शनिवार, 30 मई 2009

गीत 11[17] : मालूम था मेरी देहरी ....

गीत 11[17] : मालूम था मेरी देहरी को ---

मालूम था मेरी देहरी को ठुकरा कर चल जाना है
फिर भी तेरे स्वागत में है वन्दनवार सजाए ||

ऋचा-मन्त्र से आह्वान पर आह्वान करता हूँ
हवन-कुण्ड में आकांक्षा की समिधा देता हूँ
वही प्रतीक्षारत हैं आँखे कल भी आज वही
मुझको क्या मालूम नहीं था शर्ते आने की !

मालूम था पत्थर न कभी पिघला है न पिघलेगा
फिर भी आशाओं की अंजुरी भर-भर फूल चढ़ाए

एकाकी रातों की बातें तारो संग बांटे हैं
आँखों में सपने भर-भर अंधियारी कांटे है
उनको ही दुलराता हूँ सम्बल एकाकीपन की
वरना क्या मालूम नहीं था शर्तें चाहत की !

मालूम था मेरे आँगन में खुशियाँ कभी न उतरी हैं
फिर भी आंसू भर-भर कर हैं स्वागत कलश सजाए

सब ने हमको भ्रमित किया लम्बी राह दिखा कर
'ढाई-आखर' भुला दिया है ऊँची बात सुना कर
'पाप-पुण्य' है'ऊंच-नीच' है कैसी धर्म विवशता !
भुला दिया है आज मनुज ने मानव से मानवता

मार्ग अपावन उदघोषित कर तुम न इधर आओगे
फिर भी तेरे स्वागत में है पलकें पाँव बिछाए

संबोधन की मर्यादा है , संबोधन चाहे जो हो
सत्य-समर्पण ही शाश्वत ,नाम भले जो कह लो
मेरे मंदिर-आसन भी परित्यक्त नहीं,अभिमंत्रित है
प्राण-प्रतिष्ठा पावन क्षण में आप स्वयं आमंत्रित हैं

मालूम है सूनी नगरी में भला कौन आया है
फिर भी चन्दन-रोली-अक्षत अर्चन थाल सजाए
मालूम था .....

-आनंद

शनिवार, 23 मई 2009

गीत 10 : जिसको दुनिया के मेले में ....

गीत 10 : जिसको दुनिया के मेले में ---

जिसको दुनिया के मेले में ढूढा किया
घर के आँगन के कोने मिली जिन्दगी

उम्र यूँ ही कटी भागते - दौड़ते
जिन्दगी खो गई जाने किस मोडे पे
'स्वर्ण-मृगया' के पीछे कहाँ आ गए !
रिश्ते-नाते ,घर-बार सब छोड़ के

प्यास फिर भी मेरी अनबुझी रह गई
आकर पनघट पर ,प्यासी रही जिन्दगी

आकर पहलू में तेरे सिमटने लगे
मायने जिन्दगी के बदलने लगे
चंद रिश्तों पे चादर ढँकी बर्फ की
प्यार के गरमियों से पिघलने लगे

सर्द मौसम में तुमने छुआ इस तरह
गुनगुनी धूप लगने लगी जिन्दगी

आते-आते यहाँ दिल धड़कने लगा
आँख फड़कने लगी,होंठ फड़कने लगा
पास उनकी गली तो नहीं आ गई ?
बेसबब यह कदम क्यों बहकने लगा !

जब खुदी में रहे उनसे न मिल सके
बेखुदी में रहे तो मिली जिन्दगी

यूँ 'आनंद ' ज़माने में बदनाम है
जो देता मुहब्बत का पैगाम है
हुस्न के सामने क्या सर झुक गया
बुत-परस्ती का सर पर इलजाम है

जब से दुनिया ने मुझको काफिर कहा
तब से करने लगा हुस्न की बंदगी

जिसको दुनिया के मेले में ..........

