ग़ज़ल 405 [62-फ़]
122---122---122---122
नहीं अब रही गुफ़्तगू में लताफत
वो करने लगा दोस्ती में सियासत
वो फोड़ा करे ठीकरा और के सर
उसे ख़ास हासिल है इसमें महारत
शजर छोड़ कर जो गए हैं परिंदे
नहीं अब रही लौट आने की आदत
जहाँ सीम-ओ-ज़र के दिखे चन्द टुकड़े
वहीं बेंच देगा वो अपनी शराफ़त ।
भले आँधियों ने गिराया हमे हो
हमारी जड़े है अभी तक सलामत ।
चराग़ों में जितनी बची रोशनी है
वही हौसले हैं वही मेरी ताक़त ।
यही बात होती न ’आनन’ गवारा
अमानत में करता है जब वह ख़यानत ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
सीम-ओ-ज़र = धन-दौलत, माल-पानी
अमानत में ख़यानत = विश्वासघात
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