बुधवार, 31 जुलाई 2024

ग़ज़ल 408 [34 A] : किन किन ख़याल-ओ-ख़ाब में

 ग़ज़ल 408 [34 A]

2212---1212---2212---12


किन किन ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता है आदमी

कितनी जगह से जुड़ के भी टूटा है आदमी ।


कितने सवाल हैं यहाँ जीने के नाम पर ,

हर इक सवाल में यहाँ उलझा है आदमी ।


हालात-ज़िंदगी में वह ऐसा जकड़ गया ,

हँसता न आदमी है, ना रोता है आदमी ।


जो भी गए हैं वह सभी इस राह से गए

जा कर वहाँ से कब कहाँ लौटा है आदमी।


आवाज़ आप दें उसे , बोलेगा वह ज़रूर

अन्दर जो दिल में आप के बैठा है आदमी ।


हर मोड़ पर हज़ार जहाँ आदमी दिखे ,

पर आदमी में अब कहाँ दिखता है आदमी ।


मुशकिल तमाम है तो क्या ’आनन’ ये जान लो

ज़िंदा है हौसला तो फिर ज़िंदा है आदमी ।


-आनन्द.पाठक- 


मंगलवार, 30 जुलाई 2024

ग़ज़ल 407 [35 A] : आप अपने आप को भी तोलिए--

 ग़ज़ल 407 [35 A]

2122---2122---212


आप अपने आप को भी तोलिए ,

ज़िंदगी अपनी नज़र से देखिए ।


लोग पलकों पर बिठा लें आप को

आप उनका दर्द अपना सोचिए ।


तीरगी का आप चाहे जो करें

रोशनी को तो भला मत रोकिए ।


देखिए कैसे बदलती है  फ़ज़ा ,

दिल से दिल को जोड़ कर तो देखिए।


कौन जाने कब किधर बस्ती जले

नफ़रती इस आग से मत खेलिए ।


आ गए जब सामने मंज़र नए ,

राग अपना अब पुराना छोड़िए ।


साहिब-ए-आनन यही काफी नहीं

दिल की गाँठें भी ज़रा तो खोलिए ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 406[36 A] : रास्ते अब भी मिलेंगे ,आप चलिए तो सही

 ग़ज़ल 406[ 36 A]

2122---2122---2122---212


रास्ते अब भी मिलेंगे, आप चलिए तो सही ,

हौसले से दो क़दम गर आप रखिए तो सही ।


लोग जो पत्थर से हैं वह ख़ुद बख़ुद गल जाएँगे,

बाँह में भर कर गले से, आप मिलिए तो सही ।


आदमी ज़िंदा हो या मुर्दा उठेगा एक दिन ,

इन्क़लाबी जोश में कुछ आग भरिए तो सही ।


सोचते जो रह गए, बैठे हुए हैं आज तक ,

शीश ख़ुद परबत झुकाए, आप चढ़िए तो सही ।


गुनगुनाती बह चलेगी पत्थरों से निर्झरी 

दर्द कुछ अपनी ग़ज़ल में आप भरिए तो सही ।


इन अँधेरों की चुनौती है नहीं इतनी बड़ी

प्यार का दीपक जला कर आप रखिए तो सही ।


हज़रत-ए-आनन ज़रा आँखें तो अपनी खोलिए

देश की हालात पर कुछ आप कहिए तो सही ।


-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 29 जुलाई 2024

अनुभूतियाँ 145/32

 अनुभूतियाँ 145/32

577

एक समय ऐसा भी आया
जीवन में अंगारे बरसे ।
जलधारों की बात कहाँ थी
बादल की छाया को तरसे ।

578
एक बात को हर मौके पर
घुमा-फिरा कर वही कहेगा।
ग़लत दलीलें दे दे कर वह
ग़लत बात को सही कहेगा ।

579
सीदी राह नहीं चलना है
जाने कौन सिखाता उसको।
"राम-कथा" में "शकुनि मामा"
जाने कौन पढ़ाता उसको ।

