अनुभूतियाँ 140/27
557
ना ही कोई अपना होता
ना ही कोई यहाँ पराया
यह तो है व्यवहार आप का
किसको कितना कैसा भाया ।
558
फिर सावन के दिन आयो है
उमड़ घुमड़ बदरा गरजै है ।
तड़क भड़क कर चमकै बिजुरी
गोरी का जियरा धड़कै है ।
559
जिसको देखो वही दुखी है
पैर रखे चादर से आगे ।
दुनिया को मुठ्ठी में करने,
बस माया के पीछे भागे ।
560
तुम्हे सहारा क्या देंगे वह
बेसाखी पर टिके हुए जो
क्यों उनसे हो आस लगाए
सुविधाओं पर बिके हुए जो
-आनन्द पाठक-
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