मंगलवार, 22 जून 2021

ग़ज़ल 180 : वह शख़्स देखने में तो लगता ज़हीन है

 221-------2121-------1221---212

मफ़ऊलु—फ़ाअ’लातु-मफ़ाईलु—फ़ाइलुन

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

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एक ग़ज़ल


वह शख़्स देखने में तो लगता ज़हीन है,
अन्दर से हो ज़हीन, न होता यक़ीन है ।       1


कहने को तो हसीन वह ,चेहरा रँगा-पुता,
दिल से भी हो हसीन तो, सच में हसीन है।     2     


सच बोल कर मैं सच की दुहाई भी दे रहा
वह शख़्स झूठ बोल के भी मुतमईन है ।      3         


वह ज़हर घोलता है  फ़िज़ाओं में रात-दिन,
उसका वही ईमान है,  उसका वो दीन है ।      4


ज़ाहिद ये तेरा फ़ल्सफ़ा अपनी जगह सही,
गर हूर है उधर तो इधर महजबीन है                    5          


क्यों  ख़ुल्द से निकाल दिए इस ग़रीब  को,
यह भी जमीं तो आप की अपनी जमीन है।     6         


आनन’ तू  बदगुमान में, ये तेरा घर नहीं,
यह तो मकान और का, बस  तू मकीन है।      7         


-
आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

ज़हीन = सभ्य ,भला आदमी
मुतमईन है = निश्चिन्त है  ,बेफ़िक्र है
फ़लसफ़ा = दर्शन ,ज्ञान

महजबीन = चाँद सा चेहरे वाली
खुल्द  से= जन्नत  से [ आदम का खुल्द से निकाले जाने की जानिब इशारा है ]

मकीन = निवासी

[प्र0]


ग़ज़ल 179 : ग़ज़ल हुई तो यक़ीनन--

 1212---1122---1212---112/22


ग़ज़ल 179

ग़ज़ल हुई  तो यक़ीनन, न कामयाब हुई
तुम्हारे लब पे जो उतरी तो लाजवाब हुई

हमारे हाथ मे जब तक रही तो पानी थी
तुम्हारे हाथ में जा कर वही शराब हुई

हुई, हुई न हुई , कोई अख़्तियार नहीं
मगर हुई जो मुहब्बत तो बेहिसाब हुई

तमाम लोग थे जो जुल्म के शिकार हुए
कि सब के दिल की उठी आग, इन्क़लाब हुई

बचा के ला दिए तूफ़ान हादिसों से, मगर
अजीब प्यास थी साहिल पे गर्क-ए-आब हुई

हर एक बार जो गुज़रे तुम्हारे कूचे से
हमारी सोच ही नाक़िस थी बेनक़ाब हुई

अजीब चीज़ है उल्फ़त की भी सिफ़त’आनन’
किसी को मिल गई मंज़िल ,किसी का ख़्वाब हुई

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
गर्क-ए-आब हुई = डूब गई
नाक़िस सोच = ्ख़राब सोच ,नुक़्स वाली सोच
सिफ़त = गुण ,लक्षण

शनिवार, 19 जून 2021

अनुभूतियाँ : क़िस्त 08

 

अनुभूतियाँ : क़िस्त 08

 

1

दोनों के जब दर्द एक हैं,

फिर क्यों दिल से दिल की दूरी

एक साथ चलने में क्या है ,

मिलने में हैं क्या मजबूरी ?

 

2

रात रात भर तारे जग कर ,

देखा करते  राह निरन्तर  ?

और जलाते रहते ख़ुद को

आग बची जो दिल के अन्दर ।

 

3

कितनी बार हुई नम आँखें,

लेकिन बहने दिया न मैने।

शब्द अधर पर जब तब उभरे 

कुछ भी कहने दिया न मैने ।

 

4

छोड़ गई तुम, अरसा बीता,

फिर न बहार आई उपवन में ।

लेकिन ख़ुशबू आज तलक है,

दिल के इस सूने आँगन  में ।

 

 

-आनन्द.पाठक-

 

शनिवार, 12 जून 2021

गीत 70: ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ---

2122---2122--2122--2122

गीत 70 : ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ---

ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ,मैं अभी हारा नहीं हूँ ,
बिन लड़े ही हार मानूँ यह, नहीं स्वीकार मुझकॊ

