाँ रोके से ’आनन’
ख़ैर मक़्दम है, उजाला आ रहा है
शब्दार्थ
दलाइल से = दलीलों से
पस्ती-ए-अख़्लाक़ = चारित्रिक पतन
बाल शीशे में नज़र आना = दोष नज़र आना
बरमला = खुल्लमखुल्ला. खुले आम
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