ग़ज़ल 393[ 56F]
212---212---212---212
वह ’खटाखट’ खटाखट’ बता कर गया
हाथ में पर्चियाँ मैं लिए हूँ खड़ा ।
बेच कर के वो सपने चला भी गया
सामना रोज सच से मै करता रहा ।
उसने जो भी कहा मैने माना ही क्यों
वह तो जुमला था जुमले में क्या था रखा।
आप रिश्तों को सीढ़ी समझते रहे
मैं समझता रहा प्यार का रास्ता ।
झूठ की थी लड़ाई बड़े झूठ से
’सच’- चुनावो से पहले ही मारा गया ।
अब सियासत भी वैसी कहाँ रह गई
बदजुबानी की चलने लगी जब हवा ।
उसकी बातों में ’आनन’ कहाँ फ़ँस गए
आशना वह कभी ना किसी का हुआ ।
-आनन्द.पाठक-
सं 02-07-24