580
अहम, अना, मद, झूठ, दिखावा
भरम पाल कर वह जीता है ।
बाहर से वह भले छुपा ले
भीतर से रीता रीता  है ।

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 144/31

अनुभूतियाँ 144/31 

573

अंगारों पर चला किए हैं
मैं क्या जानू पथ फूलों का ।
कुछ तो कर्ज रहा है मुझ पर
राह रोकते उन शूलों का ।

574
व्यर्थ बात में सदा तुम्हारा
मन रहता है उलझा उलझा
अन्तर्मन से कभी पूछना 
तुमने नहीं जरूरी  समझा

575
छोड़ो अब अंगार उगलना
कुछ तो मीठी बातें कर लो
कल हम दोनों कहाँ रहेंगे
मन में कुछ खुशियाँ तो भर लो।

576
सतत साधना व्यर्थ न जाती
गले लगा लेते जो , प्रियतम !
जनम सफ़ल हो जाता मेरा
अपना अगर बना लो, प्रियतम !

-आनन्द.पाठक-

कविता 22: हम भारत की---

 कविता 22 : हम भारत की--


हम भारत की विपुल संपदा

हम भारत की जनता

जहाँ विविधता में एकता।

सत्य अहिंसा के अनुगामी

संस्कृति मे हम बहुआयामी

प्रेम, दया , करूणा के द्योतक

दान, क्षमा, के हैं हम पोषक

विश्वगुरु के हम उदघोषक

हमी सनातन

जिसका रज कण भी चन्दन

भारत माँ की सतत वंदना

भारत माँ को सतत नमन ।


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 28 जुलाई 2024

अनुभूतियाँ 143/30


अनुभूतियाँ 143/30

569
मेरी शराफत मेरी लताफत 
मेरी कमजोरी तो नहीं  है
सही  समझना मुझको वैसे
तेरी मजबूरी तो नही है ।

570
तुमने मना किया है मुझको
" कोई ग़ज़ल कहूँ ना तुम पर"
मुझसे ना ये  हो पाएगा 
करूँ अनसुना मन की सुन कर । 

571
लेना-देना क्या है तुमसे
प्रेम-प्रीत का बस वंदन है
एक अलौकिक एक अलक्षित
जनम जनम का यह बंधन है ।

572
सदियों से है रीति चलन मे
प्यार मुहब्बत जग जाने है 
तुम न समझ पाओगी क्या है
मन मेरा बस पहचाने है ।

-आनन्द पाठक-

शनिवार, 27 जुलाई 2024

अनुभूतियां 142/29

अनुभूतियाँ  142/29

565

रिश्ते खत्म नहीं होते यह

दो दिन की है यह बात नहीं

द्शकों से इसे सँभाला है
पल दो पल के जज़्बात नहीं

566
सब कस्मे, वादे एक तरफ़
कुछ सख़्त मराहिल एक तरफ़
लहरों से कश्ती जूझ रही
ख़ामोश है साहिल एक तरफ़ । 


567
मेरे बारे में जो  समझा 
अच्छा सोचा, दूषित समझा
यह सोच सहज स्वीकार मुझे
तुमने मुझको कलुषित समझा ।

568
कुछ बातें ऐसी भी क्या थीं
जो मन मे ही रख्खा तुमने
खुल कर तुम कह सकती थी
तुमको न कभी रोका हमने 

-आनन्द पाठक-


शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

अनुभूतियाँ 141/28


अनुभूतियाँ 141/28

561
 रोज यहाँ हैं जीना मरना
सबको मिलती पहचान नही
क्या तुम को भी लगता ऐसा
जीना कोई आसान नहीं ? 

