गुरुवार, 18 जुलाई 2024

ग़ज़ल 402[ 59-A] : हर दर्द नागहाँ हो

 ग़ज़ल 402 [ 59-A ]

[ 221-2122—221—2122]

Bahr-e-Muzaare-musamman Akharab saalim akharab mahazoof

 

हर दर्द नागहाँ हो, यह भी तो सच नहीं है

आँखों से ही बयाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।

 

इलजाम जिसके सर पर, कहता कि झूठ है सब ,

बिन आग का धुआँ हो, यह भी तो सच नहीं है।

 

माखन न तुमने खाया, बस दूध के धुले हो

चेहरे से ना अयाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।

 

जब हाशिए पे आए , साजिश बता रहे हो

तुम इतने नातवाँ हो, यह भी तो सच नहीं है

 

’दिल्ली’ में बारहा जो , मजमा लगा रहा हो

तुम मीर-ए-कारवाँ है, यह भी तो सच नहीं  ।

 

काजल की कोठरी में, बेदाग़ तुम नहीं हो

मासूम बेज़ुबाँ हो ,यह भी तो सच नहीं है ।

 

इतनी बड़ी नहीं  है , ’हस्ती तुम्हारी ’आनन’

ख़ुद ही तुम आसमाँ हो, यह भी तो सच नहीं ।               

 

 

 

 

 

    

 

 



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