शनिवार, 3 मार्च 2018

ग़ज़ल 97[46] : ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है----

मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
1222---1222----1222------1222
--------------------------------------

एक ग़ज़ल : ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है----

ये कैसी रस्म-ए-उलफ़त है ,न आँखें नम ,न रुसवाई
ज़माने को खटकता क्यों  है दो दिल की  पज़ीराई

तुम्हारे हाथ में पत्थर ,  जुनून-ए-दिल इधर भी है
न तुम जीते ,न दिल हारा,मुहब्बत भी न रुक पाई

न भूला है ,न भूलेगा कभी यह आस्तान-ए-यार
मेरी शिद्दत ,मेरे सजदों की अन्दाज़-ए-जबींसाई

तुम्हारे सितम की मुझ पर अभी तो इन्तिहा बाक़ी
कभी देखा नहीं होगा , मेरी जैसी शिकेबाई

तुम्हारी तरबियत में ही कमी कुछ रह गई होगी
वगरना कौन करता है मुहब्ब्त की यूँ  रुसवाई

कभी जब ’मैं’ नहीं रहता ,तो बातें करती रहती हैं
उधर से कुछ तेरी यादें ,इधर से मेरी तनहाई

हमारी जाँ ब-लब है ,तुम अगर आ जाते इस जानिब
ज़रा कुछ देखते हम भी कि होती क्या  मसीहाई

मैं मह्व-ए-यार में डूबा रहा ख़ुद से जुदा ’आनन’
मुझे होती ख़बर क्या कब ख़िज़ाँ आई ,बहार आई

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
पजीराई =चाहत ,स्वीकृति ,मक़्बूलियत
आस्तान-ए-यार = प्रेमिका के देहरी का चौखट/पत्थर
अन्दाज़-ए-जबींसाई = माथा रगड़ने का अन्दाज़.
शिकेबाई      =धैर्य/धीरज/सहिष्णुता
तरबियत =पालन पोषण
जाँ-ब-लब =मरणासन्न स्थिति
मह्व-ए-यार = यार के ध्यान में मग्न /मुब्तिला

[सं 28-05-18]