562
अफसाने हस्ती के फैले
खुशियों से लेकर मातम तक
कुछ ख्वाब छुपा कर बैठे थे
जाहिर न किए आखिर दम तक

563
मतलब की इस दुनिया में
रिश्तों का कोई अर्थ नहीं 
सदभाव अगर हो  दिल में तो
लगता है जैसे स्वर्ग वहीं 

564
जाना था जिसको चला गया
रोके से भला रुकता भी क्या
मुड़ कर न मुझे देखा उसने
मैं आँखे नम करता भी क्या ।

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 405 [62-फ़] : नहीं अब रही गुफ़्तगू में लताफ़त

 ग़ज़ल 405 [62-फ़]

122---122---122---122


नहीं अब रही गुफ़्तगू में लताफत

वो करने लगा दोस्ती में सियासत


वो फोड़ा करे ठीकरा और के सर

उसे ख़ास हासिल है इसमें महारत


शजर छोड़ कर जो गए हैं परिंदे

नहीं अब रही लौट आने की आदत


जहाँ सीम-ओ-ज़र के दिखे चन्द टुकड़े

वहीं बेंच देगा वो अपनी शराफ़त ।


भले आँधियों ने गिराया हमे हो 

हमारी जड़े है अभी तक सलामत ।


चराग़ों में जितनी बची रोशनी है 

वही हौसले हैं वही मेरी ताक़त ।


यही बात होती न ’आनन’ गवारा

अमानत में करता है जब वह ख़यानत ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

सीम-ओ-ज़र = धन-दौलत, माल-पानी

अमानत में ख़यानत = विश्वासघात


मंगलवार, 23 जुलाई 2024

दोहे 20 : श्रावणी दोहे

 दोहे 20: सावनी दोहे


काँवर लेकर चल पड़े, मन में भर विश्वास ।

महादेव के नाम से, गूँजे  सावन  मास ॥


पावन घट मे जल लिए, करने को अभिषेक ।

भक्ति भाव अतिरेक में , रखें भावना नेक ॥


गूंज रहा है बोल-बम, एक यही संकल्प ।

महादेव के नाम का, दूजा नहीं विकल्प ॥


बाबा भोले नाथ से, विनती मेरी खास  ।

जब तक मेरी साँस हो,दर्शन की हो प्यास ॥


बाबा भोले नाथ का,  सदा करें गुणगान ।

मन कल्मष ना हो कभी, सदा रहे यह ध्यान ॥


जा पर किरपा आप की, भवसागर हो पार ।

करियो शम्भू नाथ जी , मेरो भी  उद्धार ॥   -6


चरण वंदना आप की, हे शिव जी महराज ।

कॄपा करें आशीष दें , पूरे होवे काज  ॥  -7







 

शनिवार, 20 जुलाई 2024

ग़ज़ल 404 [ 61-फ़] : बात बेपर की तुम उड़ाते हो

 ग़ज़ल 404 [61-फ़]

2122---1212---22


बात बेपर की तुम उड़ाते हो

क्या हक़ीक़त है भूल जाते हो ।


आदमी हो कोई खुदा तो नहीं

धौंस किस पर किसे दिखाते हो ।


झूठ ही झूठ का तमाशा है

बारहा सच उसे बताते हो ।


खुद की जानिब भी देख लेते तुम

उँगलियाँ जब कभी उठाते हो ।


मंज़िलों की तुम्हें ख़बर ही नही

राहबर खुद को तुम बताते हो


हम चिरागाँ हैं हौसले वाले

इन हवाओं से क्या डराते हो


वो फ़रिश्ता तो है नहीं ’आनन’

बात क्यों उसकी मान जाते हो 


-आनन्द.पाठक--

ग़ज़ल 403 [ 60-फ़] : इश्क़ की एक ही कहानी है

 ग़ज़ल 403 [ 60-फ़]

2122---1212---22


इश्क़ की एक ही कहानी है

रंज़-ओ-ग़म की ये तर्जुमानी है ।


उम्र भर का ये इक तकाज़ा है,

चन्द लम्हों की शादमानी  है ।


प्यार करना है आ गले लग जा

चार दिन की ये जिंदगानी है ।


रंग-ए-दुनिया अगर बदलना हो

लौ मुहब्बत की इक जगानी है ।


ज़िंदगी ख़ुशनुमा नज़र आती

इश्क़ ही की ये मेहरबानी है ।


प्यार कतरा में इक समन्दर है

बात यह रोज़ क्या बतानी है ।


जानना राह-ए- इश्क़ क्या ’आनन’?

