रविवार, 20 मार्च 2022

एक सूचना --अनुभूतियों के रंग

 

                            -- एक सूचना--


 

मित्रों !

 

 आप लोगों के आशीर्वाद से , मेरॊ नौवीं [9-वीं] पुस्तक] ---अनुभूतियों के रंग--मुद्रण हेतु प्रेस में चली गई है ।
उमीद है कि इस महीने के अन्त  तक प्रकाशित हो जाएगी  । तबतक उस पुस्तक का

आवरण-पृष्ठ आप लोगों से साझा कर रहा हूँ ।

 

-अनुभूतियों के रंग-एक गीति-काव्य संग्रह हैं जिसमें लगभग 450 [ 4-4- लाइनों के ] स्वतन्त्र गेय पद हैं जो समय समय पर दिल में उभरती गईं। इन्हीं अनुभूतियों

को शाब्दिक रूप देने का एक प्रयास मात्र किया है, शायद आप लोगों को पसन्द आए।


इन अनुभूतियों के रंग अलग अलग  हैं --हर्ष के विषाद के
, मिलन के भी  विरह के भी । इकरार के भी, इनकार के भी । ग़म-ए-जानाँ के भी ,ग़म-ए-दौरां के भी।

संक्षेपत: आप यूँ समझ लें --

 

भावनाएँ कभी बन गई तितलियाँ

वेदनाएँ तड़प कर बनी बिजलियाँ

जब न पीड़ा मेरी ढल सकी शब्द में

बन के आँसू ढली मेरी 'अनुभूतियाँ'

 

इन में से कुछ अनुभूतियाँ समय पर इस मंच पर लगाता रहा हूँ और आप लोगो का आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है ।

फ़िलवक़्त इसी संग्रह से कुछ अनुभूतियाँ आप के अवलोकनार्थ यहाँ लगा रहा हू॥

पुस्तक छपने के बाद -इस पर विस्तार से और चर्चा करूँगा।

 

क़तरा क़तरा दर्द हमारा

हर क़तरे में एक कहानी

शामिल है इसमे दुनिया की

मिलन-विरह की कथा पुरानी ।


 

 

जीवन पथ का राही हूँ मैं,

एक अकेला कई रूप में

आजीवन चलता रहता हूँ,

कभी छांव में, कभी धूप में।

 

 

प्रश्न तुम्हारा वहीं खड़ा है

मैं ही उत्तर ढूँढ न पाया,

ज्ञान-ध्यान क्या दर्शन क्या है

मूढ़मना को समझ न आया |

 

 

जाना ही था, कह कर जाती

दिल के टुकड़े चुन कर जाती

मेरी भी क्या थी मजबूरी 

कुछ तो मेरी सुन कर जाती ।

 

 

वह एक ’कल्पना’  कि ’प्रेरणा’

कौन बसी है? ज्ञात नहीं है,

जीवन भर की "अनुभूति" है

पल-दो पल की बात नहीं है ।

 

सादर

 

-आनन्द.पाठक-

88009 27181

 

 

 

 

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

ग़ज़ल 222 [01D] : करें जब गोपियों की चूड़ियाँ --

 ग़ज़ल 222[01D]

1222---1222---1222---1222


ग़ज़ल 221 के ज़मीन पर 
एक और ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ।

ग़ज़ल --होली में


करें जो गोपियों की चूड़ियाँ झंकार होली में ,
बिरज में खूब देतीं है मज़ा लठमार होली में   ।

अबीरों के उड़ें बादल कहीं है फ़ाग की मस्ती
कहीं गोरी रचाती सोलहो शृंगार होली में  ।

इधर कान्हा की टोली है उधर ’राधा’ अकेली है
चलें दोनो तरफ़ से रंग की बौछार होली में ।

कहीं है  थाप चंगों पर, कहीं पायल की छमछम है,
कही पर कर रहा कोई सतत मनुहार होली में ।

किसी के रंग में रँग जा, न आता रोज़ यह मौसम,
किसी का हो गया है जो, वही हुशियार होली में ।

बिरज की हो, अवध की हो, कि होली हो’ बनारस’ की
खुले दिल से करें स्वागत , करें सत्कार होली में ।

गुलालों में घुली हैं स्नेह की ख़ुशबू  मुहब्बत की ,
भुला कर सब गिले शिकवे गले मिल यार होली में ।

न खाली हाथ लौटा है यहाँ से आजतक कोई ,
चले आना कि ’आनन’ का खुला है द्वार होली में ।


-आनन्द.पाठक-
8800927181

इसी ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुनें



ग़ज़ल 221[86D] : न रूठो तुम ,चली आओ--

 ग़ज़ल 221[86 D ]

1222---1222----1222---1222


चली आओ, न रूठो तुम,  करेंगे प्यार होली में
मुझे देना है दिल अपना तुम्हें उपहार होली में

भले आओ न आओ तुम, गिला कुछ भी नहीं तुमसे
करूँगा याद मैं तुमको, सनम सौ बार होली में

ख़ता है छेड़ना तुमको, पता है क्या सज़ा होगी
कहाँ कब मानता है दिल, सज़ा स्वीकार होली में

तेरी तसवीर में ही रंग भर कर मान लूँगा मैं
हुई चाहत मेरी पूरी, प्रिये ! इस बार होली  में

ज़माने की निगाहों से ज़रा बच कर चला करना
ख़बर क्या क्या उड़ा देंगे, सर-ए-बाज़ार होली में

ये फ़ागुन की हवाएँ हैं, नशा भरती हैं नस-नस में
तुम्हारा रूप उस पर से, जगाता प्यार होली में

गिरीं रुख़सार पर ज़ुल्फ़ें,  जवानी खुद से बेपरवा
करे जादू तुम्हारे रूप का  शृंगार होली में 

