ग़ज़ल 176
21--121--121--122// 21-121-121-122=16/16
अहमक लोगो को कुर्सी पर, हाँ बैठे अकसर देखा है
पूरब जाना,पश्चिम जाए , ऐसा भी रहबर देखा है
तेरा भी घर शीशे का है, मेरा भी है घर शीशे का
लेकिन तेरे ही हाथों में, क्यों मैने पत्थर देखा है
नफ़रत की जब आँधी चलती, छप्पर-टप्पर उड़ जाते हैं
गुलशन,गुलशन बस्ती उजड़ी .ऐसा भी मंज़र देखा है
मंज़िल से ख़ुद ही ग़ाफ़िल है ,बातें परऊँची फेंक रहा
बाहर से मीठा लगता है , भीतर इक ख़ंजर देखा है
ज़िन्दा हो एक ’अना’ लेकर , क्यों झूठी शान दिखाते हो
दुनिया में तुमने अपने से , क्यों सबको कमतर देखा है
बच्चे वापस आ जायेंगे, बस ढूँढ रहीं बूढ़ी आँखें
ग़म में डूबे खोए बाबा. मैने ऐसा घर देखा है
जीवन से लाख शिकायत है, फिर भी कुछ तो है याराना
जब भी देखा मैने तुमको, बस एक नज़र भर देखा है
’आनन’ का नाम सुना होगा. शायद उसको देखा होगा
लेकिन क्या तुम ने आनन के ग़म का भी सागर देखा है?
अहमक - नाक़ाबिल.
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