जानता हूँ कि राह-ए-फ़ानी है ।


-आनन्द पाठक--


शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

अनुभूतियाँ 140/27

अनुभूतियाँ 140/27

 557
ना ही कोई अपना होता
ना ही कोई यहाँ पराया
यह तो है व्यवहार आप का
किसको कितना कैसा भाया ।

558
फिर सावन के दिन आयो है
उमड़ घुमड़ बदरा गरजै है ।
तड़क भड़क कर चमकै बिजुरी 
गोरी का  जियरा धड़कै है ।

559
जिसको देखो वही दुखी है
पैर रखे चादर से आगे ।
दुनिया को मुठ्ठी में करने,
बस माया के पीछे भागे ।

560
 तुम्हे सहारा  क्या देंगे वह
बेसाखी पर टिके हुए जो
क्यों उनसे हो आस लगाए 
सुविधाओं पर बिके हुए जो

-आनन्द पाठक-

कविता 21 : आया ऊँट पहाड़ के नीचे--

 कविता 21 : आया ऊँट पहाड़ के नीचे--


आया ऊँट पहाड़ के नीचे

देख रहा है अँखियाँ मीचे 

मन ही मन क्या कुछ सोचे 

अयँ ?

मुझसे भी क्या कोई बड़ा  है?

यहाँ सामने कौन खड़ा है ?

 ऐसा भी होता है क्या !

 मुझसे कोई ऊँचा  क्या !

जिसने देखी झाड - झाड़ियाँ 

वह क्या समझे है पहाड़ क्या !


 अपने कद का रोब दिखाता

 अपना ही बस गाता जाता

क्या करता फिर एक आदमी

सिर्फ़ हवा में

 दाँत भींच कर मुठ्ठी भींचे

आया ऊँट पहाड़ के नीचे

आया उँट पहाड़ के नीचे ।


-आनन्द.पाठक


कविता 20 : जाने क्यों ऐसा लगता है--

 कविता 20 : जाने क्यों ऐसा लगता है---


जाने क्यों ऐसा लगता है ?

उसने मुझे पुकारा होगा

जीवन की तरुणाई में, अँगड़ाई ले

दरपन कभी निहारा होगा

शरमा कर फ़िर, 

उसने मुझे पुकारा होगा ।

दिल कहता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ?

--   -- 


कभी कभी वह तनहाई में 

भरी नींद की गहराई में 

देखा होगा कोई सपना

छूटा एक सहारा होगा,

 उसने मुझे पुकारा होगा

मन डरता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ।

---

सारी दुनिया सोती रहती

लेकिन वह 

रात रात भर जागा करता , तारे गिनता

टूटा एक सितारा होगा

फिर घबरा कर

उसने मुझे पुकारा होगा ।

जाने क्यों ऐसा लगता है ॥

जाने क्यों ऐसा लगता है ।

-आनन्द.पाठक-


कविता 19 : जाने यह कैसा बंधन है--

 कविता 19 : जाने यह कैसा बंधन है--


जाने यह कैसा बंधन है

गुरु-शिष्य का

वर्तमान से ज्यों भविष्य का ।

रिश्ता पावन ऐसे जैसे

स्तुति वाचन-ॠचा मन्त्र का,

गीत गीत से -छ्न्द छन्द का,

फ़ूल फ़ूल से - गन्ध गन्ध का,

जैसे पानी का चंदन से,

भक्ति भावना का वंदन से,

शब्द भाव का--नदी नाव का,

बिन्दु-परिधि का, केन्द्र-वृत्त का,

जीवन-घट का और मृत्तिका,

दीप-स्नेह का और वर्तिका ।

बाहों का मधु आलिंगन से

एक अदृश्य -सा अनुबंधन है ।

जाने यह कैसा बंधन है ।


-आनन्द.पाठक--


गुरुवार, 18 जुलाई 2024

ग़ज़ल 402[ 59-A] : दिल ही से सब बयाँ हो--

 ग़ज़ल 402 [ 59-A ]

