गुरुवार, 6 जून 2024

मुक्तक 15 : [फ़र्द]

 मुक्तक 15 [फ़र्द]

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221---2121---1221---212

खुशियाँ तमाम लुट गई है कू-ए-यार में 

जैसे हरा-सा पेड़ कटा  हो बहार में ।

जैसे कटी है आज तलक ज़िंदगी मेरी

बाक़ी कटेगी वह भी तेरे इन्तजार में ।


2/31

221---2121---1221---212

चढ़ती हुई नदी थी, चढ़ी और उतर गई

जैसे कि आरज़ू  हो किसी की  बिखर गई

वैसे तमाम उम्र खुशी  ढूँढती रहीं

आ कर भी मेरे पास बगल से गुज़र गई


3/36

1222---1222---1222---1222

कभी इन्कार करती हो, कभी उपहार देती हो

मुझे हर बार जीने का नया आधार देती  हो,

मुहब्बत का अजब तेरा तरीका है मेरे जानम !

कभी पुचकार लेती हो, कभी दुतकार देती हो ।


4/27

221---2122 // 221-2122 

कश्ती भी पूछती है, साहिल कहाँ है मेरा

मजलूम ढूँढता है ,आदिल कहाँ है मेरा 

क़ातिल निगाह उनकी, ख़ंज़र भी उनके हाथों

उनसे ही पूछता हूँ, क़ातिल कहाँ है मेरा ।


-आनन्द.पाठक-





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