गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 40 : बहुत से रंज-ओ-ग़म ऐसे

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़
फ़इलातुन--फ़इलातुन--फ़इलातुन--फ़ऊलुन
1222-1222-1222--122
-----------

बहुत से रंज-ओ-ग़म ऐसे हैं जो दिल में निहाँ हैं

मगर कुछ ऐसे भी हैं जो निगाहों से अयाँ हैं



ज़माना ’क़ैस’ या ’फ़रहाद’ से आगे तो देखे

हमारे भी तो किस्से में बहुत कुछ खूबियाँ हैं



मता-ए-ज़िन्दगी अपनी लुटा दी दर पे तेरे

भला बातें कहां सूद-ओ-ज़िया की दरमियाँ हैं !



सरापा अक्स हूँ तेरे ही हुस्न-ए-दिलबरी का

बता फिर दो दिलों के बीच में क्यों दूरियाँ हैं ?



जहाँ में झूट की जानिब खड़े मिलते हज़ारों

हक़ीक़त की गवाही देने वाले अब कहाँ हैं



हमारे सोचने से क्या कभी कुछ हो सका है !

हवादिस हम पे अपने ही तरीक़े से रवाँ हैं



नदामतपोश हूं ’आनन’ कि जब वो सामने हों

मगर चेहरे से सारी उलझनें मेरी बयाँ हैं





निहाँ हैं =छुपे हैं

अयाँ हैं = व्यक्त हैं

मता-ए-ज़िन्दगी= ज़िन्दगी भर की कमाई/जमा-पूंजी

सूद-ओ-ज़ियाँ = हानि-लाभ

सरापा अक्स = पूर्ण छवि/प्रतिलिपी/मुजस्सम हमशक्ल

हवादिस = बलायें/मुसीबतें (हवादिस= हादिसा का ब0ब0)

रवाँ हैं =जारी हैं

नदामतपोश हूँ = गुनाहों पर पश्चाताप कर छुपाने लगता हूं

बयाँ हैं =ज़ाहिर हैं



-आनन्द-
09413395592

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

गीत 44[08] : आज तो तुम पल रही हो.....


गीत 44[08]

आज तो तुम पल रही हो चाँद की नाज़ुक किरन में
कल अँधेरा साथ हो तो प्रिय ! मुझे फिर याद करना

आज कितने फूल शुभ बिखरे तुम्हारी राह में हैं
सैकड़ों आंखे  प्रतीक्षारत  तुम्हारी  चाह में हैं
झूलती हो ,कुछ अनागत स्वप्न को लेकर,हिंडोले
जब कि यह विस्तृत गगन सिमटा तुम्हारी बाँह में हैं

आज तो तुम छल रही हो स्वप्न बन कर ज़िन्दगी में
जब कभी एकान्त मन से डर लगे तो याद करना

देखता हूँ रोज नभ में टूटते कितने सितारे
देखता हूँ रोज कितनी डूबती नैया किनारे
पर तुम्हारे पायलों के रुनझुनी मधुरिम खनक पे
चाँद भी चूमा करे है पाँव दो संझा-सकारे

आज तो तुम सज रही सौन्दर्य की इक मूर्ति बन कर
खण्डहर बन जब कभी तन बिखर जाये ,याद करना

तुम पली हो चाँदनी में, मैं अँधेरे में जिया हूँ
तुम जली हो सोमरस से ,मैं हलाहल भी पिया हूँ
आज तो लगता तुम्हें डसती है बैरिन चाँदनी भी
मैं जला ख़ुशियां ,तुम्हारी राह को रौशन किया हूँ

चाहते कई लोग हैं भर दें सितारे माँग मे
मैं प्रतीक्षारत रहूंगा ,तुम मुझे फिर याद करना

-आनन्द.पाठक-
09413395592

इस गीत का English अनुवाद हमारे मित्र डा0 ख़लिश साहब ने किया है जो मैं अपने पाठकों की सुविधा के लिए नीचे लगा रहा हू“

From: Dr.M.C. Gupta


To: ekavita

Cc: Hindienglishpoetry ; anand pathak ; Tekk Savvy

Sent: Friday, 1 March 2013 5:18 PM

Subject: [ekavita] YOUR PATH’S LIGHTED BY THE MOON (English version of the original Hindi poem by Anand Pathak)





YOUR PATH’S LIGHTED BY THE MOON

[The everlasting hope of the silent lover.]



Your path’s lighted by the moon;

It sends serene rays today.

Yet if darknes does prevail,

Be sure to call me some day.



Your path is stewn with flowers;

Millions now wait for your glance.