 59-अ

221---2122  // 221--2122 


हर दर्द नागहाँ हो, यह भी तो सच नहीं है 

सब गम मिरा अयाँ  हो, यह भी तो सच नहीं है ।


इलजाम जब है उन पर, कहते हैं वो, धुआँ  है ,

बिन आग का धुआँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


माखन न तुमने खाया, बस दूध के धुले हो

आदाब-ए-पासबाँ हो , यह भी तो सच नहीं है ।


आए जो हाशिए पर , कहते हो साजिशे  हैं 

कुछ भी न दरमियाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


’दिल्ली’ में बारहा तुम, मजमा लगाते फिरते

तुम मिस्ल-ए-कारवाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


काजल की कोठरी से, बेदाग़ कौन निकला ,

मासूम बेज़ुबाँ हो ,यह भी तो सच नहीं है ।


इतनी बड़ी तो हस्ती, ’आनन’ नहीं तुम्हारी,

दामान-ए-आसमाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


-आनन्द.पाठक- 


कविता 18: कह न सका मैं --

 कविता 18 : कह न सका मैं---


कह न सका मैं 

जो कहना था ।

मौन भाव से सब सहना था।

तुम ही कह दो।


शब्द अधर तक आते आते

ठहर गए थे।

अक्षर अक्षर बिखर गए थे।

आँखों में आँसू उभरे थे ।

 पढ़ न सका मैं |

जो न लिखा था

तुम ही पढ़ दो।

कह न सकी जो तुम भी कह दो

कह न सका मैं , तुम ही सुन लो।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 401[43-A] : जो गीत दर्द के गाते नहीं तो---

 ग़ज़ल 401 [43-A ]

1212---1122---1212---22


जो गीत दर्द के गाते नहीं , तो क्या करते 

तमाम उम्र सुनाते नहीं , तो क्या करते ।


कड़े थे शर्त हमारी तो ज़िंदगी के मगर 

उधार हम जो चुकाते नहीं, तो क्या करते !


हज़ार क़ैद थे आइद हमारे ख़्वाबों पर

हर एक ख़्वाब मिटाते नहीं, तो क्या करते।


उमीद थी कि वो आएँगे खुद बख़ुद चल कर

पयाम दे के बुलाते नहीं, तो क्या करते ।


तमाम लोग थे ईमाँ खरीदने निकले-

इमान अपना बचाते नहीं, तो क्या करते ।


शरीफ़ लोग भी बातिल के साथ साथ खड़े

अलम जो सच का उठाते नहीं, तो क्या करते ।


हर एक मोड़ पे नफ़रत की तीरगी ’आनन’

चिराग़-ए-इश्क़ जलाते नहीं, तो क्या करते ।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

आइद थे = लागू थे

पयाम दे के = संदेश भेज कर

बातिल के साथ = झूठ के साथ

तीरगी   = अँधेरा

अलम = झंडा





कविता 17 : वह कौन थी ?

 कविता 17


कल तुमने यह पूछा था

वह कौन थी ? 

भाव मुखर थे, ग़ज़ल मौन थी ।


मेरी ग़ज़लों के शे’रों के

 मिसरों में 

चाहे वह अर्कान रहा हो

लफ्जों का औजान रहा हो

रुक्नो का गिरदान रहा हो

मक्ता था या मतला था

अक्षर अक्षर में

सिर्फ तुम्हारा रूप ढला था

मेरे भावों की छावों में 

जो लड़की  गुमसुम गुमसुम थी

वह तुम थी , हाँ वह तुम थी।


’अइसा तुमने काहे पूछा ?

