एक गीत : कल्पनाऒं में जब तुम....
कल्पनाओं में जब तुम उतरने लगी
कितने सपने सजाता रहा रात भर
झीनी घूँघट जो डाले थिरकती हुई
सामने तुम जो आकर खड़ी हो गई
फिर न पूछो कि क्या हो गया था हमें
सोच अपनी अचानक बड़ी हो गई
विन्दु का सिन्धु से इस मिलन पर्व का
भाव मन में जगाता रहा रात भर
बात कहने को यूँ तो बहुत थी मगर
भावनायें थी मन की प्रबल हो गईं
जैसे बहती हुई प्यास की इक नदी
और लहरें मिलन को विकल हो गईं
वक़्त से पहले ही बुझ न जाए कहीं
प्यार का दीप जलाता रहा रात भर
मौन ही मौन से तुमने क्या कह दिया
शब्द आकर अधर पे भटक से गये ?
जिस व्यथा की कथा हम सुनाने चले
वो गले तक ही आकर अटक से गये
तुमको फ़ुर्सत कहाँ थी कि सुनते मेरी
ख़ुद ही सुनता सुनाता रहा रात भर
कुछ ज़माने की थी व्यर्थ की बन्दिशें
कुछ हमारी तुम्हारी थी मज़बूरियाँ
फ़ासला उम्र भर इक बना ही रहा
मिट सकी ना कदम दो कदम दूरियाँ
पाप औ’ पुण्य में मन उलझता गया
अर्थ जितना बताता रहा रात भर
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आनन्द पाठक-
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013
गीत 43 : कल्पनाऒ में जब तुम....
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गीत
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1 टिप्पणी:
बेहतरीन बिम्बों का प्रयोग,मन की गहराई से निकले भावो को शब्दों की लडियो में पिरो कर खुबसूरत गीत माला की रचना ,शुभकामनाये
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