लगाना रंग ’आनन’ को. न उतरे ज़िंदगी भर जो
यही है प्यार का मौसम गुल-ओ-गुलज़ार होली में


-आनन्द.पाठक-

  

मंगलवार, 8 मार्च 2022

ग़ज़ल 220 : ्जुल्मात में मशाल जलाती रही

 

ग़ज़ल 220

221—2121—1221—212


जुल्मात में मशाल जलाती रही ग़ज़ल
हर दौर-ए-इन्क़लाब में गाती रही ग़ज़ल

पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको सुनाती रही ग़ज़ल
दुनिया के ग़म का बोझ उठाती रही ग़ज़ल
 
मायूसियों के दौर में कोई हो ग़मजदा
तारीक़ियों में राह दिखाती रही ग़ज़ल
 
ग़ंग-ओ-जमन की मौज सी लबरेज़ प्यार से
नफ़रत की आग दिल की बुझाती रही ग़ज़ल
 
आदाब-ए-ज़िंदगी कभी अरकान-ए-तर्बियत
तहज़ीब-ए-गुफ़्तगू भी सिखाती रही ग़ज़ल

दरबार में रही कभी ,घुँघरू में जा बसी
उतरी तो फिर अवाम पे छाती  रही ग़ज़ल
 
ख़ुशबू ज़बान की है हलावत लिए हुए
ग़ैरो को भी गले से लगाती रही ग़ज़ल
 
अल्फ़ाज़ बाँधने की ये जादूगरी नहीं
अन्दर में रूह तक कहीं जाती रही ग़ज़ल
 
’आनन’ ग़ज़ल की खूबियाँ क्या जानता नहीं ?
दो दिल की दूरियों को मिटाती रही ग़ज़ल।

-आनन्द.पाठक-
 
 

रविवार, 6 मार्च 2022

गीत 73 [09] : माँ मेरे सपनों में आती--

 गीत 

[Mother's Day पर कुछ पंक्तियाँ ----]

 माँ मेरे सपनों में आती
सौम्य मूर्ति देवी की जैसी, आकर ममता छलका जाती....
माँ मेरे सपनों में आती ---
 
कितनी धर्म परायण थी , माँ
करूणा की वातायन थी , माँ
समय शिला पर अंकित जैसे
घर भर की रामायन थी , माँ
 
जब जब व्यथित हुआ मन भटका जीवन के एकाकीपन में...
स्नेहसिक्त आशीर्वचन , माँ मुझ पर आ कर बरसा जाती....
माँ मेरे सपनों में आती,.....
 
साथ सत्य का नहीं छोड़ना
चाहे हों घनघोर घटाएँ
दीन-धरम का साथ निभाना
चाहे जितनी चलें हवाएँ
 
एक अलौकिक ज्योति पुंज-सी शक्ति-स्वरूपा सी लगती है
समय समय पर सपनों में माँ आकर मुझको समझा जाती
माँ मेरे सपनों में आती ---
 
घात लगाए बैठी दुनिया
सजग तुम्हें ही रहना होगा
जीवन पथ पर बढ़ना है तो
तुम्हें स्वयं ही लड़ना होगा
 
यहाँ रहे या वहाँ रहे माँ, जहाँ रहे बस माँ होती है
अपने आँचल की छाया कर सर पर मेरे फ़ैला जाती
माँ मेरे सपनों में आती ---


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 219 [84] : सितम मुझ पर हज़ारो थे--

 1222---1222---1222---1222


ग़ज़ल 219 [84\


सितम मुझ  पर हज़ारों थे, उन्हे जोर आज़माना था

मुहब्बत में फ़ना हो कर. वहीं मुझको दिखाना था


यहाँ हर मोड़ पर बैठे , शिकारी जाल फैलाए

कमाल अपना हुनर अपना कि खुद बचना बचाना था


जहाँ कुछ राख की ढेरी  नज़र आए समझ लेना, 

इसी गुलशन में मेरा भी वहीं इक आशियाना था


गरज़ उसकी पड़ी अपनी तुम्हारी जी हज़ूरी की

यहाँ पर कौन अपना था किसे वादा निभाना था 


उमीद उनसे लगाई थी वो आयेंगे इयादत को

कि उनके पास पहले ही न आने का बहाना था


लगी जब आग बस्ती में बुझाने लोग आए थे

वहीं कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें ’सेल्फ़ी’ बनाना था


कहाँ की बात करते हो कि ’कलयुग’ आ गया ’आनन’

किताबों में पढ़ा होगा कि ’सतयुग’ का ज़माना था 


-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 2 मार्च 2022

ग़ज़ल 218 : तुमको न हो यक़ीन मुझे तो यक़ीन है

 ग़ज़ल 218

221--2121---1221--212

तुमको न हो यक़ीन, मुझे तो यक़ीन है

तुम-सा ही कोइ दिल में निहाँ नाज़नीन है


तेरा हुनर कि ख़ाक से मुझको बना दिया

फिर यह ज़मीन तेरी  कि मेरी ज़मीन है


जिस राह से जो उनकी कभी रहगुज़र रही

उस राह की महक अभी ताज़ातरीन है


फ़ुरसत नहीं मिली कि जो देखूँ मैं ज़िन्दगी

वरना तो हर लिहाज़ से लगती हसीन है


दीदार  तो हुआ नही ,चर्चे बहुत सुने

सुनते हैं सब के दिल में वही इक मकीन है


फ़िरदौस की जो हूर हैं ,ज़ाहिद तुम्ही रखो

मेरा हसीन यार तो ख़ुद महज़बीन है


’आनन’ तमाम उम्र इसी बात में कटी

हर शय में वो ज़हूर कि पर्दानशीन है ?


-आनन्द.पाठक-