तुम्हरा मन में ई का सूझा ?’


-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 17 जुलाई 2024

ग़ज़ल 400 [ 42-A] : खोटे सिक्के हाथों में ले---

 ग़ज़ल 400 [42-A] 

21---121---121--122  // 21---121--121--122


खोटे सिक्के हाथों में ले, मोल लगाने लोग खड़े है 

घड़ियाली आँसू से पूरित, दर्द जताने लोग खड़े हैं ।


आज धुँआ फिर से उठ्ठेगा, झुग्गी झोपड़ पट्टी से ही

कल जैसा फिर दुहराने को, आग लगाने लोग खड़े हैं ।


बेंच दिए ’रामायण-गीता’ आदर्शों की बात भुला कर

वाचन करने को तत्पर हैं, अर्थ बताने लोग खड़े हैं ।


दीन-धरम है बाक़ी अब भी, कुछ लोगों के दिल के अन्दर

आग लगाने वालों सुन लो, आग बुझाने लोग खड़े हैं ।


दुनिया भर की बात करेंगे, चाँद सितारे मुठ्ठी में है

करना धरना एक नही है, गाल बजाने लोग खड़े हैं ।


शर्म-ओ-हया की बात कहाँ अब, उरियानी का फैशन आया

वाजिब है कुछ की नजरों मे, आज बताने लोग खड़े हैं


’आनन’ तुम भी कैसे कैसे, लोगों की बातों में आए

झूठे वादों से जन्नत की, सैर कराने लोग खड़े हैं ।


-आनन्द पाठक-



एक समीक्षा : मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] --की समीक्षा - नीरज गोस्वामी जी के द्वारा

 एक समीक्षा : मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] --की समीक्षा - नीरज गोस्वामी जी के द्वारा


#नीरज #गोस्वामी -

हाँ यही नाम है उनका जिन्हे मैं --नीरज भाई - कह कर बुलाता हूँ । साहित्य और ब्लाग की दुनिया में एक जाना पहचाना और पुराना नाम। किसी परिचय का मोहताज़ नही । बहुमुखी प्रतिभा के धनी --’एक्टिंग- रंगमच से ले कर साहित्यिक मंचों तक। कलम के धनी।
अन्य किताबों के साथ साथ इनकी किताब #101 किताबें ग़ज़लों की# और -#डाली --#मोगरे #की --काफ़ी चर्चा में रही। #नीरज भाई के नाम के साथ एक समस्या यह है कि इनकी कुछ ग़ज़लो को लोग गोपाल दास ’नीरज" जी के नाम से मन्सूब कर देतें है ख़ास तौर पर होली के समय। फ़िर हम दोनों खूब हँसते है। सफ़ाई यह नहीं --मैं देता रहता हूँ।
आज उन्होने ही मेरी एक किताब ग़जल संग्रह ---मौसम बदलेगा-- पर अपनी एक समीक्षात्मक क़लम चलाई है। आप लोग भी पढ़े और अपनी राय से अवगत कराएँ।
लिन्क नीचे लगा रहा हूँ।


सादर
-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

ग़ज़ल 399 [ 59 F] : बुतखाने मे जाकर हमने--

 ग़ज़ल 399 [ 59 F] 

