रविवार, 24 जून 2012
एक ग़ज़ल 032 [21-ब] : ख़यालों में जब से .....
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
गुरुवार, 7 जून 2012
एक ग़ज़ल 031[ 20-ब/60-अ] : ऐसी भी हो ख़बर... ..
ग़ज़ल 031 [ 20-ब/60-अ]ओके
[ नोट : यही ग़ज़ल भूल वश -"अभी संभावना है"- में भी संकलित है - 60 -A [ग़ज़ल -378]
अत: यह ग़ज़ल तदनुसार यहाँ भी संशोधित कर दी गई है ।
221--2121--1221--212
ऐसी भी हो ख़बर किसी अख़बार
में छपा
’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का हो पता ।
समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,
कल इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।
बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह
इस शहर में ’उसूल’ की गठरी उठा उठा।
जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,
मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।
हर सिम्त शोर है मचा जंग-ए-अज़ीम
का ,
इन्सानियत
पे गाज़ गिरेगी, इसे बचा ।
मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे
अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।
क्यों तस्करों के गाँव में
’आनन’ तू आ गया,
तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।
-आनन्द.पाठक
शुक्रवार, 1 जून 2012
एक ग़ज़ल 030[37] : लोग अपनी ही सुनाने में.....
ग़ज़ल 030 =ओके
2122----2122----2122
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्द्स सालिम
-----------------------
लोग अपने ग़म सुनाने में लगे हैं
और हम हैं ग़म भुलाने में लगे हैं
बेसबब लगते हैं उनको ज़ख़्म मेरे
वो ख़राश-ए-कफ़ दिखाने में लगे हैं
जानता हूँ आप की साहिब हक़ीक़त
कौन सा चेहरा चढ़ाने में लगे हैं ?
आप ्है सच के धुले लगते भला कब
फिर बहाने क्यों बनाने में लगे हैं ?
लोग तो चलते नहीं हैं जाग कर भी
आप क्यों मुर्दे जगाने में लगे हैं ।
सच की बातों का ज़माना लद गया
झूट की जय जय मनाने में लगे हैं
लाश गिन गिन कर हवादिस में वो,"आनन’
’वोट’ की कीमत लगाने में लगे हैं
-आनन्द-
्ख़राश-ए-कफ़ = हथेली की खरोंच
ख़राश-ए-कफ़ =हथेली की खरोंच
हवादिस = हादिसा का बहुवचन
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