मुक्तक 14: समंदर से [क़ता’]
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1222---1222---1222---1222
भला कब डूबने देंगे तुम्हारे चाहने वाले
दुआ कर के बचा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले
पता तुमको न हो शायद, इज़ाज़त दे के तो देखो
कि पलकों पर बिठा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले ।
2/13
2122--2122---212
राह-ए-उल्फ़त में कभी ऐसा तो कर
दिल को तू पहले अभी शैदा तो कर
सिर्फ़ सजदे में पड़ा है बेसबब
इश्तियाक़-ए-इश्क़ भी पैदा तो कर ।
3/12
212---212--212---212
कोई कहता नहीं, उनसे मेरी तरह
कोई खुलता नहीं दिल से मेरी तरह
जो मिले मुझसे, चेहरे चढ़ाए हुए
कोई मिलता नहीं मुझसे मेरी तरह ।
4/29
2212----2212----2212----2212
नासेह ये तेरा फ़लसफ़ा नाक़ाबिल-ए-मंज़ूर
क्या सच यहाँ कि हूर से बेहतर वहाँ की हूर ?
याँ सामने है मैकदा और तू बना है पारसा
फिर क्यों ख़याल-ए-जाम-ए-जन्नत से हुआ मख़्मूर है ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
[इश्तियाक-ए-इश्क़ = प्रेम की लालसा]\
पारसा = संयमी
मख़्मूर = ख़ुमार में
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