शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

ग़ज़ल 199 : कहीं तुम मेरा आइना तो नहीं हो ?

 ग़ज़ल 199


122---122---122---122


कहीं तुम मेरा आइना तो नहीं हो ?

मेरे हक़ की हर्फ़-ए-दुआ तो नहीं हो ?


ये माना तुम्हारे मुक़ाबिल न कोई

मगर इसका मतलब ख़ुदा तो नहीं हो 


ये लम्बी ख़मोशी डराती है मुझको

कहीं बेसबब तुम ख़फ़ा तो नहीं हो


हवाओं में ख़ुशबू अभी तक तुम्हारी

कहीं तुम ख़ुद अपना पता तो नहीं हो ?


ख़ला से मेरी लौट आती सदाएँ

कहीं तुम मेरे हमनवा तो नहीं हो ?


बहुत लोग आए तुम्हारे ही जैसे

फ़ना हो गए, तुम जुदा तो नहीं हो


किसी दिन तुम्हें ढूँढ लूँगा मैं ’आनन’

मेरे दिल मे हो, लापता तो नहीं हो


-आनन्द.पाठक-



गुरुवार, 21 अक्तूबर 2021

अनुभूतियाँ : क़िस्त 13

 

कुछ अनुभूतियाँ

 

1

रात रात भर जग कर चन्दा

ढूँढ रहा है किसे गगन में ?

थक कर बेबस सो जाता है

दर्द दबा कर अपने मन में |

 

2

बीती रातों की सब बातें

मुझको कब सोने देती हैं ?

क़स्में तेरी सर पर मेरे

मुझको कब रोने देती हैं ?

 

3

कौन सुनेगा दर्द हमारा

वो तो गई, जिसको सुनना था,

आने वाले कल की ख़ातिर

प्रेम के रंग से मन रँगना था।

 

4

सपनों के ताने-बानों से

बुनी चदरिया रही अधूरी

वक़्त उड़ा कर कहाँ ले गया

अब तो बस जीना मजबूरी   

 

-आनन्द.पाठक-

 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

ग़ज़ल 198 : तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल

 122---122---122----122

ग़ज़ल 198

तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल

न तू बेख़बर है, न मैं हीं हूँ ग़ाफ़िल


ये उल्फ़त की राहें न होती हैं आसाँ

अभी और आएँगे मुश्किल मराहिल


मुहब्ब्त के दर्या में कागज की कश्ती

ये दर्या वो दर्या है जिसका न साहिल


जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में

दिया रख गई वो हवा के मुक़ाबिल


इबादत में मेरे कहीं कुछ कमी थी

वगरना वो क्या थे कि होते न हासिल


अलग बात है वो न आए उतर कर

दुआओं में मेरे रहे वो भी शामिल


कभी दिल की बातें भी ’आनन’ सुना कर

यही तेरा रहबर, यही तेरा आदिल ।


-आनन्द. पाठक-


राहिल = यात्री


शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

कविता 11 [04] : 2-अक्टूबर -गाँधी जयन्ती

 आज

कविता 11 [04]

----2-अक्टूबर- गाँधी जयन्ती----


अँधियारों में सूरज एक खिलानेवाला
जन गण के तन-मन में ज्योति जगानेवाला
गाँधी वह जो क्षमा दया करूणा की मूरत
फूलों से चटटानों को चटकाने वाला


क़लम कहाँ तक लिख पाए गाँधी की बातें
इधर अकेला दीप, उधर थी काली रातें
तोड़ दिया जंजीरों को जो यष्टि देह से
बाँध लिया था मुठ्ठी में जो झंझावातें


आज़ादी की अलख जगाते थे, गाँधी जी
’वैष्णव जण” की पीर सुनाते थे, गाँधी जी
सत्य अहिंसा सत्याग्रह से, अनुशासन से
सदाचार से विश्व झुकाते थे, गाँधी जी


गाँधी केवल नाम नहीं है, इक दर्शन है
लाठी, धोती, चरखा जिनका आकर्षन है
सत्य-अहिंसा के पथ पर जो चले निरन्तर
गाँधी जी को मेरा सौ-सौ बार नमन है


-आनन्द.पाठक-