You are lost in golden dreams;

Nature around you does dance.



Today this world charms you much

Through the prism of your wild thoughts.

When loneliness does haunt you,

Be sure to call me some day.



Daily in the sky I see,

There breaks up a shining star.

From the shore I watch helpless

A boat that does sink afar.



As you move, silver anklets’

Lilting tunes bewitch the moon;

When your weary gait totters,

Be sure to call me some day.



Today moon and stars guide you;

Darkness has brought up me though.

Manna has nurtured you but

Poison in my life does show.



Your tenderness is threatened

Today by silken moon rays.

My heart has burned for your sake,

That you may call me some day.



*Written in 7-7-7-7, abcb format.

M C Gupta "खलिश"

26 February 2013

NOTE—This is an English version of the original Hindi poem, given below, written by

Anand Pathak

akpathak317@yahoo.co.in

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 39[54] : आप मुझको सामने पाते.....

ग़ज़ल 39  [54]: आप मुझको साथ में पाते--
बह्र-ए-रमल मुसद्दस मक़्लूअ’ महज़ूफ़

2122---2122-----2-
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आप मुझको साथ में  पाते
आसमाँ  से जो उतर आते

चाँद ,तारों ,ख़्वाब , वादों के
झुनझुने देकर न बहलाते

उँगलिया क्यों आप पर उठतीं
आइनों से जो न घबराते

और भी कितने मसाईल हैं
आप  हैं अनजान बन जाते

चाँदनी तो चार दिन की है
किसलिए हैं आप इतराते ?

साफ़ चेहरा अब कहाँ ढूँढू
सब रंगे चेहरे नज़र आते ?

बस यही आदत बुरी ’आनन’
दर्द अपने क्यों छुपा जाते ?

-आनन्द.पाठक-
[सं 27-10-18]





रविवार, 10 फ़रवरी 2013

एक ग़ज़ल 38 [56]: बदली हुई है आप की

ग़ज़ल 38[56]

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु---मुफ़ाईलु--फ़ाइलुन
221---------2121-------1221-------2122
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ग़ज़ल 38 : बदली हुई है आप की---

बदली हुई है आप की जो चाल-ढाल  है
लगता हर एक बात में कुछ गोलमाल है

दो-चार साल से हैं उसी मोड़ पे खड़े
’सबका विकास’ हो रहा उनका ख़याल है

दरबार में बिछा  भी तो कालीन सा बिछा
उस को गुमान ये है कि वो बाकमाल है

शाही कबाब मुर्ग मुसल्लम डकार  कर
फिर पूछते हैं देश का क्या हाल चाल है?

जाने हमारे दौर के लोगों को क्या  हुआ
जो तरबियत में आ गया इतना जवाल है

ये बात कम नहीं है कि ज़िन्दा है आदमी
हर आदमी के सामने कितना  सवाल है

 ’आनन’ उमीद रख अभी सब कुछ नहीं लुटा
फिर से उठा कि सामने रख्खी  मशाल है

-आनन्द पाठक-

[सं 27-10-18]

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

गीत 43 : कल्पनाऒ में जब तुम....

एक गीत : कल्पनाऒं में जब तुम....


कल्पनाओं में जब तुम उतरने लगी
कितने सपने सजाता रहा रात भर


झीनी घूँघट जो डाले थिरकती हुई
सामने तुम जो आकर खड़ी हो गई
फिर न पूछो कि क्या हो गया था हमें
सोच अपनी अचानक बड़ी हो गई

विन्दु का सिन्धु से इस मिलन पर्व का
भाव मन में जगाता रहा रात भर


बात कहने को यूँ तो बहुत थी मगर
भावनायें थी मन की प्रबल हो गईं
जैसे बहती हुई प्यास की इक नदी
और लहरें मिलन को विकल हो गईं

वक़्त से पहले ही बुझ न जाए कहीं
प्यार का दीप जलाता रहा रात भर


मौन ही मौन से तुमने क्या कह दिया
शब्द आकर अधर पे भटक से गये ?
जिस व्यथा की कथा हम सुनाने चले
वो गले तक ही आकर अटक से गये

तुमको फ़ुर्सत कहाँ थी कि सुनते मेरी
ख़ुद ही सुनता सुनाता रहा रात भर


कुछ ज़माने की थी व्यर्थ की बन्दिशें
कुछ हमारी तुम्हारी थी मज़बूरियाँ
फ़ासला उम्र भर इक बना ही रहा
मिट सकी ना कदम दो कदम दूरियाँ

पाप औ’ पुण्य में मन उलझता गया
अर्थ जितना बताता रहा रात भर   -
आनन्द पाठक-