आनंद

शुक्रवार, 22 मई 2009

एक कविता 6 [04]: कितने पौरुष वीर .....

कविता 6[04]

कितने पौरुष वीर पुरुष है !
हाथों में बंदूक लिए
नारी को निर्वसना कर के
हांक रहे है सीना ताने
मरा नहीं दुर्योधन अब भी
जिंदा है हर गाँव शहर में
अगर मरा है
'धर्मराज'का सत्य मरा है
'अर्जुन ' का पुन्सत्व मरा है
'भीम' का भीमत्व मरा है
दु:शासन तो अब भी जिंदा
अट्टहास कर हंसता-फिरता
हाथों में बंदूक लिए
पांचाली का चीर चीरता
क्या अंतर है ????
कुरुक्षेत्र हो ,बांदा हो , चौपारण हो
हमें प्रतीक्षा नहीं कि
कोई कृष्ण पुन: गीता का उपदेश सुनाए
अपना अपना कुरुक्षेत्र है
संघर्ष हमें ही करना होगा
हमे स्वयं ही लड़ना होगा
इसी व्यवस्था में रह कर
इन्द्र-प्रस्थ फिर गढ़ना होगा

-Anand.pathak-

बुधवार, 20 मई 2009

गीत 09 : हम बंजारे नगरी नगरी--

गीत : हम बंजारे नगरी नगरी ---

हम बंजारे नगरी नगरी अपना कहाँ ठिकाना है
सुबह जलाए चूल्हा-चाकी शाम हुए उठ जाना है

दो दिन बाद पकी हैं रोटी ,धुँआ लग गई कोठी में
महलों वाले सोच रहे हैं ,झुग्गी वाले हेंठी  में
सुबह-शाम की भाग-दौड़ में जो कुछ हासिल हो पाया
लाद चले हैं खटिया-मचिया छोड़ यहीं सब जाना हैं
हम बंजारे नगरी नगरी ....


आती है आवाज़ कहीं से दूर क्षितिज के पार गगन
धीरे-धीरे बढ़ता जाता अवचेतन मन मगन मगन
एक तमाशा मेरे अन्दर सभी तमाशों में शामिल
हो जाएगा खतम तमाशा एक दिशा सब जाना है
हम बंजारे नगरी नगरी ....


जितना मिला उसी में जीना उतना मेरा राज महल
माटी का घट रोना क्या! मन क्यूँ रहता विकल-विकल
नीचे धरती के सैया है ऊपर नीली छतरी है -
चंवर डुलाते पेड़ खड़े हैं अपना यही खजाना है
हम बंजारे नगरी नगरी ...


सबके अपने- अपने कुनबे,अपनी राम कहानी है
सबकी अपनी -अपनी डफली सबकी राग पुरानी है
ढाई-आखर' ही पढ़ने में बीत गई जब सारी उमरिया
जैसी ओढी रही चुनरिया वैसी ही धर जाना है
हम बंजारे नगरी नगरी ...

-आनंद

मंगलवार, 19 मई 2009

गीत 08[03] :नफ़रत नफ़रत से बढ़े...

गीत  08[03]: नफ़रत नफ़रत से बढ़े---

नफ़रत नफ़रत से बढ़े प्यार से प्यार बढ़े
अपनी बांहों में ज़माने को समेटो तो सही

लोग सहमे हैं खड़े खिड़कियाँ बंद किए
आँखे दहशत से भरी होंठ ताले हैं पड़े
उनके दर पे भी कभी प्यार से दस्तक देना
जिनकी खुशियाँ हैं बिकी सपने गिरवी हैं रखे
कौन कहता है कि पत्थर तो पिघलते ही नहीं
अपनी आँखों में बसा कर ज़रा देखो तो सही