जो कहेंगे वो, लिखूँ मैं ,शर्त मेरी लेखनी पर,
और मेरे ओठ पर ताला लगाना चाहते हैं ।
जो सुनाएँ वो सुनूँ मैं, ’हाँ’ में ’हाँ’ उनकी मिलाऊँ
बादलों के पंख पर वो घर बनाना चाहते हैं॥

स्वर्ण-मुद्रा थाल लेकर आ गए वो द्वार मेरे,
बेच दूँ मैं लेखनी यह ? है सतत धिक्कार मुझको

ज़िन्दगी आसां नहीं तुम सोच कर जितनी चली हो,
कौन सीधी राह चल कर पा गया अपन ठिकाना ।
हर क़दम, हर मोड़ पर अब राह में रहजन खड़े हैं
यह सफ़र यूँ ही चलेगा, ख़ुद ही बचना  या बचाना ।

जानता हूँ  तुम नहीं मानोगी  मेरी बात कोई-
और तुम को रोक लूँ मैं, यह नहीं अधिकार मुझको।

लोग अन्दर से जलें हैं, ज्यों हलाहल से बुझे हों,
आइने में वक़्त के ख़ुद को नहीं पहचानते हैं।
नम्रता की क्यों कमी है, क्यों ”अहम’ इतना भरा है
सामने वाले को वो अपने से कमतर मानते हैं।

एक ढूँढो, सौ मिलेंगे हर शहर में, हर गली में ,
रूप बदले हर जगह मिलते वही हर बार मुझको।

-आनन्द.पाठक- 

शुक्रवार, 11 जून 2021

कतरन 02 : दी ग्राम टू डे - में प्रकाशित एक ग़ज़ल

’दी ग्राम टू डे " - में प्रकाशित एक ग़ज़ल 

कम फ़हमी वाला कुर्सी पर मैने अकसर देखा है

पूरी ग़ज़ल यहाँ पढ़ सकते है--->>>>>


कतरन 01: पत्रिका --कवि ग्राम [ अंक जून/21]-- में प्रकाशित

आनंद पाठक जी से कुछ समय से मिर्ज़ा ग़ालिब शिक्षण संस्थान के माध्यम से जुड़ा हुआ हूँ। वहां आपके ग़ज़ल पर कुछ व्याख्यान पढ़ें है।
आज एक पत्रिका पीडीएफ फॉरमेट में आई उसमें आपके द्वारा लिखा हुआ #एक_पत्र_चोर_के_नाम पढ़ा। पढ़ते ही सबसे पहले आपको कमेंट किया।
गजब की व्यंग्य शैली तो है ही साथ ही जैसे जैसे फिल्मी गीतों की पैरोडी बनाई है वह चेहरे पर हंसी बिखेरती चली जा रही थी।
आशा है चोर आपके पत्र का जो जवाब दिया है वह भी जल्द प्राप्त होगा।
आप सब भी आनंद जी के इस पत्र का आनंद लीजिये कोरोना से बचने का यह सबसे आसान उपाय है घर में बैठ कर कुछ पढ़ते रहिए।

 पत्रिका --कवि ग्राम [ अंक जून/21]-- में प्रकाशित : एक व्यंग्य : एक पत्र चोर के नाम

व्यंग्य यहाँ पढ़ सकते हैं--->>>>>>

https://www.facebook.com/akpathak3107/posts/10214877799617414 

ग़ज़ल 178 : अपना ही क्यों हरदम गाते

 ग़ज़ल 178

21--121-121--122 // 21-121-121-122


अपना ही क्यों हरदम गाते, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 
कैसे  कैसे स्वाँग रचाते , तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

बात यक़ीनन कुछ तो होगी, मतलब होगा उनका,वरना
क्यों क़ातिल का साथ निभाते?, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

चोट लगी हो जब शब्दों से, जीवन भर वो रिसते रहते
घाव कहाँ कब हैं भर पाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

इतने तो मासूम नहीं हो, जान रही है दुनिया सारी
फिर तुम क्यों खुद को झुठलाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ 

चाँद सितारों की बातों से ,मुझको क्या है लेना-देना
क्या सच है यह क्यों न बताते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

