रविवार, 9 जून 2024

मुक्तक 18

 मुक्तक 18


1

कज़ा का जो दिन था मुकर्रर ,वो आई

भला कब कहाँ दिखती ऐसी वफ़ाई

अदा-ए-क़ज़ा देख हैरत में ’आनन’

कि बस मुस्कराती न सुनती दुहाई


  2

जब देश पे मिटने की खातिर, अनजाने मस्ताने निकले

सरमस्तों की टोली निकली,घर घर से दीवाने निकले

पर आज सि़यासत मे सबने ,लूटा है झूटे वादे कर 

वो ग़ैर नहीं सब अपने थे , सब जाने पहचाने निकले।


3

2122---2122---212

ज़िंदगी बेलौस  कुछ गाती तो है

जो भी हो जैसी भी हो भाती तो है

दीप चाहे हो किसी का भी कहीं

रोशनी छन छन सही आती तो है ।


4

1222---1222---1222---1222

उसे मालूम है उसके बिना मैं रह नहीं सकता

सितम मैं सह तो सकता हूं जुदाई सह नहीं सकता।

ज़माने भर में केवल मैं कि जिसकी है ज़ुबाँबंदी

जो कहना भी अगर चाहूँ तो मै कुछ कह नहीं सकता ।


-आनन्द.पाठक-


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