कितनी बातें हैं रूकी पलकों पे कही अनकही
कितनी पीडा है मुखर अधरों पे सही अन सही
साथ अपने भी सफ़र में उन्हें लेते चलना -
राह में गिर जो पड़े श्वासें जिनकी हो थकी
तेरे कदमो पे इतिहास को झुकना होगा
हौसले से दो कदम ज़रा रखो तो सही

जो अंधेरों में पले जिनकी आवाजें दबी
भोर की क्या हैं किरण! जिसने देखी ही नहीं
जिनके सपने न कोई आँखे पथराई हों -
मुझको पावोगे वहीं उनकी बस्तियों में कहीं
कौन कहता हैं अंधेरों की चुनौती है बड़ी
एक दीपक तो जला कर कहीं रखो तो सही

-आनन्द पाठक-

एक कविता 5 [01]: मृदुल अंकुर भी ...

कविता 5 [01]

मृदुल अंकुर भी
तोड़ कर पत्थर पनपती है
एक उर्जा-शक्ति
अंतस में धधकती है
'मगर हम आदमी है
उम्र भर लड़ते रहे नित्य-प्रति की शून्य अभावों से
रोज़ सूली पर चढ़े - उतरे
आँख में आंसू भरे
और तुम?
 देवता बन कर बसे
जा पहाडों में ,गुफाओं में कन्दराओं में !
या नदी के छोर
दूर सागर से,कहीं उस पार
या किसी अनजान से थे द्वीप
या पर्वतों की कठिन दुर्गम चोटियां
वह पलायन था तुम्हारा??
या संघर्षरत की चूकती क्षमता ??
या स्वयं को निरीह पाना ??
या की हम से दूर रहना ??
हम मनुज थे
आदमी का था अदम्य साहस
खोज लेंगे ,आप के आवासस्थल
कंदरा में या गुफा में
यह हमारी जीजिविषा है
कट कर पत्थर पहाडों के
बाँध कर उत्ताल लहरें , सेतु-बन्धन
गर्जनाएं हो समंदर की
या कि दुर्गम चोटियां
हो हिमालय की , शिवालिक की
आ गएँ हैं पास भगवन !
यह हमारी शक्ति है
भाग कर हम जा नहीं बसते
कन्दराओं मे, गुफाओं में
क्यों की हम आदमी है
शून्य अभावों में
संघर्षरत रहना हमारी नियति है

-आनन्द  पाठक -

सोमवार, 18 मई 2009

एक कविता 4 [01] : तुम जला कर....

एक कविता 04[01]--

तुम जलाकर दीप
रख दो आँधियों में \
जूझ लेंगे जिन्दगी से
पीते रहेंगे
गम अँधेरा ,धूप ,वर्षा
सब सहेंगे \
बच गए तो रोशनी होगी प्रखर
मिट गए तो गम न होगा \
धूम-रेखा लिख रही होगी कहानी
"जिन्दगी मेरी किसी की भीख न थी --

-आनन्द पाठक---

मुक्तक 01/01 A

कुछ मुक्तक

पारदर्शी तेरा आवरण
कर न पाए तुझे हम वरण
हम ने दर्शन बहुत कुछ पढ़ा
पढ़ न पाए तेरा व्याकरण
-- ० --

भावना का स्वरुपण हुआ
अर्चना का निमंत्रण हुआ
फूल क्या मैं धरूँ देवता !
लो प्राण का ही समर्पण हुआ
----०-----
आज अपना हूँ मैं संस्मरण
तुम भले ही कहो विस्मरण
आज स्वीकार कर लो मेरी
जिंदगी का नया संस्करण

---0---
चाहा था किसी के क़दमों का पायल की सुनेंगे झंकारे
सावन की जब रिमझिम होगी ,हम उनसे करेंगे मनुहारें
माँगा था गगन से चाँद कभी दो हाथ उठा कर यह अपने
रख दिया मेरे इन हाथों में क्यों लाल दहकते  अंगारे

-आनन्द.पाठक-

रविवार, 17 मई 2009

ग़ज़ल 04 [ 61] : मोहन के बांसुरी की जैसे तान....

