सोमवार, 4 अप्रैल 2011

गीत 27 : जब आकर मिलना ही नहीं है.....

एक गीत : जब आकर मिलना ही नहीं है.....

जब आकर मिलना ही नहीं है ,फिर सपनों में आती क्यों हो ?

अवचेतन मन के कोने में ,कहीं एक आभासी छाया
मन प्यासा रह गया अधूरा, क्यों संतॄप्त नहीं हो पाया ?

जब मन को प्यासा रखना है बदली बन घिर आती क्यों हो?
रह रह प्यास जगाती क्यों हो?

’भूल तुम्हें मैं जाऊँगा’-धत, तुमने कैसे मान लिया है ?
मेरे प्रणय-निवेदन का ही तुमने कब संज्ञान लिया है ?

’ना’ से ’हाँ’ तक आते-आते ,अकस्मात रुक जाती क्यों हो?
फिर हँस कर हट जाती क्यों हो?

’राधा’ की तो बात अलग है ,’मीरा’ की मीरा ही जाने
’नल-दमयन्ती’ कथा कहानी क्यों लगती हो मुझे सुनाने ?

जो मुझको स्वीकार नहीं है बात वही दुहराती क्यों हो ?
मन की बात छुपाती क्यों हो?

मैं ही नहीं अकेला, सुमुखी ! इस नगरी का प्रथम प्रवासी
मुझ से पहले रहे हज़ारों ,समझ इसे ही का’बा काशी

तुम को सब मालूम अगर है ,फिर मुझको भटकाती क्यों हो ?
फिर यह प्रीति बढ़ाती क्यों हो ?

काल-चक्र के अन्तराल में ,सब मिट जाना ,फिर क्यों ऐंठे ?
आँखें सदा प्रतीक्षारत हैं ,हम आने के क्रम में बैठे

रह रह कर फिर समय द्वार का सांकल ,प्रिये ! बजाती क्यों हो?
फिर मुझ से छुप जाती क्यों हो?

आँख-मिचौली करते करते बीत गई जब सारी उमरिया
थके श्वाँस मन प्राण शिथिल हैं अब क्यों आई पास गुजरिया ?

लो, ख़ुद को कर दिया समर्पित ,प्रिये! इसे ठुकराती क्यों हो ?
दोष-प्रदोष पे जाती क्यों हो ?
जब आकर मिलना ही नहीं है ,फिर सपनों में आती क्यों हो ?

-आनन्द