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मफ़ऊलु—फ़ाअ’लातु-मफ़ाईलु—फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
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एक ग़ज़ल
वह
शख़्स देखने में तो लगता ज़हीन है,
अन्दर
से हो ज़हीन, न होता यक़ीन है । 1
कहने
को तो हसीन वह ,चेहरा
रँगा-पुता,
दिल
से भी हो हसीन तो, सच में हसीन है। 2
सच
बोल कर मैं सच की दुहाई भी दे रहा
वह
शख़्स झूठ बोल के भी मुतमईन है । 3
वह
ज़हर घोलता है फ़िज़ाओं में रात-दिन,
उसका
वही ईमान है, उसका वो दीन है । 4
ज़ाहिद
ये तेरा फ़ल्सफ़ा अपनी जगह सही,
गर
हूर है उधर तो इधर महजबीन है । 5
क्यों ख़ुल्द से निकाल दिए इस ग़रीब को,
यह
भी जमीं तो आप की अपनी जमीन है। 6
’आनन’
तू बदगुमान में, ये तेरा घर नहीं,
यह
तो मकान और का, बस तू मकीन है। 7
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
ज़हीन = सभ्य ,भला
आदमी
मुतमईन
है = निश्चिन्त है ,बेफ़िक्र है
फ़लसफ़ा
= दर्शन ,ज्ञान
महजबीन = चाँद सा
चेहरे वाली
खुल्द से= जन्नत से [ आदम का खुल्द से
निकाले जाने की जानिब इशारा है ]
मकीन = निवासी
[प्र0]
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