बह्र-ए-मुज़ारि’अ मुसम्मन अख़रब महज़ूफ़
मफ़ऊलु----फ़ाइलातु---मफ़ाईलु---फ़ाइलुन
221-----------2121-------1221--------212 
-----------------------------------------------------
एक ग़ज़ल 04[61]

मोहन की बाँसुरी की अमर तान है ग़ज़ल
कोयल की कूक जैसी मधुर गान है ग़ज़ल

जैसे कि माँ की गोद में बच्चा हो सो रहा
होंठो पे एक तैरती   मुसकान है ग़ज़ल

मानो कमल के फूल पे दो बूँद शबनमी
ठहरी हुई हो , छूने की अरमान है ग़ज़ल

जीवन की साधना में ऋचा मन्त्र-सा लगे
जैसे ऋषी -मुनी की गहन ध्यान है ग़ज़ल

यह वस्ल-ए-यार की ही फ़क़त दास्तां नही
आशिक़ की चाक चाक गिरेबान है ग़ज़ल

चाहे ग़ज़ल हो ’मीर’ की ,’ग़ालिब’ की,दाग़ की
बाब-ए-हयात की बनी  उनवान है ग़ज़ल

वो पूछते हैं मुझ से ग़ज़ल कौन सी बला ?
’आनन’ ये मेरी जान है ,ईमान है ग़ज़ल

-आनन्द.पाठक-

[modified 27-07-2020] 

गीत 07[06] : फ़िर कहीं दूर आँगन में ....

गीत 07 [06] : फिर कहीं दूर आँगन में ---

फ़िर कहीं दूर आँगन में धुँआ उठा ,कहीं 'सीता' जली 'सावित्री' जली

दो ह्रदय के अधूरे मिलन जल गए
दो नयन के सजीले सपन जल गए
प्यार पूजा से क्यों वासना हो गई
फूल जूडा के जूडे में ही जल गए

आदमी ने जलाया उसे आज तक ,कहीं 'गीता' जली गायत्री जली

मांग सिन्दूर का रंग पीला हुआ
आदमी इस तरह क्यूँ हठीला हुआ
फूल आँचल में भर न सका प्यार के
जो दिया भी तो जीवन कंटीला हुआ

आदमी की सडन्ध सोच की क्या कहें ! एक 'कुंती' जली 'दमयंती' जली

क्या हुए वो शपथ सात फेरे हुए ?
यह सुबह ही सुबह क्यों अंधेरे हुए
हाथ अग्नि-शलाका लिए आदमी
घर के आँगन की 'तुलसी'को घेरे हुए

थाल अर्चन की थी क्यूँ जहर हो गई ,कहीं 'रोली' जली एक 'कुमकुम' जली

अंखियों में सजा नेह कजरा जला
वेणियों में गुंथा प्यार गजरा जला
थी किसी के कलाई की राखी जली
एक ममता जली स्नेह अंचरा जला

पाँव महावर थे पेट्रोल में धुल गए, कहीं 'गंगा जली 'गंगोत्री' जली

एक नारी जली प्रीति बिंदिया जली
एक सुहागिन की पावन बिछिया जली
'उर्मिला' की प्रतीक्षा घडी जल गई
एक बाबुल की प्यारी बिटिया जली

चंद पैसों का भूखा हुआ आदमी ,कहीं 'राधा'जली 'राधिका ' जली

ना ही उषा जली ना मनीषा जली
जो जले आदमी के ही चहरे जले
बात करते हैं इंसानियत की वही
अंत: दिल के जले बाहर लगते भले

एक दुल्हन के नैहर की चुनरी जली एक सभ्यता जली एक संस्कृति जली
फ़िर कहीं दूर आँगन में ........

एक ग़ज़ल 03 :पंडित ने कहा इधर ...

