मुक्तक 11- [फ़र्द]
1/14
कुछ करो या ना करो इतना करो
कुछ करो या ना करो इतना करो
है बची ग़ैरत अगर ज़िन्दा करो
कौन देता है किसी को रास्ता
ख़ुद नया इक रास्ता पैदा करो ।
2/17
महफ़िल में लोग आए थे अपनी अना के साथ
देखा नहीं किसी को भी ज़ौक़-ए-फ़ना के साथ
नासेह ! तुम्हारी बात में नुक्ते की बात है
दिल लग गया है मेरा किसी आश्ना के साथ\।
3/10
122---122---122--122
यूँ जितना भी चाहो दबे पाँव आओ
हवाओं की खुशबू से पहचान लूंगा
अगर मेरे दिल से निकल कर दिखा दो
तो फिर हार अपनी चलो मान लूँगा |
4/07
1212 1122 1212 22
निकल गए थे कभी छोड़ कर जो दर अपने
तो मुड़ के देखते भी क्या नफ़ा-ज़रर अपने
जहाँ जहाँ पे दिखे थे हमें क़दम उनके
वही वहीं पे झुकाते गए थे सर अपने ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
नफ़ा-ज़रर = हानि-लाभ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें