ग़ज़ल 396/39-A]
2122---1212- 22
जब भी
मुझ से है वो मिला करता
जाने
क्यों दिल मेरा डरा करता ।
उसकी
तक़रीर जब कहीं होती
हादिसा
भी वहीं हुआ करता ।
जख्म
अपना उसे दिखाता हूँ
दर्द
सुन कर भी अनसुना करता ।
फूल
बन कर जिसे महकना था
बन
के काँटा वो क्यों उगा करता ।
सामना
सच से जब भी होता है
रंग उसका
है क्यों उड़ा करता ।
रोशनी
क्या है, क्या वो समझेगा,
जो
अँधेरों में है पला करता ?
संग-दिल
लाख हो भले ’आनन’
दिल
में झरना है इक बहा करता ।
-आनन्द.पाठक -
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