पंडित ने कहा इधर से है मुल्ला ने कहा इधर से है
हम बीच खड़े हैं दोनों के तेरे घर की राह किधर से है

नफ़रत का धुँआ उठा करता अपनो का ही दम घुटता है
इस बंद मकाँ के कमरे में कहो रोशनदान किधर से है

सब भटके भूल-भूलैया में जंत्री में पोथी पतरा में
जो प्रेम की राह निकलती है उस दिल का का राह किधर से है

मथुरा से हैं ?काशी से हैं ? उज्जैनी हैं ? अनिवासी हैं ?
हर तीर्थ पे पण्डे पूछ रहे 'बोलो जजमान किधर से हैं ?

जो दान-पुण्य करना कर दो पुरखे तो इसी पोथी में
बच कर भी जाओगे कहाँ हम जागीरदार इधर के हैं

जो चांदी के मन्दिर में हैं सोने के सिंहासन पर
जो शबरी की कुटिया में हैं वह भगवान किधर के हैं?

चुनावी दोहे ...

मन में चाहे कुटिलता दिल में चाहे घात
हाथ जोड़ मिलते रहें जनता से दिन-रात

रस्सी तनी चुनाव की नेता जी चढ़ जाय
देख संतुलन पाँव के नट-नटिनी शरमाय

पक्ष-विपक्ष करने लगे अब हमाम की बात
बाहर चाहे जो दिखे भीतर सब को ज्ञात

बरसों खिड़की बंद है नई हवा नहीं आय
वही रूढिवादी विचार धुँआ -धुँआ भर जाय

ढकी रहे उतनी भली इस चुनाव अभियान
बीच सड़क मत धोइए चड्डी व् बनियान

जनता ही समझी नहीं मेरे कार्य महान
वरना हम नहीं हारते इस चुनाव दौरान


एक ग़ज़ल 02 : प्यास मन की बढ़ाती रही मछलियाँ



ग़ज़ल 02

212---212---212---212

प्यास मन की बढ़ाती रहीं मछलियाँ
सौ जतन कर छुपाती रहीं मछलियाँ

जाल फेंके मछेरों ने कितने, मगर
फिर भी ख़ुद को बचाती रहीं मछलियाँ

किससे मिलने को आतुर रहीं उम्र भर
और  मिलन-गीत गाती रहीं मछलियाँ

प्यास ’मीरा’ की हो या कि ’राधा’ की हो
 रंग यक सा ही पाती रहीं मछलियाँ

दर्द किसको सुनाना था अपना उन्हें
दर्द किसको सुनाती रहीं मछलियाँ

कैसे जीना है मरना हमे इश्क़ में
इक तरीक़ा सिखाती रहीं मछलियाँ

तिश्नगी तू भी ’आनन’ जगा यूँ कि ज्यों
जल में रह कर भी प्यासी रहीं मछलियाँ

-आनन्द पाठक-



एक कविता 3 [05] : प्यासी धरती प्यासे लोग ....

कविता03[ 05 ]

प्यासी धरती प्यासे लोग !

इस छोर तक आते-आते
सूख गई हैं कितनी नदियाँ
दूर-दूर तक रह जाती है
बंजर धरती ,रेत, रेतीले टीले
उगती है बस झाड़-झाडियाँ
पेड़ बबूल के तीखे और कँटीले
हाथों में बन्दूक लिए ए०के० सैतालिस
साए में भी धूप लगे है

'बुधना' की दोआँखे नीरव
 प्यास भरी है
सुना कहीं से
'दिल्ली' से चल चुकी नदी है
आयेगी  उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
हरियाली फ़िर हो जायेगी
हो जायेगी धरती सधवा

लेकिन कितना भोला 'बुधना'
नदियाँ इधर नहीं आती हैं
उधर खड़े हैं बीच-बिचौलिए
'अगस्त्य-पान' करने वाले
मुड़ जाती है बीच कहीं से
कुछ लोगों के घर-आँगन में
शयन कक्ष में
वर्ष -वर्ष तक जल-प्लावन है

कहते हैं वह भी प्यासे
प्यासे वह भी,प्यासे हम भी
दोनों की क्या प्यास एक है?
"परिभाषा में शब्द-भेद है "

-आनन्द.पाठक-
[सं 08-07-18]
प्र0 फ़0बु0

शनिवार, 16 मई 2009

गीत 06 [11] : समर्पण गीत ....

