शनिवार, 21 अगस्त 2021

अनुभूतियाँ : क़िस्त 10

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 10

1

इतना साथ निभाया तुमने

चन्द बरस कुछ और निभाते ।

कौन यहाँ पर अजर-अमर है ,

साँस आख़िरी तक रुक जाते ।


 2

सब माया है, सब धोखा है, 

ज्ञानीजन ने कहा सही है।

फिर भी मन है बँध-बँध जाता 

दुनिया का दस्तूर यही है ।


3

अपनी अपनी लक्ष्मण रेखा,

सबकी अपनी सीमाएँ हैं ।

घात लगाए बैठी  दुनिया ,

पाप पुण्य की दुविधाएँ हैं ।


 4

नोक-झोंक तो चलती रहती ,

उल्फ़त की यह अदा पुरानी ।

बात बात में रूठ के जाना

गहन प्रेम की यही निशानी ।


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 15 अगस्त 2021

ग़जल 193 : आप महफ़िल में जब भी आते हैं

 2122---1212---112/22

ग़ज़ल 193

आप महफ़िल में जब भी आते हैं
साथ अपनी अना  भी लाते  हैं ।


चाँद तारों की बात तुम जानो
बात धरती की हम सुनाते हैं


जब भी आता चुनाव का मौसम
ख़्वाब क्या क्या न वो दिखाते हैं


वक़्त सबका हिसाब करता है
लोग क्यों ये समझ न पाते हैं


बेसबब बात वो नहीं करते
बेगरज़ हाथ कब मिलाते हैं 


अब परिन्दे न लौट कर आते 
गाँव अपना जो छोड़ जाते हैं


इस जहाँ की यही रवायत है
लोग आते हैं ,लोग जाते हैं


तुम भी क्यों ग़मजदा हुए ’आनन’
लोग रिश्ते न जब निभाते हैं


-आनन्द पाठक-

अना    = अहंकार ,घमंड

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

ग़ज़ल 192 : अभी नाज़-ए-बुताँ देखूँ--

 1222---1222---1222---1222


ग़ज़ल 192


अभी नाज़-ए-बुतां देखूँ  कि ज़ख़्मों के निशाँ देखूँ
मिले ग़म से ज़रा फ़ुरसत तो फिर कार-ए-जहाँ देखूँ

मसाइल हैं अभी बाक़ी ,मसाइब भी कहाँ कम हैं 
ज़मीं पर हो जो नफ़रत कम तो फिर मैं आसमाँ देखूँ

जो देखा ही नहीं तुमने , वहाँ की बात क्या ज़ाहिद !
यहीं जन्नत ,यहीं दोज़ख़ मैं ज़ेर-ए-आसमाँ  देखूँ

मुहब्बत में किसी का जब, भरोसा टूटने लगता
तो बढ़ते दो दिलों के बीच की मैं  दूरियाँ  देखूँ

लगा रहता है इक धड़का हमेशा दिल में जाने क्यूँ
उन्हें जब बेसबब बेवक़्त होते मेहरबाँ  देखूँ

किधर को ले के जाना था ,किधर यह ले कर  आया है
अमीरे-ए-कारवाँ की और क्या नाकामियाँ देखूँ

सियासत में सभी जायज़ ,है उनका मानना ’आनन’ 
हुनर के नाम पर उनकी ,सदा चालाकियाँ देखूँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


मसाइल = समस्यायें

मसाइब =मुसीबतें

धड़का = डर ,भय,आशंका

ज़ेर-ए-आसमाँ =आसमान के नीचे यानी धरती पर

अमीरे-ए-कारवाँ = कारवाँ का नायक ,नेता 

p-baab-e-sukhan 22-08-21

फ़ेसबुक- 15-09-21


मंगलवार, 3 अगस्त 2021

ग़ज़ल 191 चाह अपनी कभी छुपा न सके

 2122---1212--112


ग़ज़ल 191 : चाह अपनी छुपा न सके--


चाह अपनी कभी छुपा न सके
बात दिल की ज़ुबाँ पे ला न सके

आँख उनकी कही न भर आए
ज़ख़्म दिल का उन्हे दिखा न सके

सामने यक ब यक जो आए वो
शर्म से हम नज़र मिला न  सके

कैसे करता यक़ीन मैं तुम पर
एक वादा तो तुम निभा न सके

ज़िन्दगी के हसीन पहलू को
एक हम हैं कि आजमा न सके

लोग इलजाम धर गए मुझ पर
हम सफ़ाई में कुछ बता न सके

याद क्या हम को आ गया ’आनन’
हम नदामत से आँख उठा न सके 

-आनन्द पाठक-

रविवार, 1 अगस्त 2021

ग़ज़ल 190 : बगुलों की मछलियों से---

 221--1222 // 221--1222


ग़ज़ल 190


बगुलों की मछलियों से, साजिश में रफ़ाक़त है
कश्ती को डुबाने की, साहिल की  इशारत  है

वो हाथ मिलाता है, रिश्तों को जगा कर के
ख़ंज़र भी चुभाता है , यह कैसी शरारत है

शीरी है ज़ुबां उसकी , क्या दिल में, ख़ुदा जाने 
हर बात में नुक़्ताचीं , उसकी तो ये आदत है

जब दर्द उठा करता, दिल तोड़ के अन्दर से
इक बूँद भी आँसू की, कह देती हिकायत है

इनकार नहीं करते ,’हां’ भी तो नहीं कहते
दिल तोड़ने वालों से, क्या क्या न शिकायत है

अब कोई नहीं मेरा, सब नाम के रिश्ते हैं
हस्ती से मेरी अपनी, ताउम्र बग़ावत है

इक राह नहीं तो क्या ,सौ राह तेरे आगे
चलना है तुझे ’आनन’ कोई न रिआयत है

=आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

रफ़ाक़त = दोस्ती, सहभागिता

हिकायत = कथा-कहानी ,वृतान्त

रिआयत = छूट