ग़ज़ल 397 [ 40-A]
2122---2122---212
लोग सिक्कों पर फ़िसलने लग गए
भूमिका अपनी बदलने लग गए ।
आइना जब भी दिखाते हैं उन्हें
ले के पत्थर वो निकलने लग गए ।
मुठ्ठियाँ जब गर्म होने लग गईं
मोम-से थे जो , पिघलने लग गए।
आज आँगन में नहीं ’तुलसी’ कहीं
’कैकटस’ गमलों में पलने लग गए।
सत्य से जो बेखबर अबतक रहे
झूठ की वह राह चलने लग गए।
फ़न कुचलने का समय अब आ गया
साँप सड़को पर निकलने लग गए ।
अब तो ’आनन’ हाल ऐसा हो गया
लोग इक दूजे को छलने लग गए ।
-आनन्द.पाठक-
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