गीत 06[11]

एक समर्पण गीत ....

चेतना हो जहाँ शून्य उस मोड़ पर,
वेदना हो जहाँ मूक उस छोर पर ,
हँस उठे प्राण-मन खिल उठे रोम तन
गूँज भर दो मेरी बांसुरी में ....।

भावना के सिमटने लगे दायरे ,
टूटने जब लगे प्रीत के आसरे ,
मैं पुकारूं तुझे श्वांस बन कर मिलो
जिन्दगी  के  सफ़र आख़िरी में ....।

अर्चना के सभी मूल्य मिटने लगे ,
साधनायें बिना अर्थ लगाने लगे   ,
रस मिला दो अधर का भी अपना ,प्रिये!
प्रीति की खिल रही मंजरी  में....  ।

गंध ही जब नहीं फूल किस काम का !
जब न तुम ही जुड़ो  नाम किस नाम का
गीत मेरे कभी लड़खडाने लगे
सुर मिलाना कि रस-माधुरी में ...।

रूप क्या है , सजा कल सजे ना सजे ,
मांग क्या है , भरा कल भरे न भरे     ,
शुभ मुहूरत मिलन की घड़ी देख कर
दान कर दो मेरी अंजुरी में ....॥

प्यार ही में रँगा तन रँगा मन  रँगा ,
इन्द्रधनु भी रँगा सप्त रंग में रँगा   ,
रंग ऐसा भरो जो कि मिट ना सके
अर्ध विकसित प्रणय-पंखुरी में ....।

---आनन्द पाठक-

[सं 04-08-19]

शुक्रवार, 15 मई 2009

विविध

हाइकू
सांझ सकारे
याद तुम्हारी आई
तुम्हे पुकारे
-- --
बच्चों की टोली
छू माँ का आँचल
करे ठिठोली
+ +
गरीबी रेखा
बढ़ती हुई दिखी
जिधर देखा
* *
नन्ही चिडियां
खेल रही आँगन
जैसे गुडिया

-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 14 मई 2009

गीत 05 [05] : कुंकुम से नित माँग सजाए ...

गीत 05 [05]

कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?
प्रात: आती कौन ?

प्राची की घूँघट अध खोले
अधरों के दो पुट ज्यों डोले

मलय गंध में डूबी-डूबी तुम सकुचाती कौन ?
तुम सकुचाती कौन ?

फूलों के नव-गंध बटोरे
अभिरंजित रश्मियाँ बिखेरे

करती कलरव गान विहंगम तुम शरमाती कौन?
तुम शरमाती कौन?

मन्द हवाएँ   गाती आतीं
आशाओं की किरण जगाती

छम-छम करती उतर रही हो नयन झुकाती कौन?
नयन झुकाती कौन?

लहरों के दर्पण भी हारे
जब-जब तुमने रूप निहारे

पूछ रहे हैं विकल किनारे तुम इठलाती कौन?
तुम इठलाती कौन?
कुंकुम से नित माँग सजाए ....

