शनिवार, 1 जून 2024

मुक्तक 11 [फ़र्द]

 मुक्तक 11- [फ़र्द]

1/14

कुछ करो या ना करो इतना करो
है बची ग़ैरत अगर ज़िन्दा  करो
 कौन देता है  किसी  को रास्ता
 ख़ुद नया इक रास्ता  पैदा  करो ।


2/17
महफ़िल में लोग आए थे अपनी अना के साथ
देखा नहीं किसी को भी ज़ौक़-ए-फ़ना  के साथ
नासेह ! तुम्हारी बात में नुक्ते की बात  है 
दिल लग गया है  मेरा किसी  आश्ना  के साथ\।

3/10
122---122---122--122
यूँ जितना भी चाहो दबे पाँव आओ
हवाओं की खुशबू से पहचान लूंगा
अगर  मेरे दिल से निकल कर दिखा दो
तो फिर हार अपनी चलो मान लूँगा |

4/07
1212   1122   1212   22
निकल गए थे कभी छोड़ कर जो दर अपने
तो मुड़ के देखते भी क्या नफ़ा-ज़रर अपने
जहाँ जहाँ पे दिखे थे हमें क़दम उनके
वही वहीं पे झुकाते गए थे  सर अपने  ।

 -आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

नफ़ा-ज़रर = हानि-लाभ


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