मुक्तक 13[फ़र्द]
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वो मेरे ख़्वाब क्या थे और क्या ताबीर थी मेरी
जो वक़्त-ए-जाँ-ब-लब देखा, फटी तसवीर थी मेरी
मिलाया ख़ाक में मुझको, जो पूछू तो मैं क्या पूछूं
हुनर था वो तुम्हारा या कि फिर तकदीर थी मेरी ।
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कहीं मुझको जो तुम दिखती, मैं बेबस क्यों मचलता हूं ?
कभी यह दिल भटकता है, कभी गिर कर सँभलता हूँ ।
ज़माने की हज़ारों बंदिशे क्यों फ़र्ज़ हो मुझ पर ?
अकेला मैं ही क्या ’आनन’ जो राह-ए-इश्क़ चलता हूँ ?
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कभी जब आग लगती है किसी के दिल के अंदर तक
किसे परवा कि कितने पेंच-ओ-ख़म होंगे तेरे दर तक
अगर होती नहीं उसके लबों पर तिश्नगी ’आनन’
भला कटता सफ़र कैसे नदी का इक समंदर तक ।
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नवाज़िश भी नहीं उसकी, शिकायत भी नहीं करता
न जाने क्या हुआ उसको, क़राबत भी नही करता ।
ज़माने की हवाओं से वो क्यों बेजार रहता है ,
वो नफ़रत तो नहीं करता, मुहब्बत भी नहीं करता ।
-आनन्द.पाठक-
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