-आनन्द.पाठक-

[सं0 28-04-19]

गीत 04 [04] : मत छूना प्रिय मुझको. अपने

गीत 04 [04] : मत छूना प्रिय मुझको अपने --

मत छूना प्रिय! मुझको अपने स्नेहिल हाथों से --
पोर-पोर तक दर्द भरा है तन-मन प्राण छलक जाउंगी

इस नगरी से जाना ही था क्यों आये थे प्रेम नगरिया ?
जस का तस जब धरना ही था क्यूँ ओढी थी प्रेम चुनरिया?
जाल सुनहले नहीं फेंकना तन का रंग ही नहीं देखना
अंग-अंग में प्यास भरी है कभी जाल में फंस जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है........

चली काल की मथनी जब भी सब में गोरस-माखन छलका
जाने मेरी गागर कैसी केवल पानी-पानी छलका
अधरों पर उषा की किरणे आँखों में है स्वप्न सजीले
रेती पर बालू का घर हूँ ना जाने कब ढह जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है .....

तन का पिजरा रह जाएगा उड़ जायेगी सोन चिरैया
खाली पिंजरा दो कौडी का क्या सोना क्या चांदी भैया
इतनी ठेस लगी है मन में इतने खोंच लगे जीवन में
सिलने की कोशिश मत करना तार-तार में हो जाउंगी
पोर-पोर तक दर्द भरा है ....

श्वास श्वांस पर क़र्ज़ खडा है समय दे रहा जिस पर पहरा
कंधे-कंधे चला करेंगे जिस दिन होगा पूर्ण ककहरा
किसके लिए भाग-दौड़ थी कब मुठ्ठी में धूप समाई
खाली हाथ चली आई थी खाली हाथ चली जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है...

गीत 03 [05] : मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ...

गीत 03 [05]  : मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ ---

मैं अँधेरा अभी पी रहा , इक नई रोशनी  के लिए

वैसे मुझको भी मालूम थीं  राज दरबार की सीढियां ,
वो कहाँ से कहाँ चढ़ गए, तर गई उनकी दस पीढियां,
मैं वहीँ का वहीँ रह गया, उनकी नज़रों में ना आ सका
सर को लेकिन झुकाया नहीं, एक मन की खुशी के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

मोल सबकी लगाते चलें/ ,खोटे सिक्कों से वो तौल कर,
एक मैं हूँ कि मर-जी  रहा ,अपने आदर्श पर ,कौल पर,
जिंदगी के समर में खडा ,हार का जीत का प्रश्न क्या !
पाँव पीछे हटाया नहीं,  सत्य की  रहबरी  के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

आरती हैं उतारी गई ,गुप्त समझौते जो कर लिए,
रोशनी के लिए जो लड़े ,रात में खुदकुशी कर लिए,
ना वो पन्ने हैं इतिहास के, ना शहीदों की मीनार में।
उसने जितना लड़ा या जिया, देश की बेहतरी के लिए ।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

यह मकाँ तो किसी और का, नाम पट आप का बस जड़ा है
उसके सर पर न छत हो सकी , सत्य की राह पर जो खड़ा है 
जिंदगी ना मेरी भीख है,  ना किसी की ये सौगात है ,
मैंने जितना जिया आजतक, एक मन की खुशी के लिए।

मैं अँधेरा अभी पी रहा हूँ....

-आनन्द पाठक- 
सं0  20-04-21

गीत 02[10] : किसी का प्रणय तन-मन हूँ ....

गीत  02[10]: किसी का प्रणय तन मन हूँ

किसी का प्रणय तन-मन हूँ ,किसी की कल्पना भी हूँ

मैं किसी  का एक वीणा- तार कम्पन
या किसी मनु सा अनागत गहन चिंतन
किसी का अंक-शायी हूँ , किसी की कामना भी हूँ .
किसी का प्रणय तन-मन हूँ....

रात भर बंदी बनाई रही कलिका
देखती है सुबह उड़ना निठुर अलि का
कहीं अभिशप्त हूँ परित्यक्त ,कहीं आराधना भी हूँ .
किसी का प्रणय तन-मन हूँ....

