मुक्तक 18
1
122---122---122---122
मुकर्रर था जो दिन कज़ा का तो आई
भला कब कहाँ दिखती ऐसी वफ़ाई
अदा-ए-क़ज़ा देख हैरत में ’आनन’
कि बस मुस्कराती न सुनती दुहाई
2
जब देश पे मिटने की खातिर, अनजाने मस्ताने निकले
सरमस्तों की टोली निकली,घर घर से दीवाने निकले
पर आज सि़यासत मे सबने ,लूटा है झूटे वादे कर
वो ग़ैर नहीं सब अपने थे , सब जाने पहचाने निकले।
3
2122---2122---212
ज़िंदगी बेलौस कुछ गाती तो है
जो भी हो जैसी भी हो भाती तो है
दीप चाहे हो किसी का भी कहीं
रोशनी छन छन सही आती तो है ।
4
1222---1222---1222---1222
उसे मालूम है उसके बिना मैं रह नहीं सकता
सितम मैं सह तो सकता हूं जुदाई सह नहीं सकता।
ज़माने भर में केवल मैं कि जिसकी है ज़ुबाँबंदी
जो कहना भी अगर चाहूँ तो मै कुछ कह नहीं सकता ।
-आनन्द.पाठक-
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