फ़ित्ना उभरा, बस्ती उजड़ी, लोग मगर ख़ामोश रहे क्यूँ
हम सब क्यों गूँगे हो जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

माया की ही सब माया है, जान रहे हो तुम भी ’आनन’
दलदल में क्यों फँसते जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 


-आनन्द.पाठक-


गुरुवार, 10 जून 2021

ग़ज़ल 177 : हर बात पे नुक़्ताचीं--

 ग़ज़ल 177

221--1222 //221-1222



हर बात पे नुक़्ताचीं ,उनकी तो ये आदत है
हम ग़ौर से सुनते हैं,अपनी ये ज़हानत है


अच्छा न बुरा कोई ,सब वक़्त के मारे हैं
तकदीर अलग सब की.सब रब की इनायत है


सब लोग सफ़र में हैं, फिर लौट के कब आना
चलना ही जहाँ चलना ,कैसी ये मसाफ़त है ?


पर्दे में अज़ल से वो , देखा भी नहीं  हमने
हर शै में नज़र आता ,जब दिल में सदाकत है


वीरान पड़ा है दिल, मुद्दत भी हुई अब तो
आता न इधर कोई, करने कोअयादत है


क्यों पूछ रही हो तुम ’आनन’ का पता क्या है?
क्या कोई सितम बाक़ी,क्या कोई क़यामत है ?


”आनन’ की जमा पूँजी , बाक़ी है बची अबतक
इक चीज़ है ख़ुद्दारी ,इक चीज़ शराफ़त है 



-आनन्द.पाठक


मसाफ़त = सफ़र

अज़ल से = अनादि काल से

सदाक़त = सच्चाई

इयादत = मरीज का हाल चाल पूछना



बुधवार, 9 जून 2021

ग़ज़ल 176 : अहमक लोगो को कुर्सी पर--

ग़ज़ल 176

21--121--121--122// 21-121-121-122=16/16

अहमक लोगो को कुर्सी पर, हाँ बैठे अकसर देखा है
पूरब जाना,पश्चिम जाए , ऐसा भी रहबर देखा है


तेरा भी घर शीशे का है, मेरा भी है घर शीशे का
लेकिन तेरे ही हाथों में, क्यों  मैने पत्थर  देखा  है 


नफ़रत की जब आँधी चलती, छप्पर-टप्पर उड़ जाते हैं
गुलशन,गुलशन बस्ती उजड़ी .ऐसा  भी मंज़र देखा है 


मंज़िल से ख़ुद ही ग़ाफ़िल है ,बातें परऊँची फेंक रहा
बाहर से मीठा लगता है , भीतर इक ख़ंजर देखा है 


ज़िन्दा हो एक ’अना’ लेकर , क्यों झूठी शान दिखाते हो
दुनिया में तुमने अपने से , क्यों  सबको कमतर देखा है


बच्चे वापस आ जायेंगे, बस ढूँढ रहीं बूढ़ी आँखें
ग़म में डूबे खोए बाबा. मैने  ऐसा  घर देखा है 


जीवन से लाख शिकायत है, फिर भी कुछ तो है याराना
जब भी देखा मैने तुमको, बस एक नज़र भर देखा है


 ’आनन’ का  नाम सुना होगा. शायद उसको देखा  होगा

लेकिन क्या   तुम ने आनन के  ग़म का भी सागर देखा है?


अहमक - नाक़ाबिल. 

ग़ज़ल 175 : लोग हद से गुज़रने लगे हैं---

 212---212---212--2


ग़ज़ल 175


लोग हद से गुज़रने लगे हैं
आइने देख डरने लगे हैं

हम तो मक़्रूज़ है ज़िन्दगी के 
दर्द से क़िस्त भरने लगे हैं

घाव जो वक़्त ने भर दिए थे
जख़्म फिर से उभरने लगे हैं

झूठ के जो तरफ़दार थे,वो
बात सतयुग की करने लगे हैं

बारहा ज़िन्दगी को समेटा
और सपने बिखरने लगे हैं

शौक़ से वो क़लम बेच आए
पूछने पर, मुकरने लगे हैं

जुर्म किसका था,इलजाम ’आनन’
सर पर मेरे वो धरने लगे हैं


-आनन्द.पाठक-


मक्रूज़ = ऋणी