मंगलवार, 16 जुलाई 2024

ग़ज़ल 398 [41 A] : सूरज को गिरवी रख रख कर

 ग़ज़ल 398 [41 A]  

21---121--121---122 // 21---121---121--12

सूरज को गिरवी रख रख कर, खुद ही वह दिनमान बने

उनका अन्तर्मन था काला, श्रद्धा के प्रतिमान बने  ।


चाल तुम्हारी टेढी टेढ़ी, चार दिनों की शान यहाँ,

आकर इस फानी दुनिया में , क्यों तुम नाफरमान बने


तुमको क्या लेना-देना है, आदर्शों के मेले से-

गैरत अपनी बेंच दिए तो, ख़ुद अपनी पहचान बने ।


’राम-कथा’ कहते फ़िरते थे, गाँव-गली में वाचक बन 

’दिल्ली’ जाकर जाने क्यों वह,’रावण’ के उन्वान बने ।


कल तक जिन हाथों में शोभित, दंड, कमंडल, माला थी

आज उन्हीं हाथों में जाकर, खंजर, तीर-कमान बने ।


कल तक खुद को खोज रहे थे,  संबंधों की दुनिया में

गिरगिट-सा कुछ रंग बदल कर, आज वही अनजान बने ।


बात जहाँ पर तय होनी थी,चेहरे पर कितने चेहरे ,

जो चेहरे ’उपमेय’ नहीं थे, वो चेहरे ’उपमान’ बने ।


दुनिया मे क्या करने आए, पर क्या तुमने कर डाला,

’ढाई-आखर’ पढ़ कर” आनन’, क्यों ना तुम इन्सान बने?


-आनन्द पाठक-


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