कहीं सिन्दूर हूँ मैं चिर सुहागन का
किसी का एक पावन दीप आँगन का
किसी को मैं अपावन हूँ ,किसी की साधना भी हूँ
किसी का प्रणय तन-मन हूँ...

कल्प से जलता रहा दीपक सरीखा
पी रहा हूँ घन अँधेरा मैं किसी का
किसी को एक पत्थर भर ,किसी की अर्चना भी हूँ
किसी का प्रणय तन-मन हूँ...

मैं किसी को एक अनबूझी पहेली
औ’ प्रतीक्षा मैं कोई बैठी अकेली
किसी को मैं अयाचित हूँ ,किसी की याचना भी हूँ
किसी का प्रणय तन-मन हूँ...

-आनन्द.पाठक-
[ सं 15-06-18]


ग़ज़ल 01[65] : चांदी की तश्तरी में

ग़ज़ल 01 [65]

221-----2122---//  221-----2122
बह्र-ए-मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन..// मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन
------------------

चाँदी की तश्तरी में ,नज़राने कब महल के ?
शामिल मेरी क़लम में, कुछ दर्द हैं ग़ज़ल के

किस को मिली यहाँ है ,इक ज़िन्दगी मुकम्मल
दो चार दिन खुशी के ,बाक़ी हैं  सब ख़लल के

दुनिया हसीन लगती ,देखा जो तूने होता
अपनी अना से बाहर ,आता कभी निकल के

वादे ,वफ़ा ,मुहब्बत ,बातें हैं सब किताबी
आदाब दो दिनों के, होते हैं आजकल के

दिल को न था गवारा, ले दाग़दार दामन 
आते तुम्हारे दर पर ,क्यों भेष हम बदल के

बेदार जो भी देखा , इक ख़्वाब था भरम था
 अब  देखना हक़ीक़त , है राह-ए-मर्ग चल के

तेरी गली में ’आनन’,फिसलन तो कम नहीं है
 फिर भी मैं आ रहा हूँ, बच कर सँभल सँभल के


-आनन्द.पाठक-

सं  26-07-2020 /10-07-21/

शब्दार्थ 
राह-ए- मर्ग  = मृत्य मार्ग पर
baab-e-sukhan 230121

गीत 01[21] : मैं स्वयं में खोया-खोया...

गीत 01 [21] : मैं स्वयं में खोया खोया ---


मैं स्वयं में खोया-खोया खुद में खुद को ढूंढ रहा हूँ

जब भी मैंने चलाना चाहा कितनी राह  सफ़र में आए
सबके अपने-अपने दर्शन ,सबने अपने गुण बतलाए
फिर भी सब के सब व्याकुल क्यों? मूर्त भाव से सोच रहा हूँ
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ

सभी किताबों में करूणा है,  प्रेम -दया की गाथा है
बाहर कितनी चहल-पहल है, भीतर-भीतर सन्नाटा है
मेरे दर पे खून के छींटे युग-युग से मैं पोंछ रहा हूँ
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ

सब के सब पंडाल लगाए,  अपने अपने ग्रन्थ सजाए
सब में 'ढाई-आखर' ही था ,फिर क्यों जीवन व्यर्थ गवा
युग से ,जर्जर लाल-चुनरिया जतन रही न पहन सका हूँ
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ

पढ़ता है हर कोई पोथी. दिल की बात नहीं पढ़ता है
चेतनता की बातें करता  मस्तिष्क में ठहरी जड़ता है
जल में बिम्ब ,बिम्ब में जल है ,अर्थ अभी तक खोज रहा हूँ
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ

बूँद बनी या सिन्धु बना है? शून्य अथवा आकाश बने है ?
शब्दों के इस महाजाल  के कैसे कैसे न्यास बने हैं
यक्ष-प्रश्न रह गया अनुत्तरित खुद से खुद को पूछ रहा हूँ
मैं स्वयं में खोया-खोया ,खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ......

-आनन्द पाठक-

[revised 06-05-18]