्दोहा 19 [ सामान्य]
नकली बाबा बोलता, खुद को ’हरि-अवतार’ ।
जनता भी पागल हुई, जाने को दरबार ॥
जनता भी पागल हुई, जाने को दरबार ॥
शुहरत उसको क्या मिली, बदल गया व्यवहार ।
हेय समझने लग गया , जो थे उसके यार ॥
जीवन इक लम्बा सफर, मिले किसी का साथ ।
कट जाए आराम से, जुड़े हाथ से हाथ ।।
आधा दरवाजा खुला, आधा ही बस बन्द ।
वह भी अब खुल जाएगा, कोशिश पड़े न मन्द ॥
सबकी अपनी सोच है, सबके अपने तर्क ।
मंज़िल सबकी एक है, नहीं किसी में फ़र्क ॥
कहते हैं जब वक़्त की, जिस पर गिरती गाज ।
मिट जाता है आदमी , ना होती आवाज़ ।।
दौलत का ऐसा नशा, सिर पर नशा सवार ।
क्षमा शील करूणा उसे, लगता है बेकार ।।
-आनन्द पाठक-
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