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ग़ज़ल 179
ग़ज़ल हुई तो यक़ीनन, न कामयाब हुई
तुम्हारे लब पे जो उतरी तो लाजवाब हुई
हमारे हाथ मे जब तक रही तो पानी थी
तुम्हारे हाथ में जा कर वही शराब हुई
हुई, हुई न हुई , कोई अख़्तियार नहीं
मगर हुई जो मुहब्बत तो बेहिसाब हुई
तमाम लोग थे जो जुल्म के शिकार हुए
कि सब के दिल की उठी आग, इन्क़लाब हुई
बचा के ला दिए तूफ़ान हादिसों से, मगर
अजीब प्यास थी साहिल पे गर्क-ए-आब हुई
हर एक बार जो गुज़रे तुम्हारे कूचे से
हमारी सोच ही नाक़िस थी बेनक़ाब हुई
अजीब चीज़ है उल्फ़त की भी सिफ़त’आनन’
किसी को मिल गई मंज़िल ,किसी का ख़्वाब हुई
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
गर्क-ए-आब हुई = डूब गई
नाक़िस सोच = ्ख़राब सोच ,नुक़्स वाली सोच
सिफ़त = गुण ,लक्षण
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