21---121---121--122 // 21---121--121--12

बुतखाने मे जाकर हमने, राज़-ए-मुहब्बत आ'म किए

जाने क्या क्या कह कर हमको, लोग अबस बदनाम किए ।


शिकवा, आम शिकायत तुमसे, चाहे जितना कर लें हम

नाम तुम्हारा ही ले ले कर, सुबह किए हम, शाम किए ।


इस्याँ अपना जग ज़ाहिर है, और इबादत उल्फत भी

जो भी हासिल इस दुनिया से, सारे उनके नाम किए ।


तनहाई में आँखें नम थी, रंज़ो-ओ-ग़म थे साथ मेरे

एक तेरी तस्वीर मेरा दिल, पूरी रात कलाम किए ।


कितने दौर- ए- जाम चले हैं ,फिर भी प्यास अधूरी है

जब जब प्यास बढ़ी है यारब!, याद तुम्हें हर गाम किए


अक्स तुम्हारा हर शै में है, कब हमने इनकार किया

वैसे हम हर नक्श-ए-पा पर, सजदा और सलाम किए


हस्ती अपनी क्या है ’आनन’, एक तमाशा मेला है ,

दिन भर दौड़े, भागे, घूमे, रात हुई आराम किए ।


ग़ज़ल 398 [41 A] : सूरज को गिरवी रख रख कर

 ग़ज़ल 398 [41 A]  

21---121--121---122 // 21---121---121--12

सूरज को गिरवी रख रख कर, खुद ही वह दिनमान बने

उनका अन्तर्मन था काला, श्रद्धा के प्रतिमान बने  ।


चाल तुम्हारी टेढी टेढ़ी, चार दिनों की शान यहाँ,

आकर इस फानी दुनिया में , क्यों तुम नाफरमान बने


तुमको क्या लेना-देना है, आदर्शों के मेले से-

गैरत अपनी बेंच दिए तो, ख़ुद अपनी पहचान बने ।


’राम-कथा’ कहते फ़िरते थे, गाँव-गली में वाचक बन 

’दिल्ली’ जाकर जाने क्यों वह,’रावण’ के उन्वान बने ।


कल तक जिन हाथों में शोभित, दंड, कमंडल, माला थी

आज उन्हीं हाथों में जाकर, खंजर, तीर-कमान बने ।


कल तक खुद को खोज रहे थे,  संबंधों की दुनिया में

गिरगिट-सा कुछ रंग बदल कर, आज वही अनजान बने ।


बात जहाँ पर तय होनी थी,चेहरे पर कितने चेहरे ,

जो चेहरे ’उपमेय’ नहीं थे, वो चेहरे ’उपमान’ बने ।


दुनिया मे क्या करने आए, पर क्या तुमने कर डाला,

’ढाई-आखर’ पढ़ कर” आनन’, क्यों ना तुम इन्सान बने?


-आनन्द पाठक-


रविवार, 14 जुलाई 2024

ग़ज़ल 397 [ 40-A] : लोग सिक्कों पर फ़िसलने लग गए

 ग़ज़ल 397 [ 40-A]

2122---2122---212


लोग सिक्कों पर फ़िसलने लग गए

भूमिका अपनी बदलने लग गए ।


आइना जब भी दिखाते हैं उन्हें

ले के पत्थर वो निकलने लग गए ।


मुठ्ठियाँ जब गर्म होने लग गईं

मोम-से थे जो , पिघलने लग गए।


आज आँगन में नहीं ’तुलसी’ कहीं

’कैकटस’ गमलों में पलने लग गए।


सत्य से जो बेखबर अबतक रहे

झूठ की वह राह चलने लग गए।


फ़न कुचलने का समय अब आ गया

साँप सड़को पर निकलने लग गए ।


अब तो ’आनन’ हाल ऐसा हो गया

लोग इक दूजे को छलने लग गए ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 396 [39-A] : जब कभी हम से वह मिला करता--

 ग़ज़ल 396/39-A]


2122---1212-  22

जब कभी हम से वह मिला करता

दिल न जाने है क्यों डरा  करता ।


उसकी तक़रीर जब कहीं होती

हादिसा क्यों वहीं हुआ करता ।


जख्म अपना उसे दिखाता हूँ

दर्द सुन कर वो अनसुना करता ।


फूल बन कर उसे महकना  था

बन के काँटा है वह उगा करता ।


सच से जब उसका सामना होता

रंग चेहरे का क्यों उड़ा करता ।


रोशनी क्या है, क्या वो समझेगा,

जो अँधेरों में है पला करता ?


संग-ए-दिल लाख हो भले ’आनन’

दिल में दर्या है इक बहा करता ।


-आनन्द.पाठक -


सोमवार, 8 जुलाई 2024

ग़ज़ल 395[ 58फ़] : उसे पता ही नहीं---


ग़ज़ल 395 [58फ़] 

1212---1122---1212---112/22


उसे पता ही नहीं क्या वो बोल जाता है

न सर, न पैर हो, बातें वही सुनाता  है ।


वो आइना पे ही इलजाम मढ़ के चल देता

अगर जो आइना कोई कहीं दिखाता  है ।


किसी के पीठ पे हो कर सवार पार हुआ

उसी को बाद में फिर शौक़ से डुबाता है ।


वो चन्द रोज़ हवा में उड़ा करेगा अभी

नई नई है मिली जीत यह दिखाता  है ।


उसे बहार में भी आ रही नज़र है खिज़ाँ

वो जानबूझ के भी सच नही बताता  है ।


ज़मीन पर है नहीं पाँव आजकल उसके

वो आसमाँ से हक़ीक़त न देख पाता है ।


हवा लगी है उसे बदगुमान की ’आनन’

किसी को अपने मुक़ाबिल नही लगाता है ।


-आनन्द.पाठक-

दोहा 19 : सामान्य

 ्दोहा 19 [ सामान्य]


नकली बाबा बोलता, खुद को ’हरि-अवतार’ ।
जनता भी पागल हुई, जाने को दरबार ॥

शुहरत उसको क्या मिली, बदल गया व्यवहार ।
हेय समझने लग गया , जो थे उसके यार ॥

जीवन इक लम्बा सफर, मिले किसी का साथ ।
कट जाए आराम से, जुड़े हाथ से हाथ ।।

आधा दरवाजा खुला, आधा ही बस बन्द ।
वह भी अब खुल जाएगा, कोशिश पड़े न मन्द ॥

सबकी अपनी सोच है, सबके अपने तर्क ।
मंज़िल सबकी एक है, नहीं किसी में फ़र्क ॥

कहते हैं जब वक़्त की, जिस पर गिरती गाज ।
मिट जाता है आदमी , ना होती आवाज़ ।।

दौलत का ऐसा नशा, सिर पर नशा सवार ।
क्षमा शील करूणा उसे, लगता है बेकार  ।।

-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

ग़ज़ल 394 [57 फ़] : मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते


ग़ज़ल 394 [57फ़]

1212---1122---1212---112/22


मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते

पहाड़ फूँक से ही तुम उड़ा नहीं सकते


ग़रूर है ये तुम्हारा , तमीज़ का परचम

दिखा के आँख मुझे तुम डरा नहीं सकते 


नहीं वो पेड़ जो  गमलों में, नरसरी में पले

वो शाख हैं कि हमें तुम झुका नहीं सकते ।


ये झूठ का जो पुलिंदा लिए हुए सर पे

पयाम सच का मेरे तुम दबा नहीं सकते


सवाल ये है कि सुनना न मानना है तुम्हें

दिमाग़ में जो तुम्हारे मिटा नहीं सकते ।


वो हार कर भी सबक कुछ न सीख पाया है

नहीं है सीखना जिसको सिखा नहीं सकते ।


जवाब सुन के भी वह सुन सका नहीं ’आनन’

जो कान बंद किए हो , सुना नहीं सकते।


-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 1 जुलाई 2024

कविता 16: बस्तियाँ जलती हैं

  कविता 16/01: बस्तियाँ जलती हैं--


बस्तियाँ जलती हैं
चूल्हे बुझते हैं, 
सपने मरते हैं ।
कर्ज उतारना था
बेटी ब्याहना था 
बेटा पढ़ाना था।
कौन है वो लोग
जो बुझे चूल्हे पर
सेंकते है रोटियाँ
गिन रहे
संसद भवन की सीढियाँ


-आनन्द.पाठक-