अनुभूतियाँ : क़िस्त 10
1
इतना साथ निभाया तुमने
चन्द बरस कुछ और निभाते ।
कौन यहाँ पर अजर-अमर है ,
साँस आख़िरी तक रुक जाते ।
2
सब माया है, सब धोखा है,
ज्ञानीजन ने कहा सही है।
फिर भी मन है बँध-बँध जाता
दुनिया का दस्तूर यही है ।
3
अपनी अपनी लक्ष्मण रेखा,
सबकी अपनी सीमाएँ हैं ।
घात लगाए बैठी दुनिया ,
पाप पुण्य की दुविधाएँ हैं ।
4
नोक-झोंक तो चलती रहती ,
उल्फ़त की यह अदा पुरानी ।
बात बात में रूठ के जाना
गहन प्रेम की यही निशानी